Dilip Khan : हार्ड वर्क वाले अर्थशास्त्री मोदी जी जब सत्ता में आए तो इन्होंने आर्थिक सलाह परिषद को ख़त्म कर दिया। जब अर्थव्यवस्था की बैंड बजने लगी तो दो दिन पहले यूटर्न लेते हुए परिषद को फिर से बहाल कर दिया। अर्थशास्त्री नरेन्द्र मोदी ने आंकड़ों को ‘खुशनुमा’ बनाने के लिए GDP गणना के पुराने नियम ही ख़त्म कर दिए। लेकिन गणना के नए नियमों के मुताबिक़ भी GDP दर तीन साल के न्यूनतम पर आ गई है। पुराना नियम लागू करे तो 3% का आंकड़ा रह जाता है।
अनुपम खेर समेत कई सहिष्णु अर्थशास्त्रियों ने जब नोटबंदी का समर्थन किया तो मोदी-जेटली फूलकर कुप्पा हो गए। अब ख़ुद सरकारी एजेंसियां दावा कर रही है कि इससे अर्थव्यवस्था की कमर टूट गई है। अमित शाह भले ही ‘तकनीकी कारण’ का जुमला फेंके, देश का सबसे बड़ा बैंक SBI परेशान है। खुलेआम अपना दयनीय हाल बता रहा है। निर्यात गिर गया, विनिर्माण क्षेत्र बैठ गया, रोज़गार पांच साल के निचले स्तर पर है। लघु-मध्यम उद्योग वाले रो रहे हैं। छोटे कारोबारी खस्ताहाल हैं। जो नोटबंदी से रह गई थी, वो कसर जीएसटी ने पूरी कर दी।
RBI में लगभग 100% नोट जमा हो गए। इसका क्या मतलब निकाला जाएगा? अनुमान के मुताबिक़ देश में क़रीब 6% कालाधन कैश में था। ज़्यादातर बड़े नोटों में। अब, जब क़रीब-क़रीब सारा पैसा जमा होकर एक्सचेंज हो गया है तो ज़ाहिर है कि ये कालाधन वैध धन बन गया। यानी नोटबंदी ने बाक़ी नुकसानों के साथ-साथ सबसे बड़ा काम ये किया कि कालेधन को वैध बना दिया। जो चालाक थे, उन्होंने सेटिंग कर कई खातों में पैसे जमा करवाए, कई लोगों के मार्फ़त पैसे बदले। जो कच्चे थे, उन्होंने अपने खाते में पैसे डाल लिए। पैसे से यहां मेरा मतलब कालाधन से है। अब क्या हो रहा है? ऐसे कई लोग आयकर विभाग की निगरानी में हैं। आयकर इंस्पेक्टर इनसे मिलकर घूस खाकर ओके कर दे रहा है। यानी कालाधन तो सफ़ेद हुआ ही, भ्रष्टाचार भी बढ़ गया। और मोदी जी ने जो इंस्पेक्टर राज ख़त्म करने की बात कही थी, वो वादा अरब सागर में डूब गया।
इंस्पेक्टर राज को ख़त्म करने का जुमला फेंकने वाले प्रधानमंत्री ने नोटबंदी के बाद आयकर इंस्पेक्टरों को सांढ़ बना दिया है। जिसके खाते में हेर-फेर है, सब आयकर अधिकारियों से सेटिंग कर रहे हैं। नोटबंदी से भ्रष्टाचार रोकने की बात कही गई थी, देख लीजिए बढ़ गया है। काला धन ख़त्म करने की बात कही गई थी। लगभग 100% पुराने नोट बैंक पहुंचकर अब वैध करेंसी बन गए हैं। मोदी जी, और डुबोइए देश को। काम पूरा नहीं हुआ है।
Chandan Srivastava : इंडियन एक्सप्रेस में आज यशवंत सिन्हा का जो आर्टिकल छपा है, वह पढ़ा जाना चाहिए। रोहिंग्या, बीएचयू, जेएनयू आदि तो ठीक है लेकिन अर्थव्यवस्था ही दम तोड़ देगी तो क्या बचेगा? अरूण जेटली को लेकर भाजपा का कोर वोटर कभी कम्फर्टेबल नहीं रहा। लेकिन उन्होंने मोदी को भाजपा का चेहरा बनने में सहयोग किया था, यही वजह है कि उनका हर पाप मोदी जी गले लगाने को तैयार हैं। लेकिन पापी को किसी भी प्रकार का समर्थन करने वाला और यहां तक कि उसके कृत्यों से नजरें फेर लेने वाला भी बराबर का पापी होता है। कुछ ऐसा ही कृष्ण ने गीता में भी कहा था जब अर्जुन भीष्म, द्रोण आदि के प्रति आसक्त हो रहे थे।
