Sanjay Sinha : कभी कभी मुझे अपने पत्रकार होने पर अफसोस होता है। मैंने आपको बताया था कि बहुत साल पहले पटना में मेरे पिताजी का गॉल ब्लाडर का ऑपरेशन हुआ था। हालांकि पटना के एक बड़े सर्जन ने उनके पेट दर्द होने की वज़ह की जांच करके बताया था कि उन्हें पेप्टिक अल्सर है। पर जब ऑपरेशन शुरू हुआ तो उसने कहा कि पेप्टिक अल्सर तो नहीं, पर क्योंकि पेट खोल दिया गया है इसलिए गॉल ब्लाडर का ऑपरेशन कर देता हूं। उसने गॉल ब्लाडर निकाल दिया। हमें डॉक्टरी जानकारी रत्ती भर नहीं थी। डॉक्टर ने जो कहा, हमने मान लिया। ऑपरेशन के बाद पिताजी करीब हफ्ते भर तक उस डॉक्टर के नर्सिंग होम में रहे। ऑपरेशन के बाद उन्हें जब भी पेट में दर्द होता, नर्स आती और रैनबैक्सी कंपनी का एक इंजेक्शन फोर्टविन दे देती। पिताजी को इंजेक्शन लगता और वो चैन से सो जाते।
करीब हफ्ते भर में पिताजी के ऑपरेशन का ज़ख्म भर गया। पर कमाल की बात ये थी कि ऑपरेशन का दर्द नहीं गया था। पिताजी को पेट में तेज़ दर्द होता और उन्हें फोर्टविन इंजेक्शन दे दिया जाता। यहां तक कि जब हम घर लौट रहे थे, हमें डॉक्टर ने पर्चे पर लिख कर दे दिया था कि जब भी दर्द हो, ये वाला इंजेक्शन दे दीजिएगा। पिताजी घर लौट आए। दर्द साथ लेकर। उनके शरीर में अचानक अकड़न सी होती। पेट में तेज़ दर्द उठता और हम इंजेक्शन दे देते। शुरू में हम कंपाउंडर को बुलाते। वो हर बार दस रुपए लेता। फिर हमें लगा कि इंजेक्शन देना कोई बहुत बड़ी बात नहीं, तो खुद सीख गए इंजेक्शन लगाना। सीरिंज को पानी में उबालता, फोर्टविन दवा भरता और पिताजी की कमर में सुई खोंस देता। इंजेक्शन लगते ही पिताजी के चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती।
मैं मन ही मन सोचता कि हमें एक सुई लगवानी हो तो जान निकल जाए, पर पिताजी इतनी सुइयां रोज लगवाते हैं, उन्हें जरा भी दर्द नहीं होता, उल्टे सुई लगने के नाम से उनके चेहरे पर शांति छा जाती है। वो खुश हो जाते हैं कि सुई लगने वाली है। सुई लगने की संख्या इस कदर बढ़ रही थी कि एक ऐसा भी वक्त आया, जब मेरी छोटी बहन ने भी सुई लगाना सीख लिया। जब भी पिताजी को दर्द होता, मेरी बहन उन्हें फोर्टविन का डोज़ दे देती।
पिताजी का दफ्तर जाना छूट गया था। सब मान बैठे थे कि वो बीमार है। उनके पेट में दर्द उठता है, यही उनकी बीमारी है। इंजेक्शन लगता है, यही उनका इलाज़ है। हमें उम्मीद थी कि एक दिन पिताजी का इंजेक्शन लेना बंद हो जाएगा। पर ऐसा नहीं हुआ, बल्कि इंजेक्शन की गिनती बढ़ती जा रही थी। वो तो एक दिन हमारे एक रिश्तेदार घर आए। उन्होंने पिताजी को इस तरह इंजेक्शन लेते देखा तो हैरान रह गए। वो रैनबैक्सी कंपनी में ही नौकरी करते थे। उन्हें हैरानी हुई कि हम उन्हें किससे पूछ कर इतनी सुइयां लगा रहे हैं। हमने बताया कि डॉक्टर ने लिख कर दिया है। हमारे रिश्तेदार ने माथा ठोक लिया। कहने लगे कि तुम्हारे पिताजी को ड्रग की लत लग गई है। यह सुई ऑपरेशन के बाद बहुत सीमित मात्रा में दर्द कम करने के लिए दी जाती है।
आज पिताजी की बीमारी यही सुई बन गई है। यह दवा तो है, लेकिन इसके अधिक इस्तेमाल से आदमी को इसकी लत लग जारी है। कायदे से दवा बेचने वाले को ये दवा तुम्हें देनी ही नहीं चाहिए। पहली गलती तो डॉक्टर की है कि उसने यह लिख कर दिया। दूसरी गलती दवा बेचने वाले की है। और उससे बड़ी गलती तुम लोगों की समझ की है कि तुमने इंजेक्शन देना सीखा और इन्हें लत लग गई। फिर उन्होंने ही सुझाया कि हमें उन्हें ये दवा देनी बंद करनी होगी। वो ज़ोर-ज़ोर से चीखेंगे, चिल्लाएंगे। उन्हें पानी भर कर सुई देनी होगी। शुरू में डोज़ कम करना होगा, बाद में एकदम बंद करना होगा।
