यशवंत सिंह-
रेडिसन (अट्टा, नोएडा) एक मीटिंग के लिए गया था। फिर एक मित्र के साथ प्लान बन गया पठान देखने का। बहुत दिनों बाद किसी फ़िल्म के लिए हाउस फ़ुल था। जंता की सीटियों और लगातार हो-हल्ला से लगा फ़िल्म को लोग इंजॉय कर रहे हैं। फ़िल्म बहुत मेहनत से बनाई गई है। कहानी दर कहानी है, मिशन दर मिशन है। एक्शन पर एक्शन है। माइंडलेस स्टोरी है। हीरो को जीतना है। दुश्मन को पीटना है। फ़िल्म में सारे मसाले हैं।
मुझे लगता है मैं बूढ़ा हो गया हूँ। अब कुछ भी जल्दी पसन्द नहीं आता। सब एवें टाइप ही लगता है। निजी तौर पर मुझे ये फ़िल्म टीन ऐज बच्चों के लिए बनी बस एक एक्शन फ़िल्म लगी। या तो ये हो सकता है कि ओटीटी पर ढेर सारी अच्छी चीजें देखने के बाद अब भारतीय मारधाड़ वाली मसाला फ़िल्में मूर्खतापूर्ण लगती हैं। परसों नेटफ़्लिक्स पर the playlist का पाँचवा एपिसोड ख़त्म किया। स्पोटिफ़ाई के बनने की कहानी है। क्या ग़ज़ब अभिनय है। क्या खूब स्टोरी है। डेढ़ सौ रुपये महीने नेटफ़्लिक्स को देना नहीं खलता। यहाँ तो थिएटर में सवा पाँच सौ का पॉपकॉर्न और दो कोक लेना पड़ता है। टिकट छह सात सौ का अलग से।
पठान के दर्शकों में मुसलमान भारी संख्या में थे। मुसलमान दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर पठान बनाई गई है। शाहरुख़ के साथ सलमान फ्री। पठान टाइटल सॉंग। फ़िल्म में शाहरुख सलमान राष्ट्रभक्त हैं। दीपिका और जॉन अब्राहम दुश्मन ताक़तें। बॉयकॉट गैंग इस बार फेल हो जाएगा क्योंकि ये फ़िल्म सबको एंटरटेन करती है। मुसलमानों को बहुत ज्यादा। कहानी ग्लोबल टाइप जासूसी और मिशन पर है। इसलिए इसमें कई देशों के दर्शन होते हैं। कहानी में दिमाग़ लगाने की ज़रूरत नहीं है। बस देखते जाइए। चौंकने की इच्छा करती है पर कितनी बार कोई चौंके! मुंबइया और साउथ वाली मसाला फ़िल्में ऐसी ही माइंडलेस होती हैं।

फ़िल्म देखने के बाद एक मित्र के घर डिनर के दौरान की एक पिक! भोजन अच्छा रहा इसलिए अंत भला तो सब भला।
एक रिव्यू यह भी-
