
महक सिंह तरार-
पहले समझे व्यापारी-नेता एक दूसरे बिन अधूरें क्यूँ ? राजनीतिक फंडिंग का स्टार्ट::
इंदिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी के ढायी दर्जन ज़मीनी नेताओ से सत्ता की आंतरिक लड़ायी लड़ी थी। ये लीडर्स स्वतंत्रता संग्राम से आये ज़मीनी जनता से जुड़े लोग थे जिन्हें जनता सीधे धन देती थी। ये अधिकतर अपनी राजनीति के लिये इंदिरा पर निर्भर भी नहीं थे। इंदिरा समझ चुकी थी की बिना पैसे की सप्लायी काटे इन क्षत्रपों को कंट्रोल नहीं किया जा सकता। तब इंदिरा ने भारतीय राजनीति में केंद्रीय स्तर पर फण्ड कलेक्शन स्टार्ट किया था। जो नाराज़ नेता थे वे छोड़ गये या बाहर फेंके गये। बीच में ये भी बताता चलूँ की इमरजेंसी के बाद हार का निरीक्षण करते हुए धवन ने साफ़ साफ़ कहा था की इमरजेंसी से नाराज़ इन्ही स्ट्रॉंग रीजनल लीडर्स ने जनता को अपनी मर्ज़ी से वोट डालने को कहा था जिसने कांग्रेस मटियामेट कर दिया था ख़ैर, उन्हें भी बाद में इंदिरा ने ठिकाने लगाया।
इन क्षत्रपों को मॉडरेट दक्षिण पंथी (स्वतंत्रपार्टी) पार्टी में जगह मिल रही थी जिसे अधिकतर सवर्ण व्यापारी (वर्तमान बीजेपी का कोर का भी कोर वर्ग) फंडिंग करते थे। हालाँकि, एक वक़्त (between 1962-1968) राजागोपालाचारी के मार्फ़त टाटा व बिरला कांग्रेस के सबसे बड़े (34%) फाइनेन्सर थे। मगर स्वतंत्र पार्टी भी अपनी राजनैतिक गतिविधियों के लिये पैसा जुटा रही थी। स्वतंत्र पार्टी के फंड्स ड्राई करने के लिये इंदिरा ने 1969 में कम्पनीज़ एक्ट से सेक्शन 293A पूरी तरह उड़ाकर बिज़नेस हाउस से फण्ड लेने का क़ानून ही रद्द कर दिया। जिससे कुछ समय तक इंदिरा जी को विपक्षियों से राहत हुई।
मगर पिछले चार सौ सालों से व्यापार धरती पर कदाचित सबसे मज़बूत चीज़ है। व्यापारियों ने विपक्षी पार्टी को धन देने के बजाये उनके विज्ञापन करने स्टार्ट कर दिये। क़ानूनी बदलाव के दबाव में टैक्स चोरी, कालाबाज़ारी बढ़ी। इंदिरा ने छाँट छाँट कर छापे मारे, राष्ट्रीयकरण का रास्ता अपनाया जाने लगा। लाइसेंस-परमिट का राज था तो सारा देश काला धन पैदा करने लगा। “ब्रीफकेस पॉलिटिक्स” चरम पर पहुँची।
“ब्रीफकेस पॉलिटिक्स” पर अंकुश लगाने के लिये राजीव गांधी ने बोल्ड स्टेप लेकर 1985 में वो बैन हटाया था।
मगर तब तक भारतीय जनता पूरी तरह से सभी नेताओं को ब्रीफकेस लेने वाले नेता मानने लगी थी। जिस सोच का नुक़सान राजीव ने 2 साल बाद बोफ़ोर्स के आरोप लगने पर उठाया व फाइनली उनकी गद्दी गई जिसे वापस पाने के प्रयास में उनकी जान भी गई।
पहले समझे व्यापारी-नेता एक दूसरे बिन अधूरें क्यूँ ? राजनीतिक फंडिंग का वर्तमान :
राजीव के बैन हटाने के बाद राजनीतिक चंदे में काले धन का प्रवाह कम तो हुवा मगर भारत में इलेक्शंस शायद दुनिया में सबसे महंगे इलेक्शंस हो चुके थे। चुनाव आयोग में शेषन जैसा कोई आया नहीं था इसलिये धनपशु खुल कर पैसे के दम पर डेमोक्रेसी ख़रीद लेते थे। राजीव की मौत के बाद केंद्रीय फण्ड कलेक्शन की रीत टूटी। व्यापारी वर्ग वापस दक्षिणपंथी ग्रुप के पीछे इकट्ठा हुआ व अटल की छवि के सहारे वे साझे की सरकार बनाने में सफल रहे। मगर इसके अपने चैलेंज थे।
मुलायम, अकाली, रामविलास जैसे दर्जनों मंत्री सरकार के लिये राजनीतिक चंदा जुटाने के बजाये अपनी अपनी पार्टियों के लिये पैसा इकट्ठा करने लगे। हरेक लाइसेंस-प्रोजेक्ट अप्रूवल-ठेके के लिये कई कई मेज़ पर घुमना पड़ने लगा। मल्टीपल मेज़ गरम करने से कॉर्पोरेट हमेशा बचता है। उसे चाहिये कोई एक बंदा सारे काम फटाफट करके दे पैसा भले कितना भी लग जाये। अटल सरकार जहां भानुमति का पिटारा था वहीं सोनिया-अहमद पटेल के हाथ सत्ता केंद्रित होने पर ऐसी व्यवस्था कांग्रेस में बेहतर थी। शाइनिंग इंडिया के नारे के साथ जब अटल जनता के पास गये तो उनके दो दर्जन दलो वाले भानुमति के पिटारे को बाहर का रास्ता दिखाया गया, मगर कांग्रेस को भी क्लियर मैंडेट नहीं मिला।
मनमोहन को प्रधानमंत्री की गद्दी मिली, पर सरकार यहाँ भी मिलाजुली थी। जो समस्या अटल को आयी वही मनमोहन को भी आयी मगर मनमोहन अकेले ऐसे व्यक्ति थे जो इस पैसे पर आधारित नीति निर्धारक व नीतियों से व्यक्तिगत फ़ायदा उठाने वाले उद्योगपतियों के रिस्क समझते थे। उन्होंने बाद में मंत्रियों के बिज़नेस करने पर अघोषित रोक लगा दी।
ग्रामीण हरियाणे की एक कहावत है “भिखारी व व्यापारी का कोई देश नहीं होता”। इसका सबूत किसी को चाहिये हो तो पिछले पाँच साल में देश की नागरिकता छोड़ने वाले लोगो के प्रोफाइल चेक कर लो, 90% अरबपति है। या पिछले तीन साल में देश के कॉर्पोरेट की घरेलू-अंतरराष्ट्रीय इन्वेस्टमेंट देख लो। पूरी सरकार व्यापारी वर्ग की होने के बावजूद बड़े से बड़े इंडियन ग्रुप की भारत से बाहर इन्वेस्टमेंट बढ़ी है घरेलू इन्वेस्टमेंट घटी है। ये दोनों अपने व्यापारिक हित में सबसे पहले ज़मीन छोड़ते है। मनमोहन देश का फ़िक्र कर रहे थे मगर मंत्रिमंडल में खलबली मच गई। राडिया टेप केस में कांग्रेस को “घर की दुकान” बताने वाले अम्बानी जैसे उद्योगपति भाजपा से जुड़ने की गुहार लगाते पकड़े गये।
मनमोहन काल में व्यापारी वर्ग वापस भाजपा के पीछे खड़ा हो गया। इसका सबूत आप 2004-2014 के कांग्रेस काल में विपक्षी भाजपा को सरकारी दल कांग्रेस से ज़्यादा मिली फंडिंग से समझ सकते हो। फंडिंग डेटेल्स को विस्तार में देख कर समझ सकते हो की इसका केंद्र तत्कालीन गुजरात था।

अपने खून में व्यापार बताने वाला एक मुख्यमंत्री इंदिरा गांधी वाला फ़ंडा समझ चुका था की सत्ता चाहिये तो फण्ड पर क़ब्ज़ा ज़रूरी है। 2014 आम चुनाव से पहले जब आडवाणी ने मोदी की चुनौती से निबटना चाहा तो जेटली-मोदी की फण्ड पर पकड़ ने ही भाजपा के आंतरिक लोगो की बोलती बंद करके मोदी को सलाम करने को बाध्य किया।
पहले समझे व्यापारी-नेता एक दूसरे बिन अधूरें क्यूँ ? राजनीतिक फंडिंग लास्ट कब्जा :
2014 आम चुनाव से पहले फण्ड जुटाने के दबाव में मनमोहन ने कॉर्पोरेट फंडिंग की लिमिट 5% से बढ़ाकर 7.5% की मगर ये “Too late, too little” साबित हुई। ट्रेन तब तक 2014 के लिये स्टेशन छोड़ चुकी थी। गुजराती ट्रेन इंजन के पीछे भारत का कॉर्पोरेट पैसा खड़ा था। एक ज़बरदस्त महंगा कॉर्पोरेट स्टाइल इलेक्शन लड़ा गया, प्रशांत किशोर टाइप कॉर्पोरेट चुनावी मैनेजर पैदा किये गये, फेसबुक की बिज़नेस एनालिटिका से भारतीय जनता के पसंद नापसंद के अनुसार कांसटीचूऐन्सी अनुसार भाषण में एजेंडा परोसा गया। IT team अलग अलग सीट पर पहले से बताती की ग़ाज़ियाबाद में गाय काटने की बात पर वोटर भड़केगें, तो बिजनौर में गन्ने की पेमेंट समस्या है वहाँ गन्ना कोष की घोषणा करनी है, दक्षिण हरियाणा में फ़ौजियों की सघन संख्या है तो वहाँ वन रैंक वन पेंशन की बात करनी है। मतलब पैसे के दम पर एक well oiled मशीनरी चुनाव जीती।
अब कॉर्पोरेट के लिये ये स्थिति सबसे अच्छी थी। इंदिरा के बाद क्षेत्रीय दलो से पीछा छूटा, एक नेता एक पार्टी सीधा पेमेंट सीधा काम की आसानी बनी। वे अपना कॉर्पोरेट टैक्स दो दो बार घटवाने में कामयाब रहे। 2017 आते आते उन्होंने पैसे देने के तरीक़े आसान करने का प्रस्ताव तत्कालीन अरबपति वित्त मंत्री जेटली से किया। जेटली जानते थे की राज्यसभा में बहुमत ना होने के कारण वे ऐसा कोई बिल पास नहीं करा सकेंगे जिससे उनके दल/सरकार को फंडिंग का मामला आसान होता हो।
उन्होंने अपने क़ानूनवेत्ता होने का फ़ायदा उठाते हुए राज्यसभा के अधिकार क्षेत्र से बाहर वाले “मनी बिल” के रास्ते कॉर्पोरेट फंडिंग की साढ़े सात प्रतिशत वाली लिमिट (कंपनी एक्ट सेक्शन 182 में बदलाव करके) ख़त्म कर दी। साथ में FCRA Act में भी बदलाव करके पार्टी को विदेशियों से डायरेक्ट दान लेने की व्यवस्था कर दी। आइसिंग ऑन दा केक ये की उस दान को गुप्त रखने की व्यवस्था भी कर दी। राजनीतिक पार्टी को क़ानून से बहुत ऊपर ले जाकर उन्होंने ऐसे बदलाव किए की किसी राजनीतिक पार्टी को विदेशियों से मिले पिछले चंदे की जाँच ही ना की जा सके।




जेटली ने उसी बिल में दो काम और किए इलेक्टोरल ट्रस्ट व इलेक्टोरल बॉण्ड स्टार्ट करना। जेटली जी ने राजनीतिक पार्टी को क़ानूनी ज़िम्मेदारी से किस हद तक आज़ादी दी ये इससे अंदाज़ लगाइये की आज इलेक्टोरल ट्रस्ट बनाने वाली प्रमोटर कंपनी का नाम बताना कानूनन ज़रूरी नही है। और इन इलेक्टोरल ट्रस्ट की 92% फंडिंग अकेले BJP को हुई है।
अगर आपको याद हो तो नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ मिलकर बिहार में चुनाव लड़ा था। विचित्र बात ये की राजस्थान मे जड़ों वाले इलेक्टोरल ट्रस्ट ने बीजेपी के बाद सबसे बड़ी फंडिंग नीतीश की पार्टी को की। इसके अलावा मात्र 2 करोड़ कांग्रेस को मिले। कुछ ट्रस्ट ने अपनी 100% फंडिंग सिर्फ़ BJP को की है। जेटली यहीं नहीं रुके। उन्होंने इलेक्टोरल बाँड्स के रास्ते ना सिर्फ़ कंपनियों को अनलिमिटेड पैसा ट्रांसफ़र करने का रास्ता खोला साथ में कंपनी का नाम ना बताने की सुविधा भी दी। मतलब अब किसी धन्ना सेठ को बोर्ड रेजोल्यूशन पास करके बिना टैक्स अथॉरिटी को बताये कंपनी का कितना भी धन( (इसे इनडायरेक्टली पूरी कंपनी समझ सकते है) अपने पसंद के नेता की पार्टी को देना सम्भव बनाया।
और सुनो! जाते जाते एक बात बताता चलूँ जेटली साहब ने पैसे देने वाले को टैक्स डिडक्शन व लेने वाली पार्टी को टैक्स एक्सेम्पशन भी दी थी…
अब उपरोक्त बातों के आलोक में आगे की बात ध्यान से पढ़िए….
