कॉलेजियम के फैसलों पर तो सदैव सवाल उठते रहे हैं लेकिन पिछले दिनों मद्रास हाईकोर्ट की चीफ़ जस्टिस ताहिलरमानी की मणिपुर हाईकोर्ट में तबादले और उसके बाद जस्टिस ताहिलरमानी के इस्तीफे से उच्चतम न्यायालय के कालेजियम प्रणालीकी शुचिता पर ही सवाल उठ खड़े हुए हैं। तमाम आलोचनाओं के बीच उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन लोकुर ने जिस तरह कालेजियम की तीखी आलोचना की उससे उच्चतम न्यायालय ने आज स्पष्टीकरण जारी किया है।उच्चतम न्यायालय के सेकेट्री जनरल संजीव एस कलगांवकर ने गुरुवार को बयान जारी करके कहा है की यह संस्थान के हित में नहीं होगा कि वो स्थानांतरण के कारणों का खुलासा करें लेकिन यदि आवश्यक हुआ तो कॉलेजियम को उसका खुलासा करने में कोई हिचक नहीं होगी।
बयान में कहा गया है कि उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों / न्यायाधीशों के स्थानांतरण के संबंध में कॉलेजियम द्वारा हाल ही में की गई सिफारिशों से संबंधित कुछ रिपोर्ट मीडिया में दिखाई दी हैं। जैसा कि निर्देश दिया गया है, यह कहा गया है कि न्याय के बेहतर प्रशासन के हित में आवश्यक प्रक्रिया का अनुपालन करने के बाद स्थानांतरण के लिए सिफारिश की गई थीं। हालांकि यह संस्थान के हित में नहीं होगा कि वह स्थानांतरण के कारणों का खुलासा करें, यदि आवश्यक पाया गया, तो कॉलेजियम को इसका खुलासा करने में कोई संकोच नहीं होगा। आगे, सभी सिफारिशें पूर्ण विचार-विमर्श के बाद की गईं और कॉलेजियम द्वारा सर्वसम्मति से इन पर सहमति व्यक्त की गई थी।
गौरतलब है कि जस्टिस लोकुर उन चार जजों में शामिल थे जिन्होंने चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ प्रेस कॉन्फ़्रेंस की थी। ऐसा भारत के इतिहास में पहली बार हुआ था। तब इन जजों ने यह कहा था कि लोकतंत्र सुरक्षित नहीं हैऔर अगर आज वे नहीं बोलते तो आने वाली पीढ़ियाँ सवाल करतीं। जस्टिस मदन बी. लोकुर ने ‘द इकनॉमिक टाइम्स’ में एक लेख लिखा है। अपने लेख में लोकुर ने कॉलीजियम की कार्यप्रणाली और जजों की नियुक्ति की तीखी आलोचना की है। उन्होंने लिखा है कि यहाँ कुछ ऐसा हो रहा जो हमें पता नहीं है।जस्टिस लोकुर ने लिखा है कि कॉलीजियम को विवादों की आदत रही है। लेकिन अब इसकी सिफ़ारिशों पर हमले हो रहे हैं। वे कौन-सी विवादित सिफ़ारिशें रही हैं और उनकी क्यों आलोचना हो रही है? इस पर विचार करने की ज़रूरत है क्योंकि इन सिफ़ारिशों में किसी तरह की तारतम्यता नहीं दिखायी देती है, मनमाने ज़्यादा लगते हैं।
जस्टिस लोकुर ने अपने लेख में तीन हाई कोर्ट के जजों के तबादलों का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि अब कुछ तबादलों ने बहुतों को विचलित कर दिया है। प्रशासनिक न्याय का वास्ता देकर एक हाईकोर्ट के एक वरिष्ठ और योग्य जज का तबादला कर दिया गया और यह प्रदर्शित करने की कोशिश की गयी कि हाईकोर्ट में उनकी मौजूदगी प्रशासनिक न्याय के लिए उचित नहीं थी।क्या यह तबादला दंडकारी नहीं माना जाना चाहिए?
जस्टिस लोकुर उच्चतम न्यायालय में जजों की नियुक्तियों पर भी प्रश्न खड़ा किया है। उनका कहना हैंकी उच्चतम न्यायालय में जजों के चुनाव के लिए कोई निश्चित तरीक़ा नहीं है और नियुक्तियों के लिए योग्यतायें समय-समय पर बदलती रहती हैं। वरिष्ठता, अलग-अलग हाईकोर्ट का उच्चतम न्यायालय में प्रतिनिधित्व, लिंग, धर्म, जाति और निश्चित तौर पर योग्यता को तरजीह दी जाती है। सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्तियों के मानक या योग्यता पर उनका कहना है कि ‘आजकल एक नयी कसौटी सामने आयी है। अगला मुख्य न्यायाधीश कौन बनेगा और कितने समय के लिये होगा और किसको बनने से रोकना है। क्या इस चांसलर फ़ुट सिंड्रोम से छुटकारा संभव है?’
वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट.