Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

ऑक्सिजन के हाहाकार के बीच ‘मीडिया’ का सत्ता के संग ‘सहवास’!

-श्रवण गर्ग

हमारी ही जमात के एक सीनियर और किसी जमाने में साथ भी काम कर चुके पत्रकार ने हाल में एक विवादास्पद माँग सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म ‘ट्वीटर’ के ज़रिए हवा में उछाली है और उस पर बहस भी चल पड़ी है।एक ऐसे कठिन समय में जब महामारी से त्रस्त लोगों को अस्पतालों में ऑक्सिजन के ज़रिए कृत्रिम साँसें भी उपलब्ध कराने में नाकारा साबित हुई सरकार चारों ओर से आरोपों में घिरी हुई है ,मीडिया की बची-ख़ुची साँसों पर भी ताले जड़ देने की माँग दुस्साहस का काम ही माना जाना चाहिए। दुस्साहस भी इस प्रकार का कि मीडिया के अंधेरे कमरे में जो थोड़े-बहुत दीये टिमटिमा रहे हैं उनके मुँह भी बंद कर दिए जाएँ।

Advertisement. Scroll to continue reading.

पत्रकार का नाम जान-बूझकर नहीं लिख रहा हूँ।उसके पीछे कारण हैं।पहला तो यही कि जो माँग की गई है वह केवल एक ही व्यक्ति का निजी विचार नहीं हो सकता।उसके पीछे किसी बड़े समूह, ‘थिंक टैंक’ का सोच भी शामिल हो सकता है। एक ऐसा समूह जिसके लिए इस समय दांव पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से भी कोई और बड़ी चीज़ लगी हुई है।जिसके तार उन अति-महत्वपूर्ण लोगों के सोच के साथ जुड़े हुए हैं जो खुले आम मुनादी करते घूम रहे हैं कि इस समय देश में ज़रूरत से ज़्यादा लोकतंत्र है और उसे इसलिए कम किए जाने की ज़रूरत है कि हमें ज़बरदस्त तरीक़े से आर्थिक प्रगति करते हुए ऐसे मुल्कों से मुक़ाबला करना है, जहां किसी तरह की कोई आज़ादी ही नहीं है।

कुख्यात आपातकाल के दौरान अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए इंदिरा गांधी की तानाशाह हुकूमत से लड़ाई लड़ने वाले यशस्वी सम्पादक राजेंद्र माथुर का अपने आपको सहयोगी बताने वाले तथा प्रेस की आज़ादी को क़ायम रखने के लिए स्थापित की गई प्रतिष्ठित संस्था ‘एडिटर्स गिल्ड’ में प्रमुख पद पर रहे इस भाषाई-पत्रकार ने अंग्रेज़ी में जो माँग की है उसका हिंदी सार यह हो सकता है : ‘एक ऐसे समय जब कि देश गम्भीर संकट में है अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकारों को कुछ महीनों के लिए निलम्बित कर ग़ैर-ज़िम्मेदार नेताओं ,दलों और मीडिया के लोगों के बयानों पर रोक क्यों नहीं लगाई जा सकती’ ? माँग में यह सवाल भी उठाया गया है कि ‘क्या अदालतों और सरकार के पास इस सम्बंध में संवैधानिक शक्तियाँ नहीं हैं ?’

Advertisement. Scroll to continue reading.

जो माँग की गई है वह कई मायनों में ख़तरनाक है।पहली तो यह कि इस समय मुख्य धारा का अधिकांश मीडिया ,जिसमें कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों शामिल हैं, बिना किसी घोषित-अघोषित सरकारी अथवा अदालती हुक्म के ही अपनी पूरी क्षमता के साथ सत्ता के चरणों में चरणों की तरह बिछा पड़ा है। अतः इस जग-ज़ाहिर सच्चाई के बावजूद मीडिया पर रोक की माँग का सम्बंध उन छोटे-छोटे दीयों को भी कुचल दिए जाने से हो सकता है जो अपने रिसते हुए ज़ख्मों के साथ भी सूचना संसार में व्याप्त अंधकार में रोशनी करने के काम में जुटे हैं।जब हरेक तरह की रोशनी ही व्यवस्था की आँखों को चुभने लगे तो मान लिया जाना चाहिए कि मीडिया की ही कुछ ताक़तें देश को ‘प्रजातंत्र के प्रकाश से तानाशाही के अंधकार की ओर’ ले जाने के लिए मचल रही हैं।

