कोरोना महामारी : एक प्रस्ताव — इस वैश्विक आपदा के भीतर से पैदा होती एक मानवीय सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक विकल्प की अनिवार्यता!
मित्रों,
आज पूरी दुनिया एक दीर्घकालीन संघर्ष का मैदान बन गई है और पहली बार सभी को वसुधैव कुटुंबकम् की जरूरत समझ में आ रही है। यह संघर्ष इस मामले में अनूठा है कि यह पूरी दुनिया को बचाने के लिए है। हालांकि इस समय पूरी दुनिया विनाशकारी युद्धों की तैयारी में और विश्व व्यापार में हर देश अपना दबदबा बढ़ाने के जोड़-तोड़ में लगा है। यही इस दौर का मुख्य विरोधाभास है, दुनिया इस काम के लिए बिल्कुल ही तैयार नहीं थी, ना सोच के धरातल पर और ना ही व्यवहारिक तैयारी के धरातल पर। उदारवाद के सनक में कल्याणकारी राज्य के खंडहरों को बेरहमी से गिराया जा रहा था और उसकी जगह कारपोरेटी लूट की मीनारें खड़ी की जा रही थी। किसी देश की उन्नति का पैमाना यह बना दिया गया था कि वह अपनी खुली नीतियों से कितने अरबपति- खरबपति पैदा करता है, ना कि यह कि उसके सभी नागरिकों के सम्मानजनक जीवन की जरूरतें किस हद तक पूरी हो रही हैं। सभी को उच्चस्तरीय, निशुल्क चिकित्सा की सुविधा कैसी है, सभी को भोजन की उपलब्धता का स्तर क्या है, आर्थिक असमानता और बेरोजगारी को खत्म करने के लिए क्या किया जा रहा है, श्रमिकों- किसानों के जीवन स्तर में कोई बदलाव है या नहीं, अच्छी शिक्षा की सुविधाओं का विस्तार हो रहा है कि नहीं, प्रकृति की हिफाजत के लिए ठोस प्रयास किए जा रहे हैं या नहीं, दूसरे देशों के साथ संबंधों में सुधार हो रहा है या नहीं आदि?
जन जीवन से जुड़े इन सवालों पर अगर हमने और हमारी हुकूमतों ने ठीक से ध्यान दिया होता तो आज हम इस महामारी के खिलाफ बहुत ही अच्छी स्थिति में होते। फिर भी अच्छी बात यह है कि पूरी दुनिया के नागरिक अपनी पहलकदमी पर अपनी मूल मानवीय और सामाजिक प्रकृति से प्रेरित होकर इस संघर्ष में अपनी भूमिका निभाने को आगे आ रहे हैं, एक दूसरे की मदद कर रहे हैं और अपने जीवन को दांव पर लगा रहे हैं। इस आपदा ने लोगों को फिर एक बार जीवन का वास्तविक उद्देश्य दिया है और उसे पूरा करने का अवसर दिया है। हालांकि कुछ लोग अभी भी अपनी क्षुद्रता और कायरता के प्रदर्शन मेंलगे हैं लेकिन खुले दिल दिमाग वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। मानवता की यह जो साझा स्प्रिट पैदा हो रही है, वह निश्चित रूप से राजसत्ता के विनाशकारी, मानव द्रोही नीतियों को बदलने के लिए भी आगे आएगी।सभी देख रहे हैं कि इस कठिन समय में कौन समाज के काम आ रहा है और कौन गाल बजा रहा है, छुट्टियों का आनंद ले रहा है । इस कठिन दौर में यह काम करने वाले लोग, जिनका मकसद पूरी संपत्ति साम्राज्य खड़ा करना या किसी व्यक्ति या कौम को पराजित करना नहीं है, वे जब आगे आएंगे तो बहुत कुछ बदलेगा। हमें इस स्पिरिट को जिंदा रखना है।