यशवंत सिन्हा से कांग्रेस जैसी पार्टियों को सीखना चाहिए कि आलोचना कैसे की जाती है। रोहिंग्या और भारत तेरे टुकड़े होंगे का समर्थन करके वे कभी मोदी से पार नहीं पा सकते। इतनी साधारण सी बात न जाने क्यों कांग्रेस के पल्ले नहीं पड़ रही। बहरहाल बात यशवंत सिन्हा के लेख की। पूर्व वित्त मंत्री लिखते हैं कि निजी निवेश में आज जितनी गिरावट है उतनी दो दशक में नहीं हुई। औद्योगिक उत्पादन का बुरा हाल है, कृषि क्षेत्र परेशानी में है, बड़ी संख्या में रोजगार देने वाला निर्माण उद्योग भी संकट में है। नोटबंदी फेल रही है, गलत तरीके से GST लागू किए जाने से आज कारोबारियों के बीच खौफ का माहौल है। लाखों लोग बेरोजगार हो गए हैं।
वह आगे लिखते हैं, पहली तिमाही में विकास दर गिरकर 5.7 पर पहुंच गई जो तीन साल में सबसे कम है। सरकार के प्रवक्ता कहते हैं कि नोटबंदी की वजह से मंदी नहीं आई, वो सही हैं क्योंकि इस मंदी की शुरुआत पहले हो गई थी। नोटबंदी ने सिर्फ आग में घी डालने का काम किया। आर्टिकल के अंत में वह एक पंच लाइन देते हैं, ‘pm claims dat he has seen poverty from close quarters. His fm is working over time to make sure dat all indians also see itfrom equally close quarters.’ माने- ‘प्रधानमंत्री दावा करते हैं कि उन्होंने काफी करीब से गरीबी देखी है। अब उनके वित्त मंत्री यह सुनिश्चित करने के लिए ओवरटाइम कर रहे हैं कि देश का हर नागरिक भी करीब से गरीबी देखे।’
Vikas Mishra : 27 अप्रैल, 2012 को संसद में उस वक्त के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ये शेर पढ़ा था- ”मेरे जवाब से बेहतर है मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रख ली।” उन दिनों यूपीए सरकार हर मोर्चे पर फेल हो रही थी। घोटाले पर घोटाले उजागर हो रहे थे, विपक्ष मनमोहन सिंह को बार-बार बोलने के लिए उकसा रहा था, उनकी चुप्पी पर सवाल उठ रहे थे, उन्हें ‘मौन’मोहन सिंह का खिताब दिया जा रहा था। फिर भी इस सरदार की चुप्पी नहीं टूटी। जब टूटी तो वही शेर पढ़ा, जो मैंने ऊपर लिखा है।
मनमोहन सिंह जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद देश में सबसे ज्यादा वक्त तक प्रधानमंत्री रहे। देश के सबसे ताकतवर पद पर रहे, लेकिन कमजोर प्रधानमंत्री के तौर पर सबसे ज्यादा बदनाम भी हुए। एक ऐसे प्रधानमंत्री, जिनकी खामोशी को विपक्ष ने चुनावों में मुद्दा तक बना लिया। पहली बार ऐसा हुआ कि प्रधानमंत्री कार्यालय को बाकायदा प्रेस कान्फ्रेंस करके बताना पड़ा कि प्रधानमंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने कितनी बार चुप्पी तोड़ी है।