आपातकाल के दौरान मीडिया की भूमिका को लेकर लालकृष्ण आडवाणी ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी।उन्होंने कहा था कि तब मीडिया से सिर्फ़ झुकने के लिए कहा गया था पर वह घुटनों के बल रेंगने लगा।आडवाणी जी निश्चित ही वर्तमान समय की राजनीतिक और मीडियाई दोनों ही तरह की हक़ीक़तों को लेकर कोई टिप्पणी करने से परहेज़ करना चाहेंगे।वे खूब जानते हैं कि केवल मुख्यधारा का मीडिया ही नहीं बल्कि राजनीतिक नेतृत्व भी बिना कोई झुकने की माँग के भी रेंग रहा है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

पत्रकार की माँग इस मायने में ज़्यादा ध्यान देने योग्य है कि उसमें आने वाले दिनों के ख़तरे तलाशे जा सकते हैं और अपने आपको (अगर चाहें तो ) उनका सामना करने अथवा अपने को समर्पित करने के लिए तैयार किया जा सकता है।माँग ऐसे समय बेनक़ाब हुई है जब ऑक्सिजन की कमी के कारण जिन लोगों का दम घुट रहा है और जानें जा रही हैं उनमें मीडियाकर्मी भी शामिल हैं।माँग यह की जा रही है कि सरकारी अक्षमताओं को उजागर नहीं होने देने के लिए अस्पतालों के बाहर बची हुई अभिव्यक्ति की आज़ादी का भी दम घोंट दिया जाना चाहिए।क्या आश्चर्यजनक नहीं लगता कि किसी भी बड़े राजनीतिक दल या राजनेता ने पत्रकार की माँग का संज्ञान लेकर कोई भी टिप्पणी करना उचित नहीं समझा ! कांग्रेस के ‘’आपातकालीन’ अपराध-बोध को तो आसानी से समझा जा सकता है।

कोरोना संकट से निपटने के सिलसिले में एक बड़ी चिंता दुनियाभर के प्रजातांत्रिक हलकों में यह व्यक्त की जा रही है कि महामारी की आड़ में तानाशाही मनोवृत्ति की हुकूमतें नागरिक अधिकारों को लगातार सीमित और प्रतिबंधित कर रहीं हैं।अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संरक्षण प्रदान करने वाली संवैधानिक व्यवस्थाओं को निलम्बित किया जा रहा है।जिन देशों में प्रजातंत्र पहले से ही नहीं है वहाँ तो स्थिति और भी चिंताजनक है।कम्बोडिया जैसे देश को लेकर ख़बर है कि वहाँ लॉक डाउन /कर्फ़्यू का उल्लंघन करने पर ही बीस साल के कारावास का प्रावधान लागू कर दिया गया है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

अभिव्यक्ति की आज़ादी पर नियंत्रण करने की माँग इसलिए उठाई जा रही है कि ऑक्सिजन की तरह ही उसकी उपलब्धता भी सीमित मात्रा में है जबकि ज़रूरत भी इसी समय सबसे ज़्यादा है।दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि प्रत्येक तत्कालीन सत्ता के साथ ‘लिव-इन रिलेशनशिप ‘ में रहने वाले मीडिया संस्थानों और मीडियाकर्मियों की संख्या में न सिर्फ़ लगातार वृद्धि हो रही है ,नागरिक-हितों पर चलने वाली बहसें भी निर्लज्जता के साथ या तो मौन हो गईं हैं या फिर मौन कर दी गईं हैं।

अब जैसे किसी साधु ,पादरी, मौलवी ,ब्रह्मचारी अथवा राजनेता को किसी महिला या पुरुष के साथ नाजायज़ मुद्रा में बंद कमरे में पकड़ लिए जाने पर ज़्यादा आश्चर्य व्यक्त नहीं किया जाता या नैतिकता को लेकर कोई हाहाकार नहीं मचता वैसे ही मीडिया और सत्ता प्रतिष्ठानों के बीच चलने वाले ‘सहवास’ को भी नाजायज़ सम्बंधों की पत्रकारिता के कलंक से मुक्त मान लिया गया है।ऐसी परिस्थितियों में मीडिया के बचे-ख़ुचे टिमटिमाते हुए हुए दीयों को अपनी लड़ाई न सिर्फ़ सत्ता की राजनीति से बल्कि उन ज़हरीली हवाओं से भी लड़ना पड़ेगी जो उन्हें बुझाने के लिए ख़रीद ली गईं हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement