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पंकज जी की बर्खास्तगी का उत्सव मनाने वाले भाइयों, गुजारिश है कि साथ में भाजपाई एजेंडों की जीत का जश्न भी मनाते जाइए!

: आईबीएन सेवन से पंकज श्रीवास्तव की बर्खास्तगी को लेकर मीडिया में चल रही बतकही के बीच :  ”बंद हैं तो और भी खोजेंगे हम, रास्ते हैं कम नहीं तादाद में” …ये पंक्तियाँ ही कहीं गूँज रही थीं पंकज भाई की बर्खास्तगी की खबर के बाद। … बनारस आने के बाद न जाने कितनी बार उनके साथ इन पंक्तियों को दुहराया होगा। …”हम लोग कोरस वाले थे दरअसल” .… इरफ़ान भाई के ब्लॉग पर आज उसी आवाज को फिर से सुनना बढ़िया लगा. कल प्रेस क्लब में थोड़ी देर के लिए मुलाकात भी हुई कई लोगों से.…

<p>: <strong>आईबीएन सेवन से पंकज श्रीवास्तव की बर्खास्तगी को लेकर मीडिया में चल रही बतकही के बीच</strong> :  ''बंद हैं तो और भी खोजेंगे हम, रास्ते हैं कम नहीं तादाद में'' …ये पंक्तियाँ ही कहीं गूँज रही थीं पंकज भाई की बर्खास्तगी की खबर के बाद। … बनारस आने के बाद न जाने कितनी बार उनके साथ इन पंक्तियों को दुहराया होगा। …''हम लोग कोरस वाले थे दरअसल'' .… इरफ़ान भाई के ब्लॉग पर आज उसी आवाज को फिर से सुनना बढ़िया लगा. कल प्रेस क्लब में थोड़ी देर के लिए मुलाकात भी हुई कई लोगों से.…</p>

: आईबीएन सेवन से पंकज श्रीवास्तव की बर्खास्तगी को लेकर मीडिया में चल रही बतकही के बीच :  ”बंद हैं तो और भी खोजेंगे हम, रास्ते हैं कम नहीं तादाद में” …ये पंक्तियाँ ही कहीं गूँज रही थीं पंकज भाई की बर्खास्तगी की खबर के बाद। … बनारस आने के बाद न जाने कितनी बार उनके साथ इन पंक्तियों को दुहराया होगा। …”हम लोग कोरस वाले थे दरअसल” .… इरफ़ान भाई के ब्लॉग पर आज उसी आवाज को फिर से सुनना बढ़िया लगा. कल प्रेस क्लब में थोड़ी देर के लिए मुलाकात भी हुई कई लोगों से.…

कई सन्दर्भों में पुराने दिनों की याद आई। विश्वविद्यालय में आने और छात्र राजनीति में शामिल होने के बाद सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के सपने संजोये, नव-स्फूर्ति और ऊर्जा से भरे हम किसी ऐसी राह पर चल रहे थे जिसके पड़ावों-मुकामों के बारे में ठीक-ठीक मालूम तो न था लेकिन ये जरूर था कि एक बेहतर समाज को गढने की दिशा में अपनी भूमिका जरूर समझ में आती थी…लोग कई बार कहते थे कि तुमलोग छात्र हो, यहां पढने आए हो राजनीति करने नहीं … लेकिन हम कहते कि हमारा नारा भी तो यही है … लडो पढाई करने को, पढो समाज बदलने को, यह सबके लिए मुकम्मल गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार हासिल करने और प्रगतिशील, वैज्ञानिक एवं समता के मूल्यों पर आधारित समाज को रचने की जद्दोजहद थी। हममें से अधिकांश इसी भावना के तहत छात्र राजनीति में स्वतःस्फूर्त तरीके से सक्रिय हुए थे। और आज तक भी मुझे ये बात नहीं समझ में आई कि कोई भी पढाई-लिखाई करने वाला सचेतन, संवेदनशील मनुष्य बाकी समाज के दुख-दर्द से कटकर कैसे रह सकता है? खैर, समय के साथ लोगों की भूमिकाएं और प्राथमिकताएं भी बदलीं और जिंदगी जीने की जद्दोजहद में लोगों ने पार्टी होलटाइमरी से लेकर नौकरी के विभिन्न रास्ते अख्तियार कर लिए। लेकिन, जिन लोगों ने नौकरियां कर लीं क्या उन सबके एक खास समय के योगदान को भुला दिया जाना चाहिए?

