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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रेडार ज्ञान पर आज कोई फॉलोअप नहीं

डिवाइडर इन चीफ पर भी अखबारों में चर्चा नजर नहीं आ रही है; अमर उजाला में टॉप बॉक्स है, “अलवर दुष्कर्म कांड पर उत्तर प्रदेश में दलित वोट के लिए सियासी जंग” और नभाटा में लीड है “कांग्रेस ने जवानों के सिर कटवाए अब वोट कटवा रही है”

नवभारत टाइम्स का पहला पन्ना – शीर्षक उनके लिए कितना निर्मम है जिनके करीबी मारे गए

आज के अखबारों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रडार ज्ञान पर कोई फॉलोअप नहीं है। इसी तरह, मशहूर पत्रिका टाइम में प्रधानमंत्री को इंडियाज डिवाइडर इन चीफ (‘भारत के प्रमुख विभाजनकारी’) कहने वाली रिपोर्ट के लेखक आतिश तासीर को पाकिस्तानी कहने पर उनकी मां, मशहूर पत्रकार तवलीन सिंह ने कहा है कि वे उसके लिखे से असहमत हैं पर वह पाकिस्तानी नहीं है। इससे इस बात पर चर्चा होने की बजाय की देश में ही नहीं, मां बेटे की राय भी अलग हो सकती है, तवलीन सिंह को यह याद दिलाया जा रहा है कि वे खुद मोदी की समर्थक रही हैं। कुल मिलाकर, अखबारों के अनुदार या दकियानूसी रुख से जनमत का बुरा हाल है पर अखबार बेपरवाह हैं। और अपनी संपादकीय आजादी का भरपूर उपयोग कर रहे हैं।

वरना आज इस बात पर चर्चा होनी चाहिए थी कि प्रधानमंत्री ने क्या वाकई रेडार और बादल के संबंध में अपने अज्ञान या रॉ (कच्चे) ज्ञान के दम पर विशेषज्ञों की राय के खिलाफ बालाकोट हमले का आदेश दिया था? क्या विशेषज्ञों और जानकारों में किसी ने उन्हें बताया नहीं कि उनकी समझ गलत है। और बादलों में हवाई हमले का क्या नफा-नुकसान हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि इसपर सोशल मीडिया पर खूब चर्चा हुई लेकिन अखबारों में इसपर गंभीर चर्चा नहीं है। यही नहीं, रविवार शाम तक सरकार या भाजपा ने टेलीविजन प्रसारण को ना गलत बताया था ना उसकी सत्यता को कोई चुनौती दी थी। उल्टे, भाजपा ने इससे संबंधित ट्वीट को डिलीट कर दिया है। ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री के टेलीविजन इंटरव्यू को प्रचारित करने वाला ट्वीट कोई आम कार्यकर्ता डिलीट कर देगा।

इसके बावजूद इन सारी बातों की अखबारों में कोई चर्चा नहीं है। हिन्दी अखबारों में कल के मतदान से संबंधित आंकड़े और विवरण ही छाए हुए हैं। ये सब चुनाव आयोग मुफ्त में उपलब्ध करवाता है। टेलीविजन पर और आयोग के वेबसाइट पर ज्यादातर सूचनाएं किसी के लिए भी उपलब्ध हैं। ऐसे में कुछ अलग करने की कोशिश में नवभारत टाइम्स ने प्रधानमंत्री के बहुत ही घटिया दावे को लीड बनाया है। शीर्षक है, “कांग्रेस ने जवानों के सिर कटवाए अब वोट कटवा रही है”। चुनाव में सेना और सैनिकों का नाम नहीं लेने का नियम चुनाव आयोग ने ही बनाया था। प्रधानमंत्री मोदी ने सेना के नाम पर वोट मांगे, चुनाव आयोग ने उसे आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन नहीं माना और अब प्रधानमंत्री का यह बयान और उसका शीर्षक बनना। सवाल उठता है कि जवानों की हत्या या मौत को इस तरह वोट लेने के लिए भुनाना सही हो या गलत – जो मारे गए उनके बारे में कौन सोचगा? और राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में उनके करीबियों के जख्म इस तरह कुरेदने का क्या मतलब है?

