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मिशन मजनू : फ़िल्म बनाने से पहले ठीक तरह से होमवर्क नहीं किया गया

राजीव शर्मा-

भारतीय सेना और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित कोई फ़िल्म हो तो मैं उसे देखना पसंद करता हूँ। कल सिद्धार्थ मल्होत्रा अभिनीत ‘मिशन मजनू’ देखी। जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूँ, भारत-पाक दोनों में ऐसी फ़िल्में बनती हैं, चलती हैं। इनका एक बड़ा दर्शक वर्ग है।

अगर मुझे ‘मिशन मजनू’ की समीक्षा करने के लिए कहा जाए तो मैं कहूँगा कि सभी कलाकारों ने बहुत मेहनत की है, लेकिन फ़िल्म बनाने से पहले ठीक तरह से होमवर्क नहीं किया गया। सिद्धार्थ बात-बात पर ‘भाईजान, भाईजान’ बोलते नज़र आते हैं। पाकिस्तान में ऐसे कोई नहीं बोलता। ‘अल्लाह हाफ़िज़’ कहने का चलन भी बाद में शुरू हुआ था।

दोनों देशों की आम बोलचाल में बहुत समानताएँ हैं, लेकिन अंतर भी बहुत हैं। कलाकारों के संवादों से यह पता ही नहीं चलता कि वे पाकिस्तान में हैं। ऐसा लगता है कि दिल्ली में ही कहीं बैठे हैं।

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जनरल ज़िया-उल हक़ ने ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को उस तरह गिरफ्तार नहीं किया था, जैसे फ़िल्म में दिखाया गया है।

एक दृश्य तो बड़ा हास्यास्पद है, जिसमें दीवार पर ”Keep your shoes here” लिखा नज़र आता है। पाकिस्तानी ‘माहौल’ बनाने के लिए इसका उर्दू अनुवाद लिखने की कोशिश की जाती है, जिसके लिए शायद गूगल की मदद ली होगी, लेकिन यहाँ उसने गड़बड़ कर दी। गूगल ने सही अनुवाद करने के बजाय ‘कीप यॉर शूज़ हिअर’ ही लिख दिया!

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फ़िल्म देखने से लगता है कि इसका अभिनय पक्ष तो मज़बूत है, लेकिन भाषा पक्ष कमज़ोर रह गया। अगर फ़िल्म बनाने से पहले इसके संवाद मुझे दिखा देते तो मैं ठीक कर देता। ज़िया-उल हक़ का किरदार बहुत अच्छा निभाया है।

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