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सियासत

मजदूर दिवस पर मोदी का तोहफ़ा!

यशवंत सिंह-

मज़दूर दिवस यानि मई महीने के पहले दिन महंगाई का ज़ोरदार अटैक, कमर्शियल गैस सिलेंडर 2355 रुपये का हुआ, 102.50 की बढ़ोतरी हुई…

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बिजली संकट, बेरोज़गारी, महंगाई, पेट्रोल डीज़ल के आसमानी मूल्य, रसोई गैस के लगातार बढ़ते दाम, ज़रूरी वस्तुओं पर gst की डबल वसूली, जगह जगह टोल नाकों पर गाड़ी वालों से ज़ोरदार वसूली…

राष्ट्रहित में मर्द को दर्द नहीं होता! भामाकीजै!! 🙂

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शीतल पी सिंह-

LPG गैस सिलेंडर (19 किलो) कमर्शियल, अब 102.50 रुपए और मंहगा हुआ। अब यह 2355.50 रुपए का मिलेगा।

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कमर्शियल ग्रेड का पांच किलो का छोटा सिलेंडर भी अब इस वृद्धि के बाद 655 रुपए तक जा पहुंचा है।

बीते एक अप्रैल को इसी 19 किलो के सिलेंडर के दाम 250 रुपए बढ़ाए गए थे। और एक मार्च को 105 रुपए बढ़ाए गए थे।

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कुल मिलाकर मार्च से अब तक 19 किलो के कमर्शियल सिलेंडर के दाम 457.50 रुपए बढ़ाए जा चुके हैं।

इन्हीं तीन महीनों में CNG के दामों में करीब 28 रुपए की वृद्धि हुई है।

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पुष्प रंजन-

इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन के लोदी रोड स्थित दफ्तर चले जाएं, वहां आपको पूरी दुनिया की ख़बर मिलेगी, भारत में मज़दूर कितने रह गये, जुलाई 2017 के बाद का कोई डाटा अपडेट नहीं मिलेगा। आप किसी लेबर चौक, रैन बसेरों और झुग्गियों में जाएं, वास्तविक कहानी सुनकर हिल जाएंगे। जिन्हें सत्ता समर्थक और सत्ता विरोघी मीडिया हम-आप मानते हैं, चिराग़ तले अंघेरा वहां भी मिलेगा। वहां ‘राम और रावण‘ एक ही मंच पर बीड़ी पीते हुए ‘मज़दूर दिवस ज़िन्दाबाद‘ करते मिलेंगे !

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एलीनॉय यूनिवर्सिटी के मीडिया विभाग से असाइनमेंट मिला कि आप शिकागो जाएं, और ‘हे-मार्केट स्क्वायर‘ पर एक रिपोर्ट तैयार करें। ईमानदारी से कहूं, तो मेरे दिमाग़ में नहीं था कि छात्र जीवन में हर पहली मई को जिस जुलूस में हम हिस्सा लिया करते थे, यह जगह वही है। शिकागो का ऐतिहासिक डेसप्लेंस स्ट्रीट, यहीं पर है ‘हे-मार्केट स्कावयर‘। 4 मई 1886 को हे-मार्केट चौराहे पर मैकोर्मिक हार्वेस्टिंग मशीन कंपनी के मज़दूर इकट्ठे हुए थे, उससे एक दिन पहले हड़ताल के दौरान लाठीचार्ज और फायरिंग में एक मज़दूर की मौत हुई थी, और दर्जनों घायल हुए थे। मज़दूर इसकी न्यायिक जांच की मांग के वास्ते रैली, व धरने पर थे। 1500 मज़दूरों की उस रैली को शिकागो के मेयर कार्टो हैरीसन ने संबोधित किया, और स्वीकार किया था कि रैली शांतिपूर्ण है। मेयर के जाने के थोड़ी देर बाद साढ़े सात बजे घुंधलके में घमाका हुआ, फिर क्रास फायरिंग। गोली पुलिस चला रही थी, और मज़दूर वाली साइड से किसने फायरिंग की, घुएँ और भगदड़ में स्पष्ट नहीं हो पाया। इस कांड में सात पुलिसवालों की मौत हो गई, 60 से अधिक घायल थे।

हे-मार्केट स्क्वायर पर जो चार से आठ नागरिक मारे गये थे, वह शासन के लिए मानीख़ेज़ नहीं था। मुख्य मुद्दा पुलिस वालों की मौत का था, और वही एफआईआर में दर्ज़ हुआ। इस कांड के हवाले से पूरे देश में अप्रवासी मज़दूरों के खि़लाफ़ हिस्टिरिया जैसा माहौल पैदा कर दिया गया। सात लोग मौक़े पर पकड़े गये थे। आठवें हत्याभियुक्त का कोई अता-पता नहीं था, मगर इनका नाम रख दिया गया, ‘शिकागो एट‘। सातों ‘अराजक तत्वों‘ का सरगना अगस्त विसेंट थियोडोर स्पाई को ‘रैडिकल लेबर एक्टीविस्ट‘ घोषित किया गया। विसेंट थियोडोर स्पाई और उसके तीन साथियों एडोल्फ फीशर, जार्ज एंगेल, अलबर्ट पार्सन को 11 नवंबर 1887 को फांसी पर लटका दिया गया। फांसी की सज़ा से ठीक एक दिन पहले लुईस लिंग ने जेल में ही आत्महत्या कर ली थी। बचे तीन मुजरिमों को एलीनॉय के गवर्नर ने 1893 में क्षमादान दे दिया था। इसमें वो आठवां ‘अज्ञात अभियुक्त‘ भी था। गवर्नर जॉन पीटर अल्टगेल्ड को दी गई याचिका में यह कहा गया कि फांसी की सज़ा सुनाने वाले जज पक्षपात कर रहे थे।

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उस कालखंड में पूरी दुनिया का घ्यान ‘हे-मार्केट अफेयर्स‘ पर केंद्रीत था। वर्कर्स यूनियन के नेता किसी भी क़ीमत पर मज़दूरों की क़ुर्बानी को ज़ाया नहीं होने देना चाहते थे। मिल मालिकों को विवश होकर साप्ताहिक छुट्टी व काम के आठ घंटे तय करने पड़े। उससे पहले काम के घंटे निर्धारित नहीं थे। मिल मालिक पगार मनमाना देते थे, कोई मानवाधिकार नहीं था, जिसका डंका आज अमेरिका पीटता है। 1889 में इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ सोशलिस्ट ग्रुप्स ने हेमार्केट हिंसा के हवाले से एक मई को ‘इंटरनेशनल वर्कर्स डे‘ मनाये जाने का फै़सला लिया।

दरअसल, लेबर डे मनाने का आइडिया एक अमेरिकी ट्रेड यूनियन लीडर पीटर जे. मैकग्वेर का था, जिसने 1881 में ‘यूनाइटेड ब्रदरहुड ऑफ कारपेंटर‘ नामक संगठन की स्थापना की थी। उसने 5 सितंबर 1882 को न्यूयार्क सिटी में ‘नाइट्स ऑफ लेबर‘ के बैनर तले 10 हज़ार कामगारों की परेड कराई। वहीं हर साल 4 जुलाई को थैंक्स गिविंग डे मनाने की पेशकश की गई। इसके प्रकारांतर, 1884 में ‘नाइट्स ऑफ लेबर‘ ने एक प्रस्ताव पास कराया, और तय किया कि हर वर्ष सितंबर की पहली सोमवार को हम लेबर डे मनाएंगे। ओरेगॉन पहला स्टेट बना, जिसने 1887 में लेबर डे को वैधता प्रदान की, मगर उस साल जून के पहले शनिवार को मज़दूर दिवस ओरेगॉन शासन ने मना लिया था। 1887 सितंबर के पहले सोमवार को ही कोलोराडो, न्यूयार्क, न्यूजर्सी, मैसाच्यूएट्स ने मज़दूर दिवस मनाया। 1887 से 1894 के बीच अमेरिका के 23 राज्य लेबर डे को वैधता प्रदान कर चुके थे।

