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कभी धुर वामपंथी रहे काका और प्रमोद झा का रुझान बाद में दायीं ओर हुआ!

प्रद्युम्न तिवारी-

आज आंख खुली और पता चला कि वरिष्ठ पत्रकार और कई बड़े अखबारों के संपादक रहे रामेश्वर पाण्डेय ‘काका’ नहीं रहे। मन सालने लगा, अकुलाहट बढ़ने लगी। बहरहाल जैसे तैसे काका के निवास पहुंचा, तो मालूम हुआ कि आज सुबह पांच बजे अंतिम सांस ली। काका से फोन पर बात होती ही रहती थी। अपना एक अखबार जमा रहे थे। जनवरी महीने से उनकी तबियत कुछ ज्यादा खराब हो गयी थी। पीजीआई में भर्ती कराया गया था, डायलिसिस हुई थी। मैं देखने गया, तो बोले कि प्रद्युम्न किसी से बताना मत, लोग नाहक परेशान होंगे। मीडिया जगत में उन्हें आदर और प्यार से काका का संबोधन मिला था।

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गजब जीवट के व्यक्ति थे। संघर्ष उन्हें छोड़ते नहीं थे और वह थे कि संघर्षों को जैसे न्योता देते रहते थे। इन्हीं संघर्षों की आंच में पक कर निकले, तो काका ओजस्वी और पराक्रमी बन गये। इसके बावजूद उनकी मुस्कुराहट, सहजता और सरलता सामने वाले को हठात अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी।

काका से मेरी पहली मुलाकात 1982-83 में लखनऊ में ही हुई। मैंने अमृत प्रभात अखबार जाना शुरू कर दिया था और नौसिखिया था। काका अपने जिगरी दोस्त दादा प्रमोद झा से मिलने हर दूसरे तीसरे दिन अमृत प्रभात कार्यालय आ जाते थे। उनकी गर्मागर्म बहस को सुनता था और हिस्सेदारी करने का प्रयास भी करता था। मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में था, जिन्हें दोनों का विशेष स्नेह मिलता था। कभी धुर वामपंथी रहे काका और प्रमोद झा, दोनों का रुझान बाद में दायीं ओर हुआ, लेकिन उनके राजनीतिक विचार कभी उनकी पत्रकारीय प्रतिबद्धता पर भारी नहीं पड़ने पाये।

काका के साथ कार्य करने का सर्वप्रथम अवसर हमें अमर उजाला कानपुर के प्रकाशन के समय मिला। अमृत प्रभात 1990 मई माह में बंद हो चुका था। 1 मार्च 1992 को कानपुर से अमर उजाला का प्रकाशन शुरू हुआ और हमने प्रकाशन के एक माह पहले ही 1 फरवरी को ही अमर उजाला ज्वाइन कर लिया था। वहां से काका का मार्गदर्शन मिलना शुरू हुआ। उनसे पत्रकारिता के जो गुर सीखने को मिले, वह आज भी कुछ नया करने को प्रेरित करते हैं।

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वर्तनी की शुद्धता के प्रति काका बेहद सचेत रहते थे। अखबारों में कंप्यूटर युग की शुरुआत के बाद वर्तनी की अशुद्धियां आम बात हो गयीं। आज भी क्या बड़े और क्या छोटे, किसी की कोई खबर उठा लें, तो अशुद्धियां मुंह बाये मिलेंगी। पर, काका इस स्थिति से समझौते के पक्षधर कभी नहीं रहे। वह साथियों को इस संबंध में सदैव सचेत करते रहते थे। 69-70 वर्ष की उम्र में भी अखबारों और खबरों को लेकर उनका जुनून देखते ही बनता था और प्रेरित भी करता था। काका बेहतर पत्रकार होने के साथ ही नेकदिल इंसान भी थे और उनका यही तालमेल शायद सबको अनायास ही सम्मोहित कर लेता था। काका का जाना अखर गया। एक श्रेष्ठ और नेकदिल पत्रकार को विनम्र और अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि।

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