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साहित्य

मंगलेश डबराल बोलते वक़्त हकलाते पर जब गाते तो पूरे सुर में होते!

चंद्र भूषण-

कितनी दूर जाएगी अटकती सी यह मद्धिम आवाज

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मंगलेश डबराल बोलने में हकलाते थे लेकिन गाते वक्त उनके सुर और शब्द, दोनों पक्के निकलते थे। इस द्वैत को समझना कठिन काम है। बांग्ला कवि नवारुण भट्टाचार्य की कविता ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ छात्र आंदोलन की पत्रिका ‘समकालीन अभिव्यक्ति’ में पढ़ते हुए मेरा संपर्क पहली बार मंगलेश डबराल की भाषा से हुआ। अनुवाद किया जाता है पाठक को लेखक से जोड़ने के लिए, अनुवादक से नहीं। फिर भी क्रम यही था और इसका साल था 1984। बाद में मंगलेश जी की अपनी कविताएं पढ़ते हुए भी मन ‘मृत्यु उपत्यका’ में ही अटका रहता था। कुछ उसी तरह के अलौकिक अनुभव, संवेदना के वैसे ही अलग धरातल की मांग, जो जाहिर तौर पर एक ज्यादती ही कही जाएगी। लेकिन कार्यकर्ताओं का पढ़ना-लिखना अक्सर ऐसा ही होता है। अपेक्षावादी।

बहरहाल, मंगलेश डबराल के अनुवाद में नवारुण को पढ़ते हुए वह ‘आउट ऑफ वर्ल्ड’ अनुभव क्या था, बताना लाजमी है। मुलाहिजा फरमाएं- ‘… यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश/ यह जल्लादों का उल्लास मंच नहीं है मेरा देश/ यह विस्तीर्ण श्मशान नहीं है मेरा देश/ यह रक्तरंजित कसाईघर नहीं है मेरा देश/ मैं छीन लाऊंगा अपने देश को/ सीने मे‍ं छिपा लूंगा कुहासे से भीगी कांस-संध्या और विसर्जन/ शरीर के चारों ओर जुगनुओं की कतार…’। संयोगवश, उन्हीं दिनों मुझे मंगलेश जी से मिलने का मौका मिला। इलाहाबाद में 1985 में जन संस्कृति मंच का राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ। उसमें दिल्ली से आए दो कवियों मंगलेश डबराल और कुबेर दत्त को सोहबतिया बाग पहुंचाने और फिर विजयनगरम हॉल तक लाने का जिम्मा मेरा था।

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इस हड़बड़ में आप किसी से कविता के बारे में क्या बात करेंगे, लेकिन दो घंटे में यह इत्मीनान हो गया कि ये दोनों अपने घर-परिवार जैसे ही हैं। ये आपसे कुछ भी कह सकते हैं, आप इनसे कुछ भी पूछ सकते हैं। तब से अपनी मित्र मंडली में जब भी दिल्ली जाने की बात चलती, मैं यह डींग हांकने से नहीं चूकता कि दो बंदे वहां अपने भी हैं, कोई दिक्कत की बात नहीं। मंगलेश जी की कविताओं में मुझे पता नहीं क्यों ‘सपना’ ही सबसे ज्यादा रुची, हालांकि यह न तो उनकी प्रतिनिधि कविता है, न ही अपनी मनपसंद कविताओं में वे इसकी गिनती करते थे। ‘घर का रास्ता’ (1986) में मौजूद यह कविता आज भी मुझे ‘हांट’ करती है। भीतरी और बाहरी मुश्किलों के आपस में जुड़ी होने का यकीन दिलाती है और उनकी तह तक जाने वाली नजर पा लेने की आस बंधाती है।

‘मैं गिरा यकायक जैसे सपने से/ जैसे चलते-चलते कोई गिरता है सड़क पर अधबीच/ यह मेरी त्वचा के गिरने का सपना था/ अपनी आत्मा सहित/ मुंह और रोंओं के गिरने का सपना/ मेरी गृहस्थी गिरी मेरे साथ/ जेब में रखी हुई चीजें/ जिन्हें मैं बार-बार निकाल कर रखता था फिर जेब में/ गिरते गए अब तक कमाए तमाम मेरे अनुभव/ रोने-धोने की आवाजें गिरीं साथ-साथ/ किसी ने गिरा दिए मेरे कपड़े भी बारिश और हवा से दूर/ गिरता रहा मैं धरती और रसातल से दूर/ गिरते हुए उसकी एक झलक देखी मैंने/ जो हंसते हुए मुझे गिरा रहा था/ लगातार।’

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कविताओं को लेकर मेरी भावभूमि बांग्ला के नवारुण भट्टाचार्य, पंजाबी के अवतार सिंह ‘पाश’ और हिंदी के आलोक धन्वा से ज्यादा जुड़ती थी, लेकिन 1990 का दशक आते ही दुनिया इतनी तेज बदली कि जिस आग में ये कविताएं ढलती थीं, वही अनजानी सी लगने लगी। पाश ने यह बदलाव देखने से पहले ही खालिस्तानियों के हाथों शहादत धारण की, नवारुण गद्य की ओर निकल गए जबकि धन्वा ने नई जमीन पकड़ ली। माहौल में आए तीखे दक्षिणपंथी मोड़ को लेकर वैसी कोई असाध्य उलझन मंगलेश डबराल की कविताओं में नहीं दिखती तो शायद इसलिए क्योंकि अलगाव और विस्थापन शुरू से उनकी बुनावट का हिस्सा रहा है।

