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सुख-दुख

क्या लालकिला किसी सरकार, उसके मंत्रियों और अफसरों की बपौती है?

Gunjan Sinha : आपके बाप का नही है लालकिला! अब लीजिये साहब! लाल किला – पांच साल के लिए! सिर्फ पच्चीस करोड़ में! बहुत से बिल्डर पांच करोड़ में एक फ्लैट बेचते हैं. सरकार को डालमिया ग्रुप पांच करोड़ सालाना देगा और बदले में उसमे प्रवेश के टिकट, सुविधाओं के शुल्क आदि का धंधा खुद करेगा. उसमे वह अपने विज्ञापन भी लगाएगा. भारत सरकार ने ये समझौता भारत डालमिया ग्रुप से कर भी लिया. इन्तजार कीजिये – जल्द ही राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, सुप्रीम कोर्ट में भी कॉर्पोरेट घराने बेहतर सुविधाएं देंगे.

ये खबर इन्डियन एक्सप्रेस में छपी है. जनसत्ता में तो नहीं दिखी. बड़े भाई से मांग के कपडे पहन लेने में हर्ज नहीं था. छाप लेते. कम से कम हिंदी के पाठकों को खबर तो मिलती. लेकिन ऐसी ख़बरें हिंदी में अब नहीं छपतीं. लालकिला ठेके पर – सुन कर दिमाग खुदबुदा रहा है. ये कौन से डालमिया हैं?

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एक डालमिया वे थे जिनका डालमिया नगर उद्योग १९८४ से खंडहर है और जिसमें सैकड़ों परिवार भूखमरी के शिकार हो गए. एक डालमिया आजादी के बाद पहले बड़े सेठ थे जो बड़े घपले में जेल गए. एक और डालमिया थे जिन्होंने टाइम्स ऑफ़ इंडिया खरीदा, फिर अपने समधी साहू जैन को बेच दिया. फिर दोनों घरानों में लड़ाई चली. एक और डालमिया ने अखबार निकाला लेकिन किसी ने खरीदा. नहीं सो बंद हो गया. खैर ये कोई भी डालमिया हों, कोई नए भी हो सकते हैं. सुना उनका २७ हजार करोड़ का ग्रुप है फिर ये महज पांच करोड़ के धंधे में क्यों उतरे? कुछ तो यहाँ है!

अब कुछ बात आप से. भारतीय इतिहास का सबसे महान प्रतीक है, लालकिला. १८५७ के ग़दर का नेतृत्व बहादुर शाह जफ़र ने इसी लालकिले से किया था. यहीं उनके चारो बेटों के सर काट कर एक थाल में सौगात की तरह सजा कर अंग्रेज कमांडर ने जफ़र को पेश किया था. १८५७ की उसी हारी हुई आजादी की पहली लड़ाई की याद में हर प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस पर इसी लालकिले की प्राचीर से झंडा फहराता है.

लालकिला सिर्फ एक और ऐतिहासिक इमारत नहीं, हमारे देश की हजारों साल पुरानी आन बान का प्रतीक है. क्या पांच साल के लिए बनी किसी भी सरकार को ये हक़ है कि हजारो साल पुरानी हमारी अस्मिता के इस प्रतीक को पांच करोड़ सालाना पर किसी सेठ के हवाले कर दे? क्या लालकिला किसी सरकार, उसके मंत्रियों और अफसरों की बपौती है?

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मगर आप कुछ नहीं बोलेंगे. आप जनता हैं मरी हुई, मुंह में जुबान नहीं. अगर एक अकेली लड़की किसी से बात करती मिल जाये, तो आठ कुत्ते उस पर झपट लड़ेंगे, कोई प्रेम विवाह कर ले तो आप उसे फांसी टांग देंगे, आपके पुरखों की आत्माएं चित्कार करने लगती हैं. लेकिन आपको अपने देश का ये अपमान विचलित नहीं करता, चूँकि आप समझते हैं कि आप हिन्दू या मुसलमान हैं, या दलित या सवर्ण हैं. लेकिन सच ये है कि आप न हिन्दू हैं न मुस्लिम न सवर्ण न दलित – सिर्फ उदर और शिश्न हैं आप, सर से पाँव तक सिर्फ उदर और शिश्न.

Ramsharan Joshi : दिल्ली के लाल किले को पांच वर्ष के लिए एक पूंजीपति घराने को सोंपना वैसा ही है कि जैसे कोई युवक अपने माता-पिता को किसी धन्नासेठ के यहाँ गिरवी रख दे! वास्तव में मोदी -सरकार और संघ परिवार आज़ादी के आन्दोलन में भाग नहीं लेने के ‘पाप बोध ‘ से ग्रस्त है.उसे हर चीज़ से नफरत है जो आज़ादी व शाहदत की प्रतीक है..

इस सरकार को इतनी भी तमीज़ नहीं है कि यह लाल किला सिर्फ मुस्लिम बादशाह की इमारत ही नहीं,आज़ादी के दीवानों की शरण स्थली भी है.१८५७ में १० मई को अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करके भारतीय सैनिक इसी किले में आये थे.इस किले में नेताजी की सेना आज़ाद हिन्द फौज के अधिकारीयों पर यहीं मुकदमा चलाया गया था.

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पंडित नेहरु ने सैनिकों के लिए पैरवी की थी.१५ अगस्त,१९४७ को आज़ाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरु ने यहीं से राष्ट्र को संबोधित किया था. हो ची मिन्ह जैसे अनेक विश्व नेताओं का स्वागत यहीं किया जाता रहा है. क्या मोदी-सरकार इतनी कंगाल -दीवाला हो गयी है कि उसे आज़ादी के पुंज ‘ लाल किला ‘ को लीज पर देना पड़ा.अब ताज़महल की बारी है. क्या यह ध्रुवीकरण के लिए शैतानी तो नहीं है! इससे तो संघ परिवार और मोदी -सरकार की सांस्कृतिक दरिद्रता का ही सुबूत मिलता है.

Shrikant Asthana : लालकिला अब भारत की अस्मिता का प्रतीक नहीं किसी व्यापारी की सम्पत्ति है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाला यह सत्ताधारी दल सत्ता में रहा तो जल्द ही पूरा देश ही अमेरिका या चीन को बेच देगा.. देख लेना! बात पर भरोसा नहीं है तो इंतजार करके देख लो!

Arvind K Singh : लाल किले से हर साल लगभग 5 करोड़ टिकट से आ जाता है। मतलब पांच साल में 25 करोड और डालमिया को भाड़े पर दिया गया है 25करोड में। अपनी ब्रांडिंग और प्रचार करने की पूरी आजादी के साथ।सवाल यह कि लालकिला अपने रख रखाव और सौन्दर्य को बनाये रखने की कमायी स्वयं कर लेता है । तो फिर सरकार इतनी निकम्मी क्यों समझ रही है अपने मुलाजिमों को। फिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग अब इतना निकम्मा कैसे हो सकता है?

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वरिष्ठ पत्रकार गुंजन सिन्हा, रामशरण जोशी, श्रीकांत अस्थाना और अरविंद के सिंह की एफबी वॉल से.

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