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कर्नाटक विधानसभा ने बेंगलूरु के दो पत्रकारों को साल-साल भर की सजा दे दी

Congress + BJP = पत्रकारों पर हमला : कर्नाटक विधानसभा ने बेंगलूरु के दो पत्रकारों को साल-साल भर की सजा दे दी है और 10-10 हजार रु. जुर्माना कर दिया है। यह सजा विधानसभा की एक विशेषाधिकार समिति की सलाह पर अध्यक्ष ने दी है। विधानसभाएं ऐसी सजा जरुर दे सकती हैं।

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Congress + BJP = पत्रकारों पर हमला : कर्नाटक विधानसभा ने बेंगलूरु के दो पत्रकारों को साल-साल भर की सजा दे दी है और 10-10 हजार रु. जुर्माना कर दिया है। यह सजा विधानसभा की एक विशेषाधिकार समिति की सलाह पर अध्यक्ष ने दी है। विधानसभाएं ऐसी सजा जरुर दे सकती हैं।

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पहले भी कुछ विधानसभाओं ने ऐसी सजा दी हैं लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि अदालतों का यह अधिकार विधानसभाओं और संसद को क्यों दिया गया है ? संविधान ने यह अधिकार विधानपालिकाओं को इसलिए दिया है कि कोई बाहरी तत्व उनके कानून-निर्माण के काम में बाधा न पहुंचा सके। जन-प्रतिनिधि खुलकर बोल सकें। कोई उन्हें डरा-धमका न सके। उन्हें कोई ब्लेकमेल न कर सके। सदनों पर कोई हमला न कर सके। वे कानून-निर्माण का काम आराम से कर सकें।

अब कोई बताए कि जिन दो संपादकों को सजा सुनाई गई है, क्या उन्होंने ऐसा कोई काम किया है, जिससे विधानसभा के संचालन में बाधा पड़ी है ? क्या उन्होंने विधानसभा भवन या सदन पर कोई हमला बोला है, क्या उन्होंने दर्शक गैलरी में बैठकर सदन में हंगामा बचाया है, क्या उन्होंने किसी विधानसभा सदस्य का अपहरण कर लिया है, क्या उन्होंने किसी सदस्य को कोई धमकी दी है ? बिल्कुल नहीं। संपादक रवि बेलगिरि और अनिल राज का दोष इतना है कि उन्होंने दो विधायकों और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष के खिलाफ कुछ लेख लिखे थे। जिस कमेटी ने इन्हें सजा सुनाई है, उसमें वह पूर्व-अध्यक्ष भी हैं। याने आप खुद मुकदमा करें और खुद ही फैसला भी करें। मजे की बात यह हुई कि जिन दो विधायकों की आलोचना उन लेखों में की गई है, उनमें से एक कांग्रेसी है और दूसरा भाजपाई है।

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हो सकता है कि वे लेख अपमानजनक हों, बेबुनियाद हों, तर्क और तथ्यहीन हों लेकिन इस मामले में विधानसभा को घसीटने की क्या जरुरत है ? यदि विधायकों को पीड़ा है तो वे अदालत में जाएं और मानहानि का मुकदमा चलाएं। अपने व्यक्तिगत मान-अपमान के मामले का विधानसभा से क्या लेना देना है ? यदि विधानसभाओं और संसद का दुरुपयोग पत्रकारों के खिलाफ इस तरह होने लगा तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही नष्ट हो जाएगी। हमारी विधानपालिकाएं तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सबसे बड़ी रक्षक होनी चाहिए। पत्रकारों से भी आशा की जाती है कि वे नेताओं से भी ज्यादा जिम्मेदारी का सबूत देंगे। कोई भी बात बिना प्रमाण नहीं लिखेंगे।

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