पाश, नवारुण और आलोक धन्वा की तरह खुद को क्रांतिकारी धारा का अंग मानते हुए उसकी पराजय की हतक मंगलेश जी के हिस्से कम आई, लेकिन शक्ल बदलते अत्याचार के रग-रेशे पकड़ लेना अपने सहकर्मियों की तुलना में उनके लिए अधिक सहज साबित हुआ। ‘गुजरात के मृतक का बयान’ उनकी ऐसी ही दस्तावेजी कविता है, जो 1990 के बाद के ‘हिंदू भारत’ में ‘रिसीविंग एंड’ पर मौजूद इंसान का खाका हमेशा दुनिया के सामने पेश करती रहेगी। मुझे यह सोचकर अच्छा लगता है कि दो अखबारों में करीब पांच साल मैंने मंगलेश डबराल के साथ काम किया। उन्हें सत्ता से भिड़ते और जब-तब उसके सामने पस्त पड़ते भी देखा। जान पाया कि एक आम आदमी अपनी खाल से निकलकर बड़े काम कैसे करता है।

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मंगलेश के प्रतिकार में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं रही

व्योमेश शुक्ल-

इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल है कि आज की हिंदी कविता के केंद्रीय महत्त्व के वास्तुकार कवि-गद्य-लेखक मंगलेश डबराल अब हमारे बीच नहीं हैं।…..

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एक बड़े अर्थ में मंगलेश डबराल हिंदी में 1990 के बाद सामने आई युवा लेखकों की उस पीढ़ी के ‘रघुवीर सहाय’ ही थे, जिसने रघुवीर सहाय को नहीं देखा है। कविता, आलोचना, रिपोर्ताज़, यात्रा-संस्मरण, डायरी और संपादकीय जैसे लेखन के अनेक मोर्चों पर एक साथ सक्रिय रहने के अलावा उन्होंने विज़नरी और मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता की उस कड़ी को बाज़ारवाद, उन्मादी राजनीति और नैतिक अधःपतन की तेज़ झोंक में टूटने से बचाए रखा, जिसका एक सिरा रघुवीर सहाय के पास था। इस सिलसिले में उन्होंने युवा कवियों और पत्रकारों के एक बड़े समूह का निर्माण किया।

शोक और सूनेपन की इस घड़ी में मुख़्तलिफ़ सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर उमड़ी श्रद्धांजलियों से यह बात भी साफ़ है कि आनेवाले समय में भी हिंदी के बहुत-से लेखक-पाठक मंगलेश डबराल के बग़ैर दृश्य की कल्पना नहीं कर पाएँगे। ग़ौरतलब है कि यह सिर्फ़ साहित्यिक मुद्दा नहीं है, बल्कि जीवन, संघर्ष और सुंदरता का एक वृहत्तर दृश्य है, जिसमें उनके व्यक्तित्व को रोज़ याद करते रहने की ज़रूरत बनी रहेगी।

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बेशक, उनकी कविता भी रोज़ याद करने की चीज़ है। भारत की साधारणता की ख़ूबसूरती और कोमलता और उसके रास्ते में आनेवाले अवरोध जितनी प्रामाणिकता और भरोसे के साथ उनकी कविता में गुँथे हुए हैं, उसकी मिसाल ढूँढ़ना मुश्किल है। आज की तारीख़ में अगर धर्मनिरपेक्षता समकालीन कविता के सबसे बड़े मुद्दों में-से एक है, तो इतने सीधे और तल्ख़ बिंदु तक ले आने में उनकी मशहूर कविता ‘गुजरात के मृतक का बयान’ की केंद्रीय भूमिका है। 1992 और 2002 की घटनाओं से गुज़र चुके भारत में यह कविता कविकर्म का घोषणापत्र है।

यह धर्मनिरपेक्षता उन्हें हिंदी की पूर्ववर्ती कविता से विरासत या उपहार में नहीं मिली, बल्कि अपने साथी कवियों के साथ मिलकर उन्होंने इसे निर्मित किया था। यह प्रोएक्टिव, ग़ैरतात्कालिक, ग़ैरसमझौतापरस्त धर्मनिरपेक्षता अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी दुर्घटना या तबाही का इंतज़ार नहीं करती और स्थापित कलात्मक मूल्यों से अपने लिए किसी रियायत या छूट की माँग भी नहीं करती। इस बात के लिए आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास हमेशा उनका शुक्रगुज़ार रहेगा।

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इसी तरह पूरे संकोच के साथ वह हिंदी कविता को बदलते और बढ़ाते रहे। उनके प्रतिकार में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं रही, बल्कि एक नैतिक ज़िद से हमारा सामना होता था, जो अपनी मौलिकता और सादगी से हमें अभिभूत भी कर लेती थी।

