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कल्पेश आत्महत्या प्रकरण : क्या अब मीडिया को इसमें लव, सेक्स और धोखा नहीं दिख रहा!

उसने कहा “क्या अब मीडिया को इसमें लव, सेक्स और धोखा नहीं दिख रहा”… मैंने कहा बात सही है, पर कोई खबर लेने को तैयार नहीं… एक बात इन दिनों मेरे ज़हन में तेज़ी से चल रही है सोचा आपके साथ शेयर करूं… कल्पेश याग्निक अब हमारे बीच नहीं रहे. मैं उनको व्यक्तिगत तौर पर जानता था… महान पत्रकारों की जो मेरी सूची है उनमें उनका नाम नहीं था…

जैसे ही उनके जाने का पहला समाचार आया, पत्रकारों ने भावुक होकर उनके चले जाने के दुःख का जमकर इज़हार किया… लेकिन जैसे जैसे दिन निकले तो परत दर परत बात खुलती गयी… पता चला उनकी मौत स्वभाविक नहीं थी… उन्होंने सुसाईड किया… दूसरी बात जो सामने आयी वह यह की यह सुसाईड उन्होंने अपने उन कर्मों के डर से किया जिनका उन्हें दुनिया के सामने आने का खौफ था…

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ये जान समझ कर मैं आहत हुं क्योंकि देश के एक बड़े मीडिया घराने के अखबार समूह के सम्पादक का ऐसा दर्दनाक अंत! वे ख्यातनाम पत्रकार थे… पत्रकार वो होता है जो समाज मेँ अलख जगाता है… लेकिन उनके वाइरल हुए ऑडियो से ज़ाहिर होता है खुद अंदर से टूटे हुए, बिखरे हुए थे… ऐसे में उनसे क्या उम्मीद की जायेगी… फिर दूसरी ख़ास बात वो महिला कौन थी? उससे उनके क्या रिश्ते थे? क्या वो रिश्ते उतने पाक नहीं थे जिसके उजागर होने का ख़तरा उनके सर पर मंडरा रहा था?

मीडिया इस खबर पर दबी जुबां में बात कर रहा है क्योंकि अपने साथी के लिए खुलकर कैसे सामने आये… ऑडियो में वे किसी महिला को दार्शनिक अंदाज़ में समझा रहे हैं… कुछ बनने बिगड़ने का मामला लगता है… मेरे एक गैर पत्रकार दोस्त ने मुझसे कहा ‘यदि यही मामला किसी और का होता तो टीवी चैनल और अखबार चिल्ला चिल्लाकर “लव, सेक्स और धोखा” हेडिंग से ना मालूम क्या क्या कहानियाँ बनाते उसके बैडरूम तक पहुँच जाते… उसकी सात पुश्तों का पोस्टमार्टम कर देते… क्या अब मीडिया को इसमें लव, सेक्स और धोखा नहीं दिख रहा’. मुझे लगा सही ही तो कह रहा है क्योंकि इन विषयों पर मीडिया की टीआरपी जमकर बढ़ती है लेकिन फिलहाल मीडिया खामोश है… उसके होश उड़े हैं… जो लोग कल्पेश जी के जाने के बाद भावुक लेख लिख रहे थे उन्हें भी सदमा लगा होगा… मैने कुछ बड़े अखबारों से बात की और पूछा “क्या इस विषय पर खबर चलेगी? तो उन्होंने कहा- नहीं लेंगे.

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मेरे ज़हन मेँ यह बात आयी की इतने आला दर्जे के पत्रकार होने का लेवल जिन पर चस्पा हो उन्होंने ऐसा कृत्य कैसे अंजाम दिया… यदि कोई भूल हुयी थी तो उसे छाती चौड़ी कर के स्वीकारना था… लेकिन यहाँ आकर आदमी की असलियत से पर्दा उठ जाता है क्योकि इंसान उपदेश कुछ देता है, करता कुछ है… जैसे आशाराम बापू… वे ऑरेटर अच्छे थे पर केरेक्टर सही नहीं था… उनकी करनी और कथनी में ज़मीन आसमान का फर्क था… इससे साफ़ है कि कल्पेश जी ने एक अखबार समूह में ऊंचाइयों को तो छुआ लेकिन कारपोरेट जगत के तौर तरीकों को अपनाकर… न कि बेहतरीन पत्रकारिता के कारण…

अपने एक लेख मेँ मेरे अज़ीज़ और ख्यातनाम पत्रकार आदरणीय यशवंत दादा (सम्पादक : भड़ास मीडिया) ने लिखा “एक ही खूंटे यानि भास्कर में लंबे समय से बंधे-टिके होने के कारण वह भास्कर के बाहर की दुनिया को नहीं देख पा रहे थे. उन्हें समय के साथ इधर उधर छलांग लगाना चाहिए था, शिफ्ट करना चाहिए था. पर गुलाम बनकर एक जगह बंधे होने से उन्होंने भास्कर को ही अपना अंतिम ठिकाना मान लिया था, सो सारे दावपेंच, उछलकूद भास्कर के इर्द गिर्द ही रही.कल्पेश कारपोरेट मीडिया हाउसों के प्रतिनिधि संपादक थे, जो पत्रकारिता मालिकों की नीतियों के हिसाब से करता था. ऐसे कारपोरेट संपादक अक्सर आम मीडियाकर्मियों का खून पीता है, और, मालिकों का चहेता बना रहता है.”

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यशवंत दादा ने आगे लिखा- “कल्पेश जी का लिखा मैंने बहुत कम पढ़ा है क्योंकि वह बहुत ज्यादा ज्ञान पेलते थे. ‘असंभव के खिलाफ’ लिखना आसान है, जीना मुश्किल. वे अगर ‘असंभव के खिलाफ’ जीना सीख जाते तो इस तरह अपनी बच्चियों और पत्नी को अकेले छोड़कर न चले जाते. वे ‘एक खूंटे से बंधे जीने के खिलाफ’ सोचने की कोशिश संभव कर पाते तो नया कुछ रच पाते, कुछ दिन और जी पाते.”

कुल मिलाकर कल्पेश जी के चले जाने के बाद जो कहानियां सामने आ रही हैं, वो चौंकाने वाली हैं. ये कहानिया बताती हैं कि जिन मुद्दों पर मीडिया खेलता है, वो मुद्दे कितने बड़े पैमाने पर आज मीडिया के कारपोरेट घरानों में उपजे हैं. हम समाज में फैली बुराइयों को दूर करने वाले झंडाबरदार हैं. हमे अपने अंदर भी झाँक लेना चाहिए कि साफ़ सफाई की पहली ज़रूरत कहां है.

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लेखक मुस्तफा हुसैन नीमच के वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

https://www.youtube.com/watch?v=BnYX-BA4c4E

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1 Comment

1 Comment

  1. CC

    July 21, 2018 at 3:45 am

    It is strange, that neither we find any sympathy for the departed soul, nor any voices to bring the full truth to the fore.

    This doesn’t happen after most such cases.

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