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आपको याद होगा कि पिछले चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने की जरूरत है, लव लेटर लिखने से काम नहीं चलेगा। एक के बदले पाकिस्तान से 10 सिर लाने की बात भी थी लेकिन शुरू में क्या हुआ और फिर सर्जिकल स्ट्राइक तथा उसके प्रचार के बावजूद सीमा पर मरने वाले जवानों की संख्या कम नहीं हुई और पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों के मारे जाने का बाद इसकी जांच कराने, जिम्मेदारी तय करने और जवानों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की बजाय पाकिस्तान के साथ युद्ध का माहौल बनाया जा रहा है और चुनाव लड़ने वाला दल अपने लाभ के लिए यह सब करे – अखबारों को उनका सहयोग क्यों करना चाहिए? हो सकता है अखबारों को लगता हो कि यही खबर है तो इससे भी माना जा सकता है पर इसमें यह देखना दिलचस्प है कि वे कौन सी खबर नहीं कर रहे हैं।

आज ऊपर मैंने दो खबरों की चर्चा की है। ये खबरें अखबारों में पहले पन्ने पर प्रमुखता से तो नहीं हैं – आप अपने अखबार में देखिए कि ऐसी खबरें हैं भी कि नहीं। क्या बालाकोट हवाई हमले के मामले में प्रधानमंत्री का रेडार ज्ञान और विशेषज्ञों की राय को नजरअंदाज करना सामान्य बात है। क्या आप इस बारे में जानना नहीं चाहते हैं कि यह सही है भी कि नहीं? क्या आपको पता है कि सत्तारूढ़ दल ने जब इंटरव्यू से संबंधित ट्वीट डिलीट कर दिया तो पार्टी ने इसका कारण क्या बताया? द टेलीग्राफ ने आज इस खबर को लीड बनाया है। इसके मुताबिक, प्रधानमंत्री का यह बयान अनजाना ही रह जाता अगर भाजपा के आधिकारिक ट्वीटर हैंडल ने इसके अंश शेयर नहीं किए होते। इस पर सवाल उठे तो ट्वीट डिलीट कर दिया गया। भाजपा आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने इस बारे में पूछे जाने पर ना तो डिलीट किए जाने की पुष्टि की और ना खंडन किया। कहा कि पूरा वीडियो उपलब्ध है। जाहिर है, उस अंश को ट्वीट करने वाले को भी नहीं समझ में आया होगा कि मामला कितना गड़बड़ है।

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अखबार ने आगे बताया है, मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावेडकर से मोदी के बताए गलत तथ्यों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा, “जहां तक बालाकोट का संबंध है, यह 100 प्रतिशत सफल कहानी है …. इसके लिए लोग प्रधानमंत्री का विरोध करें यह पूरी तरह गलत है। वे वायु सेना को ऐसा हमला करने की अनुमति देने वाले पहले प्रधानमंत्री हैं।” आप समझ सकते हैं कि सवाल कुछ है, जवाब कुछ और आ रहा है। इसीलिए बाकी अखबारों ने ना खबर छापी ना खंडन। प्रेस कांफ्रेंस तो उनलोगों के लिए थी जिन्होंने खबर छापी थी। पर जो खबर छापते हैं वे ऐसे जवाब से संतुष्ट नहीं होते और नहीं छापने वाले वैसे ही संतुष्ट हैं। संबंधित दूसरे लोगों से बात करने और उनकी राय देने का रिवाज तो हिन्दी अखबारों में रहा ही नहीं। ज्यादातर अंग्रेजी वाले भी अब उसी रास्ते पर हैं।

अब डिवाइडर इन चीफ वाले मामले पर आता हूं। शनिवार, 11 मई को सिर्फ दैनिक भास्कर ने यह खबर पहले पन्ने पर छापी थी। क्या अखबारों को एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका की इतनी गंभीर रिपोर्ट की चर्चा नहीं करना चाहिए? क्या एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में प्रधानमंत्री को डिवाइडर इन चीफ कहे जाने पर इतना कहना पर्याप्त है कि लेखक पाकिस्तानी है? द टेलीग्राफ ने आज इसपर भी एक विस्तृत खबर छापी है। अखबार ने लिखा है, मदर्स डे पर एक मां यह कहने पर मजबूर हुई कि उनका बेटा पाकिस्तानी नहीं है। भाजपा और भाजपा समर्थक अनपढ़, कुपढ़ और अर्धसाक्षर तो पहले से कह रहे थे कि टाइम की रिपोर्ट का लेखक पाकिस्तानी है पर कल मदर्स डे के दिन हुआ यह कि मशहूर अभिनेता कबीर बेदी ने एक ट्वीट किया।

