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सियासत

महामानव के राज में ही संभव है कि लोग मरते रहें और सिस्टम के लोग चूतड़ दाब कर बैठे रहें!

समरेंद्र सिंह-

कुछ दिन पहले खबर आयी कि नीदरलैंड से ऑक्सीजन कंसंट्रेटर मुंबई 24 घंटे में पहुंच गए। लेकिन मुंबई से इंदौर पहुंचने में उन्हें तीन दिन लगे और ड्यूटी के साथ रिश्वत भी देनी पड़ी। हमारे हुजूर ने पिछले छह साल में 18-18 घंटे की मेहनत के बाद जो Single Window Clearance और Minimum Government – Maximum Governance वाला सिस्टम बनाया है – उसका हाल यही है। हुजूर ने मूल-चूल परिवर्तन कर दिया है। इतना परिवर्तन करना किसी साधारण मनुष्य के बस की बात नहीं है। ऐसा किसी महामानव के राज में ही संभव है कि लोग मरते रहें और सिस्टम के लोग चूतड़ दाब कर बैठे रहें। जिसे चूतड़ दाबने पर एतराज है वो उसकी जगह पर “पालथी मार कर बैठे रहें” पढ़ें।

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अब न्यायिक सिस्टम को देखिए। एक जगह का हाई कोर्ट कहता है कि चुनाव करवाइए। दूसरी जगह का हाई कोर्ट कहता है कि क्यों नहीं चुनाव आयोग पर हत्या का मुकदमा चलाया जाए। है न कमाल की बात!

अमेरिका में कुछ साल पहले शोध हुआ था। उसमें हजार से अधिक मामलों में अदालती आदेश को आधार बनाया गया था। मकसद ये पता लगाना था कि नस्ल, भाषा और लिंग जैसे मसले किस हद तक आदेश को प्रभावित करते हैं। उसमें पता चला कि बहुत से फैसलों को जजों के हाजमे ने प्रभावित किया था। मसलन जजों का पेट भरा हुआ हो तो पैरोल मिलने की संभावना अधिक थी। अगर जजों का पेट खाली हो या फिर खराब हो तो पैरोल मिलने की उम्मीद कम हो जाती थी।

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इसका एक निष्कर्ष ये निकाला जा सकता है कि न्यायिक व्यवस्था का आधार कानून और न्याय के सिद्धांतों के साथ जज साहब का पेट भी है। जिस प्रदेश की सरकार वहां के हाई कोर्ट के जजों को संतुष्ट रखती है उसे उम्मीद के मुताबिक आदेश मिलने की संभावना अधिक होती है। और जहां की सरकार उन्हें खुश नहीं रखती है वहां उसे डंडा मिलने की गुंजाइश ज्यादा है। इसलिए राज्य सरकारों को जजों के लिए खास बंदोबस्त करने चाहिए। उनके हाजमे के साथ उनके शौक और सुविधाओं का खास ख्याल रखना चाहिए। इससे सिस्टम ठीक रहेगा। और जो भी सिस्टम पर सवाल उठाएंगे, उन्हें जेल में ठेल कर दुरुस्त कर दिया जाएगा। ये साले चें-चें बहुत करते हैं कि सिस्टम फेल हो गया… सिस्टम निकम्मा है… सिस्टम कातिल है… सिस्टम की इतनी बेइज्जती! वो भी जज साहब के रहते हुए!

ऐसे सवाल सिर्फ और सिर्फ इसलिए हैं कि पेट खाली रहने पर जजों का “जमीर” जाग जाता है। जजों का गुस्सा भी जायज है। हमारे यहां नेता, अफसर और सियासी वकील सारी मलाई खा जाते हैं। तुलनात्मक लिहाज से जजों के हिस्से बहुत थोड़ा आता है। उनके हिस्से भी ज्यादा आना चाहिए। इस तीन पैरों वाले लोकतंत्र में जब एक स्तंभ जजों का है तो उनका एक तिहाई हिस्सा तो बनता है।

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देखा जाए तो जजों से ज्यादा तो अर्णब गोस्वामी और रजत शर्मा जैसे चिरकुट पत्रकार कमा लेते हैं। सैकड़ों करोड़ की संपत्ति अर्जित कर लेते हैं। हमारे जज पीछे रह जाते हैं। ये उनकी काबिलियत का अपमान है! इस लूटतंत्र में उन्हें उनका हिस्सा दिया जाना चाहिए! बराबर बंटवारा होना चाहिए! लूटतंत्र … ओह माफ कीजिएगा … लोकतंत्र जिंदाबाद!


