दिनेश श्रीनेत-
मृत्यु की तरफ बढ़ना भारहीन होने की तरफ़ बढ़ना है. होश संभालते ही हम पर थोड़ा-थोड़ा बोझ डालने की शुरुआत हो जाती है. सलीकों का बोझ, पढ़ाई का, अनुशासन का…
बोझ बढ़ता जाता है. ज्ञान, करियर, प्रतिस्पर्धा, नौकरी, आर्थिक असुरक्षा, धर्म-कर्म, दिखावा, धन, संचय और जमीनों पर कब्जा. जिसका खुद ठिकाना नहीं वो धन से बल से ज़मीनों पर कब्ज़ा करता चलता है और उसके चारो तरफ अपनी चौहद्दी खींचता जाता है.
मृत्यु इसीलिए दुःख देती है. तारकोल में फंसा हुआ शरीर जब सफेद पंखों वाले देवदूत खींचते हैं तो चमड़ी उखड़ने लगती है, रक्त बहने लगता है, मांस खिंचता है और हड्डियां चटख जाती हैं. भार से भरे हुए जीवन में मृत्यु दुःख देती है. वैसे तो सारा दुःख-सुख यहीं है. कोई दूसरा लोक नहीं है. मुक्ति के लिए कहीं और नहीं जाना है.
मुक्ति यानी खुद को भारहीन करना. भौतिक वस्तुओं के भार से मुक्त करना, मन के बंधनों से मुक्त करना, ज्ञान के अहंकार से मुक्त करना, खुद को खुद से मुक्त करना. इस तरह चीजों को छोड़ना कि अंत में सिर्फ शरीर बचे.
मगर शरीर भी एक भार है. उससे भी आगे बढ़ जाना. अपने-आप को जीवित रहते हुए राख में बदलते, मिट्टी बनते, पानी में घुलते और तेज हवा में फैलते हुए देख पाना शायद शरीर से मुक्ति है.
यदि मुक्त हो गए तो इसके बाद भी हम बचे रहेंगे. क्योंकि कुछ भी शेष नहीं रह जाता. मकान खंडहर हो जाते हैं, तस्वीरें धुंधली पड़ जाती हैं, सामान कबाड़ी वाला ले जाता है, कागज़ पर लिखी सियाही धुंधली हो जाती है. किताबें दीमक चाट जाती है.
इस धरती पर सब कुछ बदल रहा है. धीरे-धीरे मिट्टी सबको अपनी गिरफ़्त में ले लेती है. जितना भार था वो मिट्टी हो गया… तो बचा क्या? जो बचा वही हम हैं. हमें उसी के साथ जीना है.
इतना हल्का हो जाना है जैसे शब्द, जैसे विचार, जैसे मन. जैसे कुछ देर तक हवा में फूल की खुश्बू, जैसे कोई गीत. जैसे कोई धुन. बस इतने ही हम हैं. बाकी सब मिट जाना है. ये जो इतना सा हमारे भीतर है, उसे ज़िंदा रखना है. बाकी सब कुछ कपड़ों की तरह उतारकर अलगनी में टांग देना है. हमारे सुंदरतम स्वप्न इसी भारहीन अवस्था से जन्म लेते हैं.
भारहीन होने पर मृत्यु दुःख नहीं देगी. क्योंकि मृत्यु का दुःख तो कुछ खोने का था. आपने वो सब छोड़ दिया जिसे खोने का दुःख सताता.
मजरूह सुलतानपुरी का लिखा एक गीत जैसे मन के इसी गहरे राग-विराग से निकला है…
जब हम ना होंगे, जब हमारी ख़ाक पे तुम रुकोगे चलते चलते
अश्कों से भीगी चाँदनी में एक सदा सी सुनोगे चलते चलते
वही पे कहीं हम तुमसे मिलेंगे,
बनके कली, बनके सबा, बाग-ए-वफ़ा में
तो जीते-जी ‘सबा’ बनना है…