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उन्होंने लिखा, “दुनिया की सबसे मशहूर पत्रिका कैसे प्रधानमंत्री मोदी पर एक पाकिस्तानी द्वारा बेहद पूर्वग्रहपूर्ण हमले को प्रकाशित कर सकती है जबकि भारत में चुनाव चल रहे हैं।” इसपर तवलीन सिंह ने ट्वीट किया, “कबीर, वह जो लिखता है उससे असहमत हूं। पर आप जानते हैं कि वह पाकिस्तानी नहीं है।” इससे लगता है कि कबीर बेदी और तवलीन सिंह दोनों एक दूसरे तो जानते हैं और यह भी कि आतिश उनका बेटा है। और पाकिस्तानी नहीं है। पाठकों में जो नहीं जानते उन्हें बता दूं कि आतिश तासीर के पिता पाकिस्तानी पंजाब के गवरनर रहे थे और उनकी हत्या हो चुकी है। आतिश का जन्म लंदन में हुआ था। तवलीन सिंह की पति से नहीं बनी और आतिश ज्यादातर समय दिल्ली में अपने नाना-नानी के साथ रहे है। तवलीन सिंह ने आतिश को पहले पाकिस्तानी कहे जाने का जवाब नहीं दिया था पर कल वे चुप नहीं रहीं।

अखबार ने अपनी इस खबर के साथ एक ट्वीटर उफयोगकर्ता द्वारा पोस्ट कई गई उस लाइन का भी जिक्र किया जो 1946 में पैस्टर मार्टिन निमोलर ने युद्ध के बाद स्वीकार किया था जो बाद में नाजी राज में जर्मन बुद्धिजीवियों की कायरता पर कविता बन गई थी। कविता शुरु होती है, फर्स्ट दे केम (पहले वे आए) और अंतिम लाइन है, देन दे केम फॉर मी (और फिर वे मेरे लिए आए) और तब मेरे लिए बोलने वाला कोई नहीं था। टेलीग्राफ ने लिखा है कि इससे पहले और लोगों के अलावा भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने भी शनिवार को कहा था कि एक पाकिस्तानी नागरिक मोदी जी को डिवाइडर (बांटने वाला या विभाजक – फूड डालो राज करो की तर्ज पर) कहा और राहुल गांधी ने ट्वीट किया।

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अखबार ने लिखा है कि इसपर बात करने के लिए संबित पात्रा से संपर्क करने की कोशिशें नाकाम रहीं। टाइम ने लिखा है, “क्या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र मोदी सरकार को एक बार फिर पांच साल का कार्यकाल दे सकता है”। भारत में मीडिया इस पर चर्चा नहीं करके यह बता रहा है कि अलवर दुष्कर्म कांड पर उत्तर प्रदेश में दलित वोट के लिए सियासी जंग चल रही है (यह विभाजन को विस्तार देना नहीं है तो और क्या हो सकता है)। अमर उजाला ने इसपर एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का आरोप छापा है, मोदी दलित बेटी से दुष्कर्म पर माया के आंसू घड़ियाली, समर्थन वापस क्यों नहीं। दूसरी ओऱ मायावती का जवाब है, सियासत न करें मोदी, रोहित वेमुला व ऊना कांड पर खुद दें इस्तीफा।

यह स्थिति तब है जब उत्तर प्रदेश में ही एक भाजपा विधायक पर बलात्कार का आरोप है और उनकी शिकायत तब तक नहीं सुनी गई जब तक लड़की के पिता की हत्या की हत्या नहीं हो गई। इसके बाद मामले की जांच हुई तो विधायक गिरफ्तार हुए, जेल में हैं पर उन्हें पार्टी से नहीं निकाला गया है। दूसरी ओर मोदी जी की यह अपेक्षा है कि मायावती राजस्थान सरकार से समर्थन वापस ले लें जबकि रोहित वेमुला ने भले आत्महत्या की थी पर उसे सांगठनिक हत्या कहा जाता है और असल में उसे आत्म हत्या के लिए मजबूर कर दिया गया था। जहां तक टेलीविजन कवरेज का सवाल है, दैनिक भास्कर ने एक खबर छापी है (अंदर के पन्ने पर) एक से 28 अप्रैल तक नरेन्द्र मोदी ने 64 और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 65 रैलियां कीं पर मोदी 722 घंटे टीवी पर दिखे जबकि राहुल सिर्फ 251 घंटे।

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वरिष्ठ पत्रकार और अनुवादक संजय कुमार सिंह की रिपोर्ट।

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