सलीम अख़्तर सिद्दीक़ी-

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पहले भी लिखा था, आज फिर लिख रहा हूं। मोदी सरकार वहीं तक मजबूत है, जहां तक उसे कुछ नहीं करना पड़ता। अध्यादेश लाकर किसी कानून को खत्म कर देना, कोई कानून बना देना। ‘थ्री नॉट थ्री’ के बल पर बिल पास करवा लेने में ही उसकी मजबूती झलकती है। चाहे वो अनुच्छेद 370 खत्म करना हो, नोटबंदी थोपना हो, जीएसटी लागू करना हो या कृषि कानून बनाना हो। हर कठिन परीक्षा में यह सरकार एकदम नाकाम होती है।

नोटबंदी की, वो नाकाम हो गई। जीएसटी से व्यापारियों को मार दिया। अनुच्छेद 370 खत्म करके कश्मीरियों को बंधक बना लिया। कोरोना में तो उसकी नाकामी दुनिया देख रही है। दरअसल, जब 2020 की सर्दियों में कोरोना कम हो गया था तो साहेब ने दुनिया के सामने बखान कर डाला कि हमने कोरोना पर विजय पा ली है। हमने कोरोना खत्म कर दिया है। यहां तक कि उन्हें भी कठघरे में खड़ा कर दिया, जिन्होंने दूसरी लहर की आशंका जाहिर की थी।

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दावोस में दिया गया साहेब का भाषण उनकी नाकामी का ऐसा दस्तावेज है, जिसे दुनिया में याद रखा जाएगा। इन्हें बस चुनाव में दिलचस्पी है। ये आदमी कैसे बंगाल में चुनाव रैलियां करता रहा, यह दुनिया ने देखा और अब दुनियाभर का मीडिया उसका बार-बार जिक्र कर रहा है। लेकिन शर्म नाम की चीज न उनमें पहले थी, न अब है।

कोई दूसरे देश का प्रधानमंत्री होता तो इस्तीफा दे देता। जो लोग आक्सीजन की कमी, अस्पताल न होने की वजह से मारे गए उनसे माफी लेता। मगर इनसे यह भी नहीं हो पाया और न हो पाएगा। विद्रूप यह कि इनके मंत्री अखबारों में लेख लिख कर बता रहे हैं कि मोदी सरकार की कोई गलती नहीं है। फिर किसकी गलती है? जनता की गलती है ना, जो आपको चुना कि अच्छे दिन आएंगे? ऐसे ही होते हैं अच्छे दिन? अरे ये तो वे बदतर दिन हैं, जिन्हें कोई कयामत तक नहीं भुला सकता।

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एक बंगाल जीतने के लिए, कुंभ जारी रखकर हिंदू हितैषी बनने के लिए पूरे देश को आग में झोंक दिया। तुम्हें ईश्वर कभी माफ नहीं करेगा। उनके घरों में झांक कर देखो, जिनके कई-कई सदस्य तुम्हारी बदइंतजामी की भेंट चढ़ गए। बच्चे अनाथ हो गए। जवाब बेटे चले गए। उनका रुदन तुम्हें अगर नहीं रूला पाएगा तो तुम इंसान कहलाने लायक ही नहीं हो।


शीतल पी सिंह-

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उत्तराखंड के हाईकोर्ट ने इस साल के कुंभ के आयोजन को कोरोना महामारी फैलाने के लिये सुपर स्प्रेडर करार दिया है । ग़ौरतलब है कि राज्य सरकार और केंद्र सरकार ने , ख़ासकर प्रधानमंत्री जी ने इस आयोजन को करने के लिये उत्तराखंड में मुख्यमंत्री तक को बदल दिया था ।

देश दुनिया के हर अख़बार में पूरे पृष्ठ के विज्ञापन दिये गये । जिनमें श्रद्धालुओं को निमंत्रित करते मोदीजी और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पूरे आकार में विद्यमान थे !

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यह देश के इतिहास में पहली बार है कि किसी सरकार के किसी काम को कम से कम छह हाईकोर्ट बुनियादी तौर पर ग़लत, नरसंहारक, लापरवाह और अविश्वसनीय ठहरा चुके हों । यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट भी बचाने के लिये तैयार होने की जगह नोटिस भेज रहा हो ! सच है कि मोदी है तो मुमकिन है!


विनोद कापड़ी-

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मानव जाति के इतिहास में शायद ही पहली बार ऐसा हो रहा है कि भारत में रहने वाला तक़रीबन हर व्यक्ति ये सोच रहा है कि वो कभी भी मर सकता है।

तक़रीबन हर कोई अपना एक एक दिन यही सोच कर निकाल रहा है कि चलो एक दिन और निकल गया। इतने दिनों तक मृत्यु, मानव सभ्यता के इतने क़रीब कभी नहीं रही।

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