मनमोहन सिंह न तो कभी राजनीति में रहे और न ही राजनीति से उनका कोई खास लेना-देना रहा। हालात की मजबूरियों ने उन्हें प्रधानमंत्री पद तक पहुंचाया तो मजबूर और कमजोर प्रधानमंत्री का तमगा उनके नाम के आगे से बीजेपी ने कभी हटने नहीं दिया। दस साल की सत्ता में मनमोहन सिंह ने बहुत कुछ देखा। देश को विकास की राह पर चलते देखा तो अपनी ही सरकार को भ्रष्टाचार की गर्त में जाते देखा। कॉमनवेल्थ गेम में करोड़ों का वारा न्यारा करने वाला कलमाड़ी देखा तो किसी राजा का अरबों का टूजी घोटाला देखा। ‘कोयले’ की कालिख ने तो मनमोहन सिंह का भी दामन मैला कर दिया।
तो क्या भारत के राजनीतिक इतिहास में मनमोहन सिंह को सबसे मजबूर और कमजोर प्रधानमंत्री के तौर पर आंका जाएगा? क्या सबसे भ्रष्टाचारी सरकार चलाने वाले प्रधानमंत्री के तौर पर याद किए जाएंगे? क्या रिमोट कंट्रोल से चलने प्रधानमंत्री के तौर पर इतिहास याद करेगा मनमोहन सिंह को? ये सवाल मनमोहन सिंह को भी भीतर से चाल रहे थे। तभी तो सत्ता के आखिरी दिनों में उन्होंने कहा था-मुझे उम्मीद है कि इतिहास उदारता के साथ मेरा मूल्यांकन करेगा। मनमोहन में काबीलियत की कमी नहीं थी। उनकी ईमानदारी को लेकर कभी कोई सवाल नहीं उठा। उनके कमिटमेंट पर कोई सवाल नहीं उठा। मनमोहन सिंह, जो रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे, चंद्रशेखर ने जिन्हें प्रधानमंत्री बनने के बाद अपना वित्तीय सलाहकार बनाया। राजीव गांधी ने जिन्हें प्लानिंग कमीशन का उपाध्यक्ष बनाया, नरसिंह राव ने जिन्हें बुलाकर देश का वित्तमंत्री बनाया था।
दरअसल नरसिंह राव कुशल कप्तान थे, मनमोहन सिंह उनकी टीम के ‘सचिन तेंदुलकर थे’। वो 1991 का साल था, जब मनमोहन सिंह देश के वित्त मंत्री बने थे। तब अर्थव्यवस्था गर्त में जा रही थी। देश का सोना गिरवी रखने की नौबत आ चुकी थी। महंगाई चरम सीमा पर थी। मनमोहन ने जब आर्थिक सुधारों की छड़ी घुमाई तो कायापलट होने लगा। विपक्ष मनमोहन पर सवालों की बारिश कर रहा था, लेकिन मनमोहन के सिर पर छतरी ताने नरसिंह राव खड़े थे। मनमोहन सिंह ने विदेशी निवेश का रास्ता खोल दिया था। जिस तरह से आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खोल रहे हैं। नतीजा ये हुआ कि आर्थिक सुधार रंग लाने लगे। देश का गिरवी रखा सोना भी वापस आया। अर्थव्यवस्था भी पटरी पर लौटी। 1991-92 में जो जीडीपी ग्रोथ सिर्फ 1.3 थी, वो 1992-93 में 5.1 और 1994-95 तक 7.3 हो गई। उदारीकरण के चलते इन्फार्मेशन टेक्लनोलॉजी और टेलिकॉम सेक्टर में क्रांति हुई और उन दिनों इस क्षेत्र में करीब 1 करोड़ लोगों को रोजगार मिला। ये मनमोहन सिंह की बतौर खिलाड़ी जीत थी तो उससे बड़ी जीत नरसिंह राव की कप्तानी की भी थी।
2004 में मनमोहन सिंह जब खुद कप्तान (प्रधानमंत्री) बने तो पहले पांच साल उनकी सरकार बड़े मजे में चली। कई मोर्चे फतेह किए, सड़कें बनीं, अर्थव्यवस्था को पंख लगे, जीडीपी ग्रोथ 8.1 तक पहुंची। मनमोहन सरकार ने सूचना का अधिकार देकर जनता के हाथों में एक बहुत बड़ी ताकत थमाई। लालकृष्ण आडवाणी शेरवानी पहने खड़े रह गए, 2009 में देश की जनता ने फिर मनमोहन को सत्ता के सिंहासन पर बिठा दिया।ये मनमोहन सिंह के काम का इनाम था। लेकिन दूसरी पारी में मनमोहन न खुद संभल पाए और न सरकार संभाल पाए। बस रिमोट कंट्रोल पीएम बनकर रह गए।
