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वेब-सिनेमा

मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड पर बनी ये धांसू फिल्म मत देखना.. अपनी संवेदनाओं को सोने दो!

नाजिया खान-

नेटफ्लिक्स पर कल आई है भक्षक। इसका रिव्यू इसका एपिलॉग है, जो वैशाली उर्फ़ भूमि पेडनेकर फ़िल्म के अंत में कहती हैं। वही कहूँगी। मत देखिये, सोई संवेदना जाग जाएगी, क्या ही मतलब। उसे सोने दीजिये।

ऐसी फिल्में रंग में भंग डाल देती हैं। इश्क़ मोहब्बत के महीने की मिठास को कड़वाहट में बदल देती हैं। दुनिया के ख़ूबसूरत रंग एकदम बदरंग दिखने लगते हैं, मुँह कसैला हो जाता है और आँखें नम।

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ऐसा कुछ नहीं इसमें, जो हमें पता नहीं, जो कुछ नया या अनोखा हो, भयंकर वाला सस्पेंस थ्रिल हो या ‘कहानी की डिमांड’ के अनुसार बोल्ड सीन हों। वैसे भी जब तक अपने या अपनों के साथ कुछ बुरा न हो, ज़्यादा इमोशनल होने की ज़रूरत नहीं है। संवेदना शून्य होने में ही सुख है। दूसरों के पचड़े में पड़ने से मतलब है नहीं। आँखें चुरा लेने में भलाई है।

लड़की है और अनाथ है, शेल्टर होम्स के हत्थे चढ़ गई है या सड़कों पर है या घर में, उसी की क़िस्मत ख़राब है तो हम-आप कर भी क्या सकते हैं, सिवाय इसका शुक्र मनाने कि हम ऐसे अभागे नहीं हैं। हालत यह है कि आज हमसे कोई भी कह दे कि यह फ़लाने शेल्टर होम की कहानी है, हम जल्दी से मान लेंगे। किसी भी स्टेट में कोई भी हो, क्योंकि हमको पता है मन में कि हाँ, होता होगा ऐसा। जब घर की सेफ चारदीवारी में हो सकता है, तो जो बहुत छोटी बच्चियां बिल्कुल बेसहारा है, उनके साथ क्या नहीं हो सकता। फिर भी हम न सोचना चाहते हैं, न बात करना इस बारे में। 

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हमें पता है, हम क्या ही कर लेंगे, शासन-प्रशासन सबकी मिलीभगत होगी। ऊँचे कनेक्शंस होंगे। यह सब सोचना हमारा काम है ही नहीं। पर होते हैं कुछ पागल, जुनूनी लोग हमारे ही बीच। फिल्मों में ही नहीं, असल ज़िन्दगी में भी। जिनको शौक़ होता है सुख की जान दुःख में डालने का। परिवार को भी संकट में डाल देने का। सबके ख़िलाफ़ जाने का साहस होता है और ज़िन्दगी से प्यार तो होता है अपनी, पर उनकी संवेदना और समानुभूति उस प्यार पर भारी पड़ जाती है। जहाँ चाह होती है, राह भी बन जाती है, भले लोगों का साथ मिले तो। रेड चिली इंटरटेनमेंट, ऐसी क़ायदे की फ़िल्म बनाने के लिये साधुवाद।

भूमि और संजय मिश्रा तो रोल के हिसाब से फिट और मंझे कलाकार हैं ही, सपोर्टिंग कास्ट भी सभी बढ़िया है लेकिन आदित्य श्रीवास्तव ने कमाल किया है निगेटिव रोल में। बहुत इम्पेक्टफुल मूवी है। बिल्कुल डॉक्यूमेंट्री जैसी विश्वसनीयता और असर छोड़ती है, बिन बहुत ज़्यादा ओवर, लाउड या मेलोड्रामेटिक हुए। पुलकित का डायरेक्शन और अनुराग अनुज का म्यूज़िक सब अप टू द मार्क हैं।

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अमिताभ श्रीवास्तव-

नेटफ्लिक्स पर आज से दिखाई जा रही फिल्म भक्षक बिहार के मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड पर बनी है। मुजफ्फरपुर में बच्चियों के साथ दुष्कर्म, उनके यौन शोषण की दिल दहला देने वाली खबर पूरे देश में चर्चित हुई थी। 

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भूमि पेडनेकर, संजय मिश्रा, आदित्य श्रीवास्तव,  चितरंजन त्रिपाठी, सूरज शर्मा मुख्य भूमिकाओं में हैं। भूमि पेडनेकर पत्रकार के किरदार में हैं और संजय मिश्रा उनके साथी कैमरामैन बने हैं। फिल्म में पृष्ठभूमि बिहार की ही है लेकिन संभवत: कानूनी सुरक्षा की वजह से मुजफ्फरपुर को मुनव्वरपुर कर दिया गया है। 

भूमि पेडनेकर का काम अच्छा है लेकिन बालिका गृह के बेहद दुष्ट संचालक की खल भूमिका में आदित्य श्रीवास्तव सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं। वेब सीरीज अनदेखी में खतरनाक विलेन सूरज शर्मा को यहां भूमि के बेहद सीधे-सादे पति की सकारात्मक भूमिका में देखना भी दिलचस्प था। 

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भक्षक की निर्माता हैं शाहरुख खान की कंपनी रेड चिलीज। यह अच्छी बात है कि शाहरुख खान ठेठ मसाला फिल्मों से अरबों कमाने के साथ-साथ भक्षक जैसे छोटे बजट के सार्थक सिनेमा को बढावा देने में भी दिलचस्पी लेते हैं। भक्षक की एक खास बात यह भी है कि यह मुख्यधारा के बडे चैनलों और अखबारों के मुकाबले वैकल्पिक मीडिया के छोटे मंचों की ताकत और उनकी जनपक्षधर भूमिका को रेखांकित करती है। 

भक्षक समाज को भी चुप्पी के लिए लताड़ती है।  एक अच्छे मकसद के साथ बनाई गई फिल्म है, इसके लिए तारीफ की जानी चाहिए।

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