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उन दिनों मज़दूर दिवस अमेरिका भर में मनाये जाने की मांग बदस्तूर जारी थी। इस बीच मज़दूरी बढ़ाने को लेकर एलीनॉय में 11 मई 1894 से लेकर 20 जुलाई 1894 तक हड़ताल हुई, जिसका असर रेल सेवाओं पर पड़ा। इसे ‘पुलमैन स्ट्राइक‘ भी कहते हैं। उस हड़ताल को रेलरोड कार निर्माण करने वाली, ‘पुलमैन पैलेस कार कंपनी‘ के मज़दूरों ने आहूत की थी। अमेरिकी राष्ट्रपति ग्रोवर क्लीवलैंड एक तीर से दो शिकार चाहते थे, मज़दूर हड़ताल तोड़ें और लेबर डे मनाने को संवैधानिक जामा पहनाने का इतिहास वो ख़ुद रचें। जून 1894 के आखि़र में अमेरिकी संसद में मज़दूर दिवस मनाये जाने के वास्ते एक बिल पेश किया गया, जिसपर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद क़ानून बन गया। लेकिन तय यही हुआ कि मज़दूर दिवस पहली मई को नहीं मनाएंगे। कारण, 4 मई 1886 को हेमार्केट स्क्वायर विस्फोट था, जिसके ज़ख्म को अमेरिका भूल नहीं पाया था। दूसरी वजह, सोवियत ब्लॉक व यूरोप की सक्रियता थी। अमेरिकी राष्ट्रपति ग्रोवर क्लीवलैंड वर्कर्स डे का श्रेय सोशलिस्टों को दिये जाने को लेकर असहज से थे।

अमेरिकी घटनाक्रम से अलग, 14 जुलाई 1889 को यूरोपियन सोशलिस्ट पार्टी का पहला इंटरनेशनल कांग्रेस पैरिस में आहूत हुआ, जिसमें यह अहद किया गया कि पहली मई 1890 से हम वर्कर्स डे मनाएंगे। आमतौर पर ग्रामीण यूरोप पहली मई को ‘ पेगॉन डे ‘ मनाता था। ‘पेगॉन डे‘ यूरोप में प्रजनन की देवी ‘माईया‘ को पूजने के वास्ते मनाते थे। ‘माईया‘ प्राचीन यूनान की देवी मानी जाती थी। यूरोप की देखा-देखी सोवियत संघ और कनाडा ने अमेरिकी पूंजीवादी व्यवस्था को घेरने के वास्ते मई दिवस मनाने का फैसला लिया। ब्रिटेन-आयरलैंड ने पहली मई को बाकायदा बैंक होलिडे घोषित कर दिया।

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जर्मनी में हिटलर के अभ्युदय और नाज़ियों के सत्ता में आने के बाद 1933 में पहली मई को वर्कर्स डे मनाने की घोषणा हुई। नाज़ियों की इस पार्टी का नाम था, नेशनाल सोजि़यालिश्टे डॉयच आरबाईटर पार्तेई (एनएसडीएपी)। अंग्रेज़ी में इसे ‘ नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी ‘ बोल सकते हैं। दुर्भाग्य देखिये, जो पार्टी कामगारों के नाम पर खड़ी हुई, उसके नेता हिटलर ने 1 मई को वर्कर्स डे मनाने के ठीक दूसरे दिन, 2 मई 1933 को सभी मज़दूर संघों पर प्रतिबंध लगा दिया था।

इस समय दुनिया के कुछेक देशों को छोड़कर लगभग सारे देश मजदूर दिवस किसी न किसी रूप में मनाते आ रहे हैं। ब्रिटेन और आयरलैंड ने मई के पहले सोमवार को मज़दूर दिवस मनाना तय किया है। कनाडा 5 सितंबर को, ऑस्ट्रेलिया 2 मई को, न्यूज़ीलैंड ने 24 अक्टूबर सोमवार को लेबर डे मनाना तय कर रखा है। 1 मई को फिलस्तीन लेबर डे मना रहा है, मगर इज़राइल वाले मज़दूर दिवस नहीं मनाते। सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात सरकार ने 30 अप्रैल से लेकर 6 मई तक पूरे सात दिन ईद की छुट्टियों की घोषणा कर रखी है, लेकिन, मजदूर दिवस उसकी डिक्शनरी में नहीं है। ईरान की 27 सरकारी छुट्टियों में एक भी दिन मज़दूरों के वास्ते नहीं है। 2022 में अफ़ग़ानिस्तान का तालिबान शासन 1 मई को लेबर डे मना रहा है, यह दिलचस्प सूचना है। चीन पहली मई से 4 मई तक, चार दिन ‘इंटरनेशनल वर्कर्स डे‘ मनाएगा। रूस 2022 में एक और दो मई को दो दिवसीय ‘स्प्रिंग एंड लेबर डे‘ मनाएगा। मगर, क्यूबा केवल पहली मई को लेबर डे मना रहा है।