यूपीए-1 में मनमोहन सिंह ने जितना कमाया था, यूपीए-2 में सब गंवा दिया। घोटालों की झड़ी लग गई, महंगाई आसमान छूने लगी। पाकिस्तानी सैनिक हमारे सैनिकों के सिर तक काट ले गए। चीन भारत की सीमा में कई बार घुस आया। मनमोहन सिंह की कई बार कांग्रेस के भीतर भी बेइज्जती हुई, लेकिन उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया, बाकायदा पद पर बने रहकर वफादारी की कीमत चुकाई। तमाम आरोपों का ठीकरा उनके सिर फोड़ा गया, वे खामोश रहे। ये मनमोहन सिंह की चुप्पी नहीं थी, वे चुपचाप सत्ता का ‘विष’ पी रहे थे। जुबान खोलते तो उनके ही आसपास के कई खद्दरधारी जेल में होते, चुप रहे, बहुतों की इज्जत बचा ली।
मनमोहन सिंह बद नहीं थे, लेकिन बदनाम ज्यादा हो गए। मनमोहन सिंह की जिंदगी नाकामियों और कामयाबियों की दास्तानों से भरी पड़ी है। इतिहास भी उन पर फैसला करने में हमेशा कश्मकश में रहेगा। उनकी आलोचना तो हो सकती है, लेकिन उन्हें नजरअंदाज करना उनके साथ बेईमानी होगी। वैसे बता दें कि आज पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का जन्मदिन है।
तीन पत्रकारों दिलीप खान, चंदन श्रीवास्तव और विकास मिश्र की एफबी वॉल से. दिलीप खान राज्यसभा टीवी में लंबे समय तक कार्यरत रहे हैं. चंदन श्रीवास्तव लखनऊ में पहले पत्रकार थे और अब वकालत कर रहे हैं. विकास मिश्र आजतक न्यूज चैनल में वरिष्ठ पद पर हैं.
rahi
September 28, 2017 at 6:45 pm
Chandan Srivastava ji ke liye “Yashvant Sinha ki Tippani par” bahut kuchh Jawaab khoj ke laya hun….
I read Yashvant Sinha’s article on Indian Express. Anti Modi Gang in ful celebration mode. But let’s do some fact check….
1). Yashvant Sinha says “Private Investment has shrunk as never before in two decades”.
FACT is : 2016 PE Investment at 10 year PEAK..! (Source : Business World).
2). Y. Sinha : “Industrial Production has all but collapsed”.
FACT is : IIP is healthy b/w 2014 and 2016. Picking up again this quarter. (Source : Trading Economics).
3). Y. Sinha : “Agriculture is in distress”.
FACT is : Kharif and Rabi Production in India is at its highest leel ever!!! (Source : IBEF).
4). Y. Sinha : “Construction Industry, a big employer of WF, is in the doldrums”.
FACT is : Iron & Steel Consumption at record high!! (Source : IBEF).
5). Y. Sinha : “The rest of service sector is also in the slow lane”.
FACT is : 39% growth in IT services over 3 years..!! (Source : The Dollar Business).
6). Y. Sinha : “Exports have dwindled, sector after sector of the economy is in distress”.
FACT is : Exports growing even after demonetization! (Source : Trading Economics).
Now, I will stop here. Yashwant Sinha missed the facts badly in an effort to target Arun Jaitley directly and Narendra Modi indirectly….
Regards