रीतेश मिश्रा-

शहरों के पास ऐसे कुछ प्रतीक चिन्ह होते हैं जो अपने साथ कई पीढ़ियों के किस्से, कहानियां, दृश्य लिए रहते हैं। इन चिन्हों, जगहों, प्रतीकों के साथ सबकी अपनी कुछ निजी स्मृतियां भी जुड़ी होती हैं। अपने शहर से दूर रह रहे लोगों की यादें इन्हीं के सहारे जीवित रहती हैं। ये जगहें जब निजामों द्वारा ढहाई जाती हैं तो दुःख होता है।
अभी पता चला कि इलाहाबाद का लल्ला चुंगी ढहा दिया गया। चौराहे का सौंदर्यीकरण करने के लिए वो इमारत ढहा दी गई जहां विश्वविद्यालय की दशकों की पीढ़ियों ने अपनी प्रेमिकाओं के नाम ख़त लिखे थे। जहां खड़े होकर जोड़े मिला करते थे। प्रदेश और देश में आज अपने परिवारों के साथ रह रहे वो जोड़े जिनका प्रेम लल्ला चुंगी के आसपास पनपा रहा होगा। वो ये खबर सुनकर दुःखी तो होंगे ही।
मेरी लिए लल्ला चुंगी वहां की चाय, समोसा, लौंगलता और इमरती के लिए तो जरूरी था ही साथ ही साथ शाम में मित्रों के जुटान के लिए भी लल्ला चुंगी सबसे उपयुक्त जगहं थी। जहां से लड़के फोन घुमाया करते, कहां हो बे? हम लल्ला पे हैं, आओ, लल्ला पे मिलो सब।
हासिल फिल्म में तिग्मांशु सर् ने डायलॉग लिखा, रणविजय कट्टा चलाने के बाद अपने लड़कों से कहता है चलो चलो संगीत टॉकीज, 9 से 12, चलो चलो।
संगीत टॉकीज अब बंद हो चुकी है पर उसकी इमारत अभी जीवित है। दुनियां भर में ऐसी इमारतों को सैकड़ों साल जीवंत रखा जाता है जिनके इर्द गिर्द संस्कृतियां बनती हैं। जिनके साथ कुछ यादें जुड़ी होती हैं। शहर अपनी इन इमारतों के बिना खंडहर मालूम पड़ते हैं।
लल्ला चुंगी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से जुड़े हर इलाहाबादी के जीवन का अटूट हिस्सा था जिसे आज ढहा दिया गया। शहरों का सौंदर्यीकरण करने के चक्कर में शहरों को ऐसे ही खंडहर बनाया जाता होगा।