ये सब स्वतंत्र Facts है, ना की कोई cohesive commentary, ना ही मायने निकालने के लिये की गई पोस्ट, इनका किसी से संबंध महज़ इत्तिफ़ाक़ है…

-यहाँ कोई भी कॉर्पोरेट अपनी कंपनी की कितनी भी कमायी किसी पार्टी को डोनेट कर सकता है (मतलब इनडायरेक्टली कम्पनी जैसे पार्टी की हो जाये। कारण- अरुण जेटली)
-यहाँ ढाई हज़ार से ज़्यादा पार्टियाँ है जिनमें सिर्फ़ 10-12% चुनाव लड़ती है। कोई ऐरा ग़ैरा नत्थू खैरा (या ख़ासम ख़ास भी) पार्टी व व्यापार दोनों रख सकता है और अनलिमिटेड पैसों का घालमेल क़ानून के दायरे में हर तरह की जाँच से बाहर रहते हुए कर सकता है।
-एक ख़ास पार्टी जितनी राजनीतिक पार्टी है उससे कहीं बहुत ज़्यादा आर्थिक पार्टी है (नोटबंदी किसी की कैश चेस्ट ख़त्म करने का ठीक वैसा कदम था जो इंदिरा ने 1969 में विपक्षियों की फंडिंग काटने के लिये की थी।)।
-पुण्य प्रसून वाजपेयी का कहना है कि एक पार्टी के सारे दफ़्तर केंद्रीयकृत “कैश सत्ता” के अधीन है जिसमें स्थानीय नेताओ के हाथ में कोई सत्ता नहीं। हरेक चुनाव में पैसे का लेनदेन देखना हो तो चुनाव के समय वडोदरा के अधिकतर होटेल्स में लगी पैसे गिनने की मशीन देखना।
-असल “कैश सत्ता” का उठान बीस साल पहले गुजरात में 1600 करोड़ के मधेपुरा बैंक घोटाले से स्टार्ट हुआ था — खोजे, सब मिलेगा।
-एक देश में सरकारी कम्पनीज़ को प्राइवेट व्यापारियों के हाथ में बेचा गया था, ख़रीदने वाले”Oligarchs व्यापारी” वहाँ के एक जासूस को 24 साल से सत्ता पर काबिज रखे हुए है। वो जासूस पाकिस्तान टाइप पड़ोसी से युद्ध के बहाने सत्ता पर एकतरफ़ा शिकंजा कस रहा है।
-दुनिया के कई देशों में राजनीतिक दलों की आर्मी तक प्राइवेट है। राजनीतिक दल सत्ता हथियाने के लिये तमाम हथकंडे अपनाते आये है। (पड़ोसी चीन की आर्मी भी राजनीतिक पार्टी की है ना कि उस देश की)
-शेयर बाज़ार से किसी को आउट करने के लिये नेगेटिव चैन रिएक्शन चाहिये होती है। जैसे हर्षद को धूल चटाने के लिये मिस्टर वाइट के नाम से मशहूर, भारत के टॉप दस अमीरों में शामिल एक गुजराती ट्रेडर ने लगातार शेयर शोर्ट किए थे। उसी के शब्दों में “अगर हर्षद अपनी पोजीशन 7 दिन होल्ड कर लेता तो आज मैं मुंबई में फुटपाथ पर चने बेचता”।
-हाइडनबर्ग रिसर्च एक शेयर शोर्ट करने वाला शेयर व्यापारी है जो कोई दुनिया बचाने वाला फ़रिश्ता नहीं बल्कि मोटे पैसे छाँपने वाला भी है।
-अगर ख़ास कम्पनीज़ का मालिक पैसे का इंतज़ाम कर ले तो शेयर शोर्ट करने वाले को लेने के देने पड़ जाते है। हाँ अगर शोर्ट करने वाला कम्पनी मालिक को ऊँचे दाम पर पैसा लगाकर उसकी पूँजी ब्लॉक करवा दे तो कम पूँजी के चलते शेयर गिरना रोकना असंभव होता जाता है व कंपनी मालिक ख़ुद अपने जाल में फँस जाता है।
-अमीर व्यापारी मलेशियाई रास्ते से शैल कंपनियों के रास्ते यहाँ का पैसा घुमा कर यहाँ लाता है ये बात सुब्रमण्यम स्वामी व सुचेता दलाल कई बार कह चुके व इस तथ्य के साथ भारतीय बाज़ार कम्फर्टेबल है।
-बहुत से बड़े ब्यूरोक्रेट व नेताओ के परिवार के सदस्य विदेशी नागरिक है व सरकार ने ख़ुद “अनाम विदेशियों” को भारतीय बाज़ार में पैसा इन्वेस्ट करने का चोर दरवाज़ा P नोट्स के ज़रिये खोला हुआ है, जिसमें पैसा लगाने वाले विदेशियों का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता है। यहाँ तक की सरकार ने पी नोट्स वालों को सरकारी मार्केट रेगुलेटर SEBI के अधिकार क्षेत्र से भी बाहर रखा है।
जिसने “सत्ता से पैसा व पैसे से सत्ता” का खेल खेल कर दुनिया के अमीरों में नाम कमाया है, उसके पीछे सत्ता है या “वो सिर्फ़ मोहरा है तथा, धंधा ही सत्ता का है”…….मुझे नहीं लगता कि उसके पीछे सत्ता है बल्कि …!
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