मेरा यकीन कीजिए, बहुत मुश्किल से हम ऐसा कर पाए। पिताजी उस दवा को पाने के लिए तड़प उठते थे। कई महीनों की कोशिश के बाद वो इस दवा से आज़ाद हो पाए। मैंने दवा लेने और दवा नहीं लेने की उनकी पीड़ा को बहुत करीब से महसूस किया। आज भी जब मैं उनकी स्थिति के विषय में सोचता हूं तो रूह कांप जाती है। मेरे एक दोस्त के बेटे को पता नहीं किसने हाई स्कूल में ड्रग की लत लगवा दी। बहुत पुरानी बात है। करीब पंद्रह साल बीत गए। मेरे मित्र का पूरा परिवार तबाह हो गया है। उस लड़के को न जाने कितनी बार अस्पताल में भर्ती कराया गया। उसे इस लत से मुक्ति दिलाने की कोशिश की गई। पर उसकी आदत नहीं छूटी। मैं ज्यादा विस्तार में नहीं जाना चाहता पर एक छोटी सी लत ने पूरे घर को बर्बाद कर दिया। मेरा मित्र बताता है कि उसके बेटे ने सौ बार वादा किया कि अब वो ड्रग नहीं लेगा, पर विल पावर कमज़ोर होने की वज़ह से वो हर बार चूक जाता है।
आज आलम ये है कि अगर उसे समय पर डोज़ न मिले, तो वो घर में मारपीट करने लगता है। उसे डी एडिक्शन सेंटर में भर्ती कराया गया, पर वो ठीक नहीं हुआ। मैं बहुत बार उस व्यक्ति को कोसता हूं जिसने अपने थोड़े से फायदे के लिए उसे इस नर्क में घसीटा। मैं उस परिवार की पीड़ा को बहुत शिद्दत से समझता हूं। मैं जानता हूं कि वो सभी किस दुर्गति से गुजर रहे हैं। मेरे पिताजी तो गलती से इसके शिकार हुए थे और जब उन्हें सच पता चला तो उन्होंने खुद भी बहुत मेहनत की इस इंजेक्शन को छोड़ने की। पर ज्यादातर लोग ऐसा नहीं कर पाते।
कल मैंने फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ देखी। इस फिल्म को देख कर मुझे खुद के पत्रकार होने पर अफसोस हुआ। मुझे अफसोस हुआ कि मैं कम से कम सौ बार पंजाब गया होऊंगा। मैंने न जाने कितने लोगों को ड्रग की चपेट में फंसे हुए देखा है। मैं पहली बार 1988 में पंजाब गया था। उन दिनों पंजाब आतंकवाद की गिरफ्त में था। पर मेरा यकीन कीजिए कि सचमुच पंजाब उन दिनों इतने बुरे हाल में नहीं था, जितने बुरे हाल में आज है। मैंने न जाने कितने युवाओं को मिटते हुए देखा है। पर कभी मेरी कलम पंजाब की इस समस्या पर नहीं चली। लानत है मेरे पत्रकार होने पर।
कल जब मैंने फिल्म देखी, तो मेरी रूह फिर कांप उठी। फिल्म कैसी है, इसकी चर्चा मैं नहीं करूंगा। पर विषय बहुत ख़तरनाक है। यह सत्य है कि पंजाब नशे में उड़ रहा है। ये सत्य है कि वहां के नौजवानों को साजिशन इस नर्क में घसीटा जा रहा है। मुझे नहीं पता कि इसका राजनीतिक फायदा क्या है, पर यह भी सत्य है आज पंजाब ड्रग की वज़ह से पूरे देश का आंसू बना बैठा है। हमारे एक रिश्तेदार ने समय रहते हमें आगाह करके मेरे पिताजी को बचा लिया। मेरे पिताजी बच गए, क्योंकि हमने दुतरफा विल पावर दिखाया। हमने भी और पिताजी ने भी।
मेरे दोस्त के बेटे का विल पावर कम है, इसलिए परिवार की लाख कोशिशों के बाद भी वो नशा करना नहीं छोड़ नहीं पा रहा। पंजाब में भी इसी विल पावर की दरकार है। फिल्म बनाने वाले ने मेरे रिश्तेदार की भूमिका निभाकर उस सच को सामने रख दिया है। अब ज़रूरत है वहां के लोगों को अपना विल पावर दिखाने की और वहां के हुक्मरानों को अपना विल पावर दिखलाने की। यह कोशिश दुतरफा होगी, तभी इस समस्या से मुक्ति मिलेगी।
मैं कल से यही सोच कर परेशान हूं कि एक फिल्मकार जिसे पर्दे पर दिखा रहा है, उसे हम पत्रकार होने के बाद भी कभी क्यों उतनी शिद्दत से नहीं उठा पाए। यह हमारा फर्ज़ था। हम अपने फर्ज़ से चूके, इसी का अफसोस है। क्या हम पंजाब के रिश्तेदार नहीं? क्या हमें लोगों को आगाह नहीं करना चाहिए था? यही सोच कर मैं रात भर खुद को कोसता रहा। अफसोस करता रहा।
टीवी टुडे समूह में वरिष्ठ पद पर कार्यरत संजय सिन्हा के एफबी वॉल से.