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भारत में पहली बार 1 मई 1923 को मद्रास में लेबर-किसान पार्टी ऑफ हिन्दुस्तान ने अपनी स्थापना वाले दिन मज़दूर दिवस मनाया था। लेबर-किसान पार्टी ऑफ हिन्दुस्तान के नेता मलयपुरम सिंगारावेलु चेट्टियार ने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से मांग की थी कि इसे ‘कामगार दिवस‘, ‘कामगार दिन‘ या ‘अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस‘ के रूप में मनाया जाए। सोचिए कि आज से 99 साल पहले नामकरण को लेकर तमिल-हिंदी का कोई भेद नहीं था। बाक़ी शोबों की तरह, इस देश का मज़दूर आंदोलन भी तंगदिली से गुज़रा है।

यों कहने को 1890 में एनएम लोखंडे के नेतृत्व में पहला कामगार संगठन बांबे मिल-हैंड्स एसोसिएशन बना था। उसके कई दशकों बाद बीपी वाडिया ने 1918 में मद्रास लेबर यूनियन की स्थापना की, और 1920 में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस को अस्तित्व में आते सबने देखा। मगर, तब भी मज़दूर दिवस मनाने का ख़्याल किसी के दिमाग़ में नहीं आया। केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने 2012 में जो डाटा जारी किया, उसके अनुसार 16 हज़ार 154 ट्रेड यूनियन इस देश में हैं, जिसके कुल मिलाकर 91 लाख 80 हज़ार सदस्य हैं। अमेरिका में केवल दो श्रम संगठनों अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर (एएफएल) और कांग्रेस ऑफ इंडस्ट्रियल आर्गेनाइजेशन (सीआईओ) के बैनर तले देशभर के मज़दूर संगठन हैं।

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आज की तारीख़ में सबसे बड़ा संकट ट्रेड यूनियन नेतृत्व को लेकर है। राजनीति शास्त्र के किसी विद्यार्थी, राजनीतिक दलों के प्रवक्ता, या टीवी चैनलों की रिसर्च टीम वालों से पूछ लीजिए कि कितने मजदूर नेताओं से वो वाबस्ता हैं, बगलें झांकने की स्थिति देखने को मिल सकती है। हमें अर्द्वेन्दु भूषण बर्द्धन, बीपी वाडिया, बिंदेश्वरी दुबे, चतुरानन मिश्र, दत्ता सामंत, दत्तोपंत ठेंगड़ी, दीवान चमनलाल, जार्ज फर्नांडिज, गुरूदास दासगुप्ता, इंद्रजीत गुप्ता, नारायण मल्हार जोशी, नारायण मेधजी लोखंडे, श्रीपाद अमृत डांगे, शांताराम शवलराम मिरजकर, सचिदानंद विष्णु घटे, बीटी रणदिवे जैसे क़द के मज़दूर नेता क्यों नहीं मिलते?

आप श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय की वेबसाइट पर जाइये, सिर्फ़ यह ढूंढ लीजिए कि 2014 से पहले भारत में कितने श्रमिकों को रोज़गार मिला हुआ था, और अद्यतन स्थिति क्या है? नहीं मिलेगी कोई जानकारी। सारे रूल रेगुलेशंस मिलेंगे। मोदी जी की तस्वीर, वायदे और नारे मिलेंगे, मगर मज़दूर कितने इस देश में हैं, कितने हैं जिनकी रोजी छिन गई? उनका कोई ब्योरा नहीं मिलेगा। भारत सरकार को छोड़ें, इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन (आईएलओ) के लोदी रोड स्थित दफ्तर चले जाएं, इसी सवाल को लेकर। वहां आपको पूरी दुनिया की ख़बर मिलेगी, भारत में मज़दूर कितने रह गये, जुलाई 2017 के बाद का कोई डाटा अपडेट नहीं मिलेगा। तो आप किसके लिए, और क्यों मना रहे हैं मज़दूर दिवस? मज़दूर शोषण की वास्तविक कहानी सुननी है, आप किसी लेबर चौक, फुटपाथों, रैन बसेरों और झुग्गियों में जाएं, सुनकर हिल जाएंगे। जिन्हें सत्ता समर्थक और सत्ता विरोघी मीडिया हम-आप मानते हैं, चिराग़ तले अंघेरा आपको वहां भी मिलेगा। वहां ‘राम और रावण‘ एक ही मंच पर बीड़ी पीते हुए ‘ मज़दूर दिवस ज़िन्दाबाद ‘ करते मिलेंगे!

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