संजय सिन्हा-
बेटा बड़ा हो गया है। शादी की उम्र हो गई है। कई जगह से शादी के प्रपोजल भी आने लगे हैं। जो भी फोन आता है, पत्नी ही उनसे बात करती है। पर कल जब वो किसी से बात कर रही थी तो मेरे कान उसकी बातों पर अटक गए। पत्नी बता रही थी कि बेटा दिल्ली आईआईटी से पढ़ाई पूरी करके मल्टीनेशनल कंपनी में है। इसके बाद उसने कहा कि पति एक प्राइवेट कंपनी में अच्छी पोस्ट पर हैं। मेरा माथा ठनका। वो सीधे-सीधे क्यों नहीं कह रही कि पति न्यूज़ चैनल में पत्रकार हैं, एडिटर हैं।
जब पत्नी ने फोन रख दिया तो मैंने उसे टोका। “तुमने मेरे बारे में ऐसा क्यों कहा कि पति एक प्राइवेट कंपनी में अच्छी पोस्ट पर हैं, बताई क्यों नहीं कि पति जर्नलिस्ट हैं?
पत्नी चौंकी। उसे उम्मीद नहीं थी कि मैंने उसकी बात सुन ली है। वो थोड़ा झेंपी, फिर उसने जो कहा उसके बाद से मैं लगातार झेंपा बैठा हूं।
उसने कहा, “संजय, मैं जिन लोगों से बात कर रही हूं वो लोग पत्रकारिता की दुनिया को नहीं जानते। उनके लिए पत्रकार का मतलब वही है, जो आम लोग सोचते हैं।”
“आम लोग क्या सोचते हैं?”
“छोड़ो न! तुम भी कहां इस छोटी-सी बात को लेकर बैठ गए। चाय पियोगे?”
संजय सिन्हा समझ रहे थे कि पत्नी सवाल टाल रही है। वो खुद एक पत्रकार रही है। उसने भी इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन से इंगलिश जर्नलिज्म की पढ़ाई की है। दस साल इंडियन एक्सप्रेस में नौकरी की है। ये सही है कि बहुत जल्दी पत्रकारिता से उसका दिल भर गया और उसने समय निकाल कर एमबीए की पढ़ाई पूरी की। इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी (आईएमटी) में दाखिला पाकर उसने फाइनेंस में एमबीए किया और अलग विधा में चली गई। लेकिन उसे तो पत्रकारिता के बारे में सब पता है। फिर वो क्यों छिपा रही थी कि उसका पति पत्रकार है?
मैं दुविधा में था। मैं तो लोगों को बढ़ा-चढ़ा कर बताता हूं कि मैं टीवी जर्नलिस्ट हूं। दूर-दूर तक मेरी पहचान है। नेता-अभिनेता मेरे दोस्त हैं। और मेरी पत्नी उन अनजान लोगों से मेरे काम के बारे में बताने से शर्मा रही है? मुझे अच्छा नहीं लग रहा था पत्नी का ये छिपाना कि पति पत्रकार है। संजय सिन्हा चोर नहीं हैं। किसी राजनैतिक पार्टी के दलाल भी नहीं हैं। फिर क्या पर्देदारी? आज तक हमारे घर में एक गिफ्ट तक नहीं आया, फिर वो क्यों मेरा पत्रकार होना छिपा रही है?
मैंने बहुत बार पूछा तो उसने धीरे से कहा, “संजय, बहुत से लोगों के मन में पत्रकारों को लेकर अच्छी छवि नहीं है। कुछ लोग पत्रकारिता को दोयम दर्जे समझने लगे हैं। लोग पत्रकारों को झगड़ालू, चापलूस और सस्ता मानने लगे हैं। तुम ऐसे नहीं हो। तुम मेरी बातों का बिल्कुल गलत अर्थ मत निकालना संजय। पर मैं शादी के लिए जिन लोगों से बात कर रही हूं वो लोग पत्रकारिता की दुनिया से अनजान हैं। वो जितना समझते हैं उसके हिसाब से उनके मन में पत्रकारों को लेकर अच्छी छवि नहीं।
मैंने एक-दो जगह बातचीत में यूं ही मीडिया की चर्चा की थी तो सामने वाले ने बहुत हिकारत से कहा कि आजकल न्यूज़ चैनल में क्या होता है? लोग शान से बताते हैं कि वो अब न्यूज़ चैनल नहीं देखते। बहुत से लोग जर्नलिस्ट को उस नज़र से नहीं देखते, जिन नज़रों से देखना चाहिए।”
पत्नी बोल रही थी। मेरे कान सुन्न हो रहे थे।
तीन दशक पहले जब मैं पत्रकारिता की नौकरी में आ रहा था तो मेरी दादी ने मुझे टोका था। “पत्रकार बनोगे? शादी के लिए कोई लड़की नहीं मिलेगी। और मिल जाएगी तो खिलाओगे क्या?” दादी पत्रकारों को दो टके का मानती थीं। मुझे नहीं पता कि उनके मन में पत्रकारों को लेकर इतनी नफरत क्यों थी लेकिन मेरे पत्रकार बनने के फैसले से वो सख्त नाखुश थीं। उन्हें लगता था कि उनके पोते को आईएएस, आईपीएस बनना चाहिए। या कोई बिजनेस करे। कुछ न हो तो बैंक, इंश्योरेंस की नौकरी भी चलेगी। लेकिन लोगों की रिपोर्ट लिखना भी कोई काम हुआ?
दादी के समय में पत्रकार भ्रष्ट नहीं होते थे, गरीब होते थे। पत्रकारों को लोग हिकारत से नहीं दया से देखते थे। पर अब तो लोग हिकारत से देखने लगे हैं। मेरी ही पत्नी मेरा पत्रकार होना छिपा रही थी।
मुझे लगता है पत्नी ठीक ही कर रही थी। उसे छिपाना ही चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में हमने जो बोया है उसकी फसल हमें ही काटनी है। हमारे पीछे अब जो विशेषण लगाया जाने लगा है उसके ज़िम्मेदार हम खुद हैं। हम शर्मिंदगी के ही काबिल हैं। हम जब तक दया के पात्र थे दुखद नहीं था। लेकिन अब तो हम सिर्फ शर्मिंदगी के पात्र हैं। पहले जब हम हवाई चप्पल में भी लोगों से मिलते थे, नज़रें तनी होती थीं। आज पांव में हज़ारों रुपए के जूते होते हैं, बड़ी-सी गाड़ी भी होती है लेकिन नज़रें झुकी हुई हैं।
हम जिस समय को जी रहे हैं उसमें हमारा सारा किया मिट गया। हमने सोचा ही नहीं कि हम जिस गली में घुस रहे हैं, उसमें सिवाय शर्मिंदगी के कुछ नहीं। पूरा पेशा ही हमने छिपाने लायक बना दिया है। अब बेटे का बाप क्या करता है, मां बताने से संकोच करने लगी है।
यही होना था। हमने जो किया है, उसके बाद छिपाने के सिवा कुछ बचा ही नहीं है। कई ट्रकों के पीछे लिखा पढ़ता था – बुरी नज़र वाले तेरा मुंह काला। अब तो हमें अपना मुंह ही…।
shrikant asthana
September 13, 2021 at 12:36 am
यही सच है। मुश्किल यह कि कथित रूप से पत्रकारिता कर रहे तमाम लोगों को अभी इन बातों से कोई लेना-देना नहीं है।