रोहिन कुमार-
8 या 9 मई को मुझे मणिपुर के कांगपोकपी से एक कॉल आया कि दो कुकी महिलाओं का रेप हुआ है। उनमें से एक गर्भवती है। उसके कपड़े उतारकर उसे गाँव में घुमाया गया है। किसी भी रिपोर्टर की तरह इस बात की पुष्टि करने के लिए कम से कम परिजनों से संपर्क होना ज़रूरी था। कम से कम कोई प्रत्यक्षदर्शी हो जो इसकी पुष्टि कर सकता। कोई शिकायत या कोई एफ़आइआर की कॉपी। मेरे सोर्स ने बहुत मेहनत की ग्राउंड पर। तीन-चार बाद उसने बताया कि कोई भी ऑन रिकॉर्ड बात करने को तैयार नहीं है। कुकी समुदाय के बुजुर्ग ये भी बात कर रहे हैं कि इस मामले को बाहर न जाने दिया जाए। इससे हिंसा और बढ़ेगी। तब तक कोई एफ़आइआर भी दर्ज नहीं हुई थी। दूसरी सबसे बड़ी चिंता लोगों को थी कि दिल्ली के पत्रकार पर भरोसा कैसे करें। अभी तक (8/9 मई तक) हिंसा की कवरेज एक तरफ़ा हुई थी। उसमें कुकी समुदाय को हत्यारा दिखाया जा रहा है। उनके हिसाब से मैतेयी समुदाय ने शुरू की थी हिंसा।
चूँकि मैं ग्राउंड पर था नहीं और बिना ग्राउंड पर हुए समुदाय के साथ रेपो बनाना मुश्किल था। उससे भी ज़्यादा मुश्किल थी कि स्टोरी इस्टैब्लिश करने का कोई तरीक़ा था नहीं तो एडिटर को कंविंस कर पाना भी मुश्किल था। मुश्किल इसीलिए भी था कि प्रगतिशील संस्थान भी भाजपा शासित राज्यों पर खबर करने से बचते हैं। उन्हें लगता है कि सरकार रेड करवा देगी। टैक्स नोटिस आ जाएँगें। अनगिनत उदाहरण है कैसे संस्थानों को तंग किया है इस सरकार ने। ख़ैर। इतनी कैलकुलेशन में आइडिया ड्रॉप कर दिया मैंने। रोज़ी रोटी के साथ फ्रीलांस की औक़ात में इतना ही संभव था मेरे लिए।
जून के आख़िरी और जुलाई की शुरुआत में मणिपुर जब पहुँचा तो वहाँ हालात दयनीय थे। दयनीय इन लिट्रल सेंस। गाँव के बारह से चौदह साल के लड़कों को एके47 और स्नाइपर लेकर मोर्चे पर जाते देख रहा था। गाँव की महिलाएँ उनके ललाट चूमकर उन्हें विदा कर रही थी। तालियों से उनका मनोबल बढ़ाया जा रहा था। साथी कैमरामैन अनूप ने इन विज़ुअल्स को कैप्चर करने की बहुत कोशिश की। उनके कैमरा को हाथ मारकर तोड़ने की कोशिश हुई। गाँव वाले भड़क गए। हमारे फ़िक्सर ने सुझाव दिया कि कैमरा बंद कर लिया जाए वर्ना गाँव से निकलना मुश्किल हो जाएगा। हमने उनकी बात मानी। कश्मीर पर काम करते हुए मुझे बंदूकों की थोड़ी बहुत समझ हो गई है। मणिपुर के लड़कों के पास सारे आधुनिक हथियार थे। कुछ थानों से लूटे हुए। कुछ बॉर्डर पार से स्मगलिंग करके। मैंने गाँव वालों से लाइट बातचीत करते हुए पूछा कि ये सब ख़रीदने के लिए ख़ज़ाना कहाँ से आ रहा है? एक रिटायर्ड सीआरपीएफ अफ़सर ने बताया कि उसने साठ हज़ार में छह ‘समान’ मँगवा है। मैंने कहाँ — बड़ा सस्ता चल रहा है मार्केट इधर! वो हंसने लगा।
बहुत सारी ऐसी कहानियाँ थी जो सुनकर यक़ीन नहीं होता था। गप लगती थी। बातों से तथ्य और नैरेटिव अलग करना बहुत मुश्किल था। मैतेयी और कुकी दोनों क्षेत्रों में घूमकर दो बहुत स्पष्ट समझ बनी। एक कि इंडियन आर्मी वहाँ पर पीस रही है। एक कंपनी कमांडर से बताया कि उन्हें कोई ऑडर नहीं है। और अगर ऑडर मिल गया तो चीजें और बिगड़ जाएंगी। राजनीतिक समाधान ही हो सकता है अब। भारतीय सेना के जवान दो गाँवों के फ़ायरिंग में ख़ुद को डिफ़ेंड करने को विवश हैं। इसका ख़ामियाज़ा है कि मैतेयियों को लगता है असम रायफ़ल्स उनके ख़िलाफ़ है। कुकी को लगता है मणिपुर पुलिस उनके ख़िलाफ़ है।
दो कि दोनों समुदाय सिर्फ़ इस बात पर एक थे कि प्रधानमंत्री को शांति की अपील करनी चाहिए। मणिपुरी टोपी लगाकर ड्रम बजाने से उनका कोई लाभ नहीं है। उनके अपने मारे जा रहे हैं। गाँव के गाँव जला दिए गए हैं। लेकिन भारत के प्रधानमंत्री हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। मुख्यमंत्री बीरेन सिंह का इस्तीफ़ा तक नहीं ले सके। मुख्यमंत्री की वजह से शांति कमेटियाँ काम नहीं कर पा रही हैं।
अगर अपने देश के एक राज्य में लगी आग पर प्रधानमंत्री जी दो महीने से ज़्यादा वक्त से कुछ न करना एफॉर्ड कर सके हैं तो इसका मतलब है कि उनकी राजनीति ने नागरिकों को जॉम्बी बनने की तरफ़ ढकेल दिया है।