मंगलेश डबराल हिंदी साहित्य के ईको सिस्टम से बहुत गहरे जुड़े हुए थे और उसमें किसी चोर दरवाज़े से घुसती चली आ रही कारोबारी मानसिकता और पाखण्ड के प्रदर्शन से बहुत चिंतित रहते थे। दरअसल, वह कभी भी कविता या साहित्य को विज्ञापन या प्रचार की वस्तु मानने के लिए तैयार नहीं हो पाए।

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एक जगह वह लिखते हैं : ‘एक बुलेटिन में आठ या नौ लोकार्पणों की तस्वीरें छपी हैं। एक जैसी मुद्रा में, हाथों में किताबें थामे, उन्हें सीने से सटाये हुए विचार-मुद्रा में खड़े प्रतिष्ठित लोग। फ़िलहाल इसे हिंदी का पेज थ्री भी कहा जा सकता है। अभी वह रंगीन नहीं हुआ है। ऐसे समारोहों में पुस्तकों के रचनाकार प्रायः कुछ नहीं कहते, कुर्सी पर प्रतिमा की तरह बैठे रहते हैं और इस तरह कर्मकांड संपन्न हो जाता है। हिंदी साहित्य में यह कौन-सा युग है ? लोकार्पण युग ?’

सत्तर के दशक की शुरुआत में उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल ज़िले के काफ़लपानी गाँव से चलकर इलाहाबाद, लखनऊ और भोपाल होते हुए मंगलेश जी दिल्ली पहुँचे ; बचपन, पहाड़ों, नदियों और अतीत के तमाम अनुभवों को अपने सीने में रखकर आजीविका और जज़्बे की ख़ातिर पत्रकारिता में आए और आख़िरी साँस तक एक कवि के साथ-साथ पत्रकार भी बने रहे।

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उनकी ज़िन्दगी से यह बात भी सीखी जा सकती है कि लेखक होने के लिए और कुछ नहीं, सिर्फ़ संवेदना और सचाई की ज़रूरत है। वे लोग जो लेखक बनने के सपने में छलाँग लगाना चाहते हैं, उन्हें मंगलेश डबराल की ज़िन्दगी – उनकी मूल्यनिष्ठा, जिज्ञासा, आत्मसजगता, कोमल और अथक हठ और जज़्बे से बहुत-कुछ सीखने और अपनाने को मिल सकता है।

मंगलेश डबराल मोहभंग और परिवर्तन की बेचैनी जैसी ज़िंदा और हिम्मती चीज़ों से बनकर आए थे। लेकिन यह उनके व्यक्तित्व का एकमात्र पहलू नहीं है। एक नागरिक लेखक के तौर पर मिलने वाली पराजयों से उनकी आत्मवत्ता लगातार टकराती रही। इस संघर्ष के बरअक्स उन्होंने अपने गद्य लेखन से पॉप्युलर कल्चर की आलोचना और संगीत, यात्रा, भूमंडल, शहरों, आंदोलनों और कविता की समझदारी को मज़बूत और ईमानदार बनाने का काम किया।

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उनकी रेंज और जिज्ञासाओं का कोई अंत नहीं था और वह लगातार सीखने की प्रक्रिया में रहते थे। आम तौर पर उनके पाये के लेखक अपनी मान्यताओं और आदर्शों में स्थिर हो जाते हैं, लेकिन उनका मन एक बच्चे की तरह तरल और कोमल था और किसी भी नए ख़याल और प्रयोग के लिए उसमें जगह बाक़ी रहती थी।

मंगलेश डबराल ने अकेलेपन की बजाय सामूहिकता को चुना था। इसलिए उनके मित्रों-परिचितों, पाठकों और प्रशंसकों का संसार बहुत बड़ा है। उसकी थाह लगाना लगभग असंभव है, लेकिन यही बात उन मूल्यों के बारे में नहीं कही जा सकती, जिनके लिए हमने उन्हें जीते-मरते देखा है।

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उनके जैसे विचारक–कवि की मृत्यु के बाद जो अप्रत्याशित ख़ालीपन हिंदी कविता की मुख्यधारा में आनेवाला है ; उसे मूल्यों के समर में उतरे बिना भरा नहीं जा सकता। यों उन्मादी राजनीति, भोगवादी सभ्यता और नैतिक पतन का जैसा रचनात्मक और टिकाऊ क्रिटीक उनकी शख़्सियत की मौजूदगी से ही संभव हुआ था, उसकी भरपाई अभी तो क्या, कुछ समय बीत जाने पर भी होती नहीं दिखती।

हिंदी की दुनिया पर अभी बुराई का क़ब्ज़ा नहीं हुआ है ; लेकिन अब सच-झूठ के घालमेल, प्रदर्शनपरकता और सत्तात्मक पारस्परिकता से पहले से आक्रांत साहित्य के परिसर में अच्छाई और बुराई के बीच तनी हुई शक्ति-संतुलन की वह नाज़ुक डोर टूट भी जा सकती है ; हिंदी के अनोखे कवि-गद्यकार मंगलेश डबराल ने जिसे अपनी कविता और कविता जैसे गद्य से सँभाला था।

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