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बहरहाल, मैं ये बातें सिर्फ इस संदर्भ में कह रहा हूं कि पिछले 2 दिनों से कई लोग ”भड़ास” निकालने में लगे हुए हैं कि पंकज ने कभी अपने से नीचे वालों के लिए आवाज नहीं उठाई पर आज खुद निकाले जाने पर विलाप कर रहे हैं। कोई कह रहा है कि वे एक ”डील” के हिस्सा हैं जिसके तहत ये सब किया गया तो कोई कह रहा है कि उन्होंने काफी माल इकट्ठा कर रखा है और अब प्रेस वार्ता के जरिये खुद को शहीद घोषित कर रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि वे बिलकुल नाकारा हो गये थे और सिर्फ फेसबुक और बातों में वक्त गुजारते थे जिसकी सजा पहले संजीव पालीवाल को और अब पंकज को मिली। मुझे नहीं मालूम कि एक चैनल के मुलाजिम के बतौर खुद पंकज जी की हैसियत किसी को निकालने-रखने में कितनी रही होगी। 1997 में सांगठनिक जिम्मेदारियों व सक्रिय राजनीती से मुक्त होने के बाद, अपनी पैतृक संपत्ति के बल पर कुछ करने के आसान रास्ते और घर से बुलावे के बावजूद उन्होंने मुसीबतों से भरी कठिन डगर चुनी थी. अमर उजाला में छोटी-सी नौकरी मिलने के बाद उत्साह से लबरेज पंकज-मनीषा का बनारस में साकेत नगर स्थित हमारे छोटे-से ठिकाने पर उनका आना आज भी याद है. मुफलिसी के दौर में अमर उजाला की दो हजार की नौकरी पकडने से लेकर तकरीबन 17 साल बाद अब आइबीएन सेवन के लाख रूपये के पैकेज तक पहुंचने में उन्होंने क्या गैर-वाजिब समझौते किये होंगे ये भी नहीं मालूम। लेकिन नौकरी करने के लिए कुछ समझौते जरूरी होते हैं ये सबको पता है जो विभिन्न नौकरियों में लगे हैं। समझौते किस हद तक ये एक अलग, किंतु जरूरी मसला है। यह भी शोध का विषय है कि अखबारी पत्रकारिता से चैनल पत्रकारिता में आने के क्रम में विगत १७ बरस में आज लाख रूपये माहवार की नौकरी तक पहुंचना क्या बहुत ज्यादा है। और क्या पंकज अपने पेशागत प्रभावों का उपयोग कर, राजनीतिक दांव-पेंच खेल कर, चैनल की तनख्वाह से इतर पैसे उगाहने का काम भी कर रहे थे जो उनके पास काफी माल-मत्ता इकट्ठा हो जाने पर मुहर लगाता हो। कम-से-कम मेरी जानकारी में तो नहीं है।

कुछ लोगों की अदालत में ये भी आरोप है उनपर कि उन्होंने कई कामरेडों की जिंदगियां बर्बाद कर दीं और उन्हें नौकरी दिलाने में मदद न कर सके। और ये कि उनसे काबिल कई कामरेड छोटे-छोटे काम करते हुए जिंदगी गुजार रहे हैं। ये एक अहम सवाल है मेरे हिसाब से। जरा बताइए कि क्या उन कामरेडों के पास अपनी कोई दृष्टि, सोच-समझ नहीं थी या किसी कमांडर के कहने पर लाचार-मजबूर सेना की तरह सबकुछ छोड़कर सामाजिक-राजनीतिक बदलाव की कार्रवाइयों में कूद गये थे, ये सोच कर कि कम्युनिस्ट संगठन और पार्टी का नेतृत्व उनकी रोजी-रोटी व भविष्य का प्रबंध करेगा जबकि पार्टी अपने संसाधन जुटाने के सवाल आज तक हल न कर पाई हो और आम तौर पर वो जनसाधारण के चंदों से ही चलती हो। उन कॉमरेडों के खुद के सपने क्या थे? क्या उस वक्त वे खुद भी सामाजिक बदलाव की राजनीति का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे जिसके पीछे उनके आदर्शवादी मूल्य रहे हों या सांस्कृतिक-राजनीतिक परिदृश्य पर अपनी पहचान बनाने की इच्छा। मुझे वाकई याद नहीं आ रहा कि पंकज ने किसी छात्र को छलावे में लेकर अपनी राजनीति की हो। उनकी छवि एक सौम्य, मृदुभाषी, सांस्कृतिक नेता की ही तरह थी जो मन के तारों को झकझोर देने वाली बुलंद आवाज में क्रांतिकारी गीत सुनाता था, कवितायेँ लिखता-पढता था, फिर राजनीती की बात करता था।  सबसे बड़ी बात कि वो अपने साथियों की परेशानियों का हमेशा ख्याल रखता था. उनके फ़ेलोशिप/वजीफे की रकम आने की खुशी और इंतजार उनसे ज्यादा साथियों को हुआ करती थी.उनके साथ रहने पर मनमानी किताबें खरीदी जा सकती थीं, बढ़िया खाना खाया जा सकता था और शायद न रहने पर साथियों की फीस भी भरी जा सकती थी. ये वो दिन थे.

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तो  फिर उन पर लगाए जाने वाले ये आरोप किस कामरेड के हैं भाई? अगर हम अपने करियर में कोई अपेक्षित मुकाम हासिल न कर सके तो क्या हमारी आर्थिक दुर्दशा/बेहतरी के लिए पार्टी या संगठन जिम्मेदार है? क्या ऐसे कामरेडों ने यूपीएससी / एसएससी / बैंकिंग / सीए / पत्रकार / शिक्षक / प्रोफेसर बनने के ध्येय से कोचिंग लेने के लिए संगठन ज्वाइन किया था? तब तो वाकई ऐसे कामरेडों की समझ और दृष्टि पर तरस आता है। जो लोग अपने नेतृत्वकर्ता साथियों और संगठन को प्लेसमेंट एजेंसी की तरह देखते हैं उनके लिए ये बात सही हो सकती है लेकिन तब क्या उस दृष्टि का समर्थन हम भी करने लगेंगे? संगठन और पार्टी के भीतर कई कमियां हो सकती हैं जिनकी चर्चा होनी चाहिए, उन्हें सुधारा जाना चाहिए लेकिन अपनी काहिली, गतिशीलता में कमी, क्षमता का ठीक इस्तेमाल न कर पाने या अन्य परिस्थितिजन्य परिणामों के कारण उपजी जिंदगी की दुश्वारियों का ठीकरा संगठन या व्यक्तियों पर फोडकर हमें खुद सारी जिम्मेदारियों से ‘मुक्त’ हो जाना चाहिए।

असल सवाल ये है कि क्या पंकज वाकई नाकारा हो गये थे या चैनल की भाजपा समर्थक नीतियों व लाबी के वर्चस्च की खिलाफत के लिए उन्हें निकालना प्रबंधन की मजबूरी बन गई थी। 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाकर और हिंदू-मुस्लिम नफरत की सियासत में समाज को झोंककर देश की राजनीति में अपना कद बढाने वाली सांप्रदायिक शक्तियों के नये उभार के इस स्वर्णिम दौर में दक्षिणपंथी राजनीति के खिलाफ सोशल मीडिया में आ रही पंकज की टीपें, उनकी कविताएं, उनका तल्ख स्वर क्या उनके दिनों-दिन नाकारा होते जाने के सबूत हैं? और उनके नाकारा होने की शुरुआत क्या अचानक से 16 मई, 2014 के बाद शुरू हो गई? ये सवाल उठाने वाले किसकी राजनीति का पक्षपोषण कर रहे हैं? दक्षिणपंथियों का या करवट बदल कर अपने राजनीतिक आकाओं की गोद में बैठने वाले कारपोरेट प्रबंधन का? इसमें कोई शक नहीं कि आईबीएन से निकाले गये तमाम पत्रकारों, कलमकर्मियों का मसला बेहद अहम था और है।  आइबीएन ही क्यों ऐसी हर छंटनी का विरोध होना चाहिए। लेकिन, पत्रकारिता संस्थानों व मीडिया के भीतर लगातार बढते जा रहे तानाशाही के दौर में अगर इस अवसर का उपयोग कतिपय कारणों से  कुछ कलमवीर अपनी व्यक्तिगत खुन्नस निकालने में करना चाहते हैं तो संकेत खतरनाक हैं। ये हद-से-हद यही साबित करता है कि दक्षिणपंथ अपने राजनीतिक एजेंडे में सफलता की राह पर है- घरवापसी, दंगों, स्वच्छता अभियान व श्रम-कानून में सुधारों जैसे उछाले गए भ्रामक एजेंडों की तरह। तो पंकज जी की बर्खास्तगी का उत्सव मनाने वाले भाइयो, गुजारिश है कि साथ में भाजपाई एजेंडों की जीत का जश्न भी मनाते जाइए।

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लेखक मित्ररंजन कामरेड रह चुके हैं और इन दिनों एक एनजीओ से जुड़े हुए हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.


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