यह महामारी ऐसे दौर में आई है कि पूरा पूंजीवादी विश्व आर्थिक-राजनीतिक महामारी में बुरी तरह फंसा हुआ था और हर देश में इसके इलाज के लिए अंध-राष्ट्रवादी, स्वेच्छाचारी और निरंकुश हुकूमत के नुस्खे आजमाए जा रहे थे। अपने देश सहित पूरी दुनिया में दक्षिण पंथ की राजनीति को आगे बढ़ाया जा रहा था। श्रमिकों, किसानों, युवाओं और छोटी पूंजी वालों के आर्थिक हक छीन कर कॉरपोरेट कर्जदारों को अनुदान दिया जा रहा था, फिर भी गाड़ी 2 पटरी पर नहीं आ रही थी। कॉरपोरेट द्वारा लगातार बढ़ते राहत पैकेज की मांग, टैक्स छूट की मांग, कर्ज को बट्टे खाते में डालने की मांग, श्रम कानूनों को खत्म करने और नए भूमि-अधिग्रहण कानून आदि की मांग के तहत अपने देश में एक बेहद निर्मम स्वेच्छाचारी राज कायम करने पर तेजी से काम चल रहा था।
इसी प्रक्रिया के तहत राजसत्ता के विभिन्न अंगों की सापेक्ष स्वायत्तता का अंत करके उन्हें पीएमओ के एकीकृत कमांड में लाया जा चुका था। चुनाव आयोग से लेकर उच्च न्यायालयों तक को इस अतिकेंद्रीकृत सत्ता के साथ नत्थी कर दिया गया। विपक्ष का लगभग खात्मा करके संसद और विधानसभाओं को शोपीस में बदल दिया गया और अब बड़े पैमाने पर सरकारी उद्यमों, खदानों, जमीनों, सेवाओं, परिवहन, शिक्षा, चिकित्सा आदि को कॉर्पोरेट मुनाफाखोरी के लिए खोलने और बेचने का खेल चल रहा था। सरकार स्वयं को सरकार के रूप में भंग करके खुद को सीईओ और देश को एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना दिया। आज देश में लोकतंत्र का उतना ही महत्व है जितना एक कंपनी के भीतर होता है । इस कंपनी की निगाह में देश ,उस पर बसने वाले लोग, श्रमिक, किसान, जंगल, नदियां, धरती आदि सबकुछ संसाधन हैं और कंपनी को उसका दोहन करने की पूरी आजादी और अधिकार है।
अब हमारे सामने कुछ जरूरी सवाल पैदा होते हैं। एक तो यह कि देश में विपक्ष की राजनीति इतनी कमजोर कैसे हो गई, दूसरे देश के आजाद नागरिकों ने इस अपमानजनक बदलाव को स्वीकार कैसे कर लिया, तीसरा यह कि इस स्थिति में वाम राजनीति का क्या भविष्य होगा? एक सवाल यह भी बनता है कि इस स्थिति से अपना सब कुछ 3 गवांते जा रहे श्रमिक वर्ग, किसानों नागरिकों के लिए अपनी छीनी जा चुकी नागरिक अधिकारों और राजनीतिक स्वायत्तता या अपने देश को दोबारा वापस पाने का कोई कार्यभार बनता है या नहीं? इसके साथ कुछ फुटकर सवाल भी हैं देश और दुनिया की राजनीति से जुड़े जिन पर एक समझ बनाने की जरूरत है।
अब हम विपक्षी राजनीति के पराभव को थोड़ा समझने की कोशिश करें। हमारे यहां की राजनीति ने नागरिक चेतना की जगह हमेशा पहचान से जुड़ी सामुदायिक चेतना को महत्व दिया, इसके साथ आर्थिक मॉडल के सवाल पर समाजवादी सोच का प्रभाव भी काफी था। विपक्ष को अपनी राजनीति का वैचारिक आधार हमेशा ही वाम राजनीति से मिलता था। 1980 के पहले तक हम आर्थिक असमानता और अवसर की असमानता को समाज की जातीय- धार्मिक असमानता के साथ जोड़ कर देख सकते थे लेकिन इसके बाद तस्वीर थोड़ी बदलनी शुरू होती है और हर जाति- धर्म समूहों के भीतर आर्थिक एवं अवसर की असमानता पैदा होती है। 1990 में देश में खुली पूंजीवादी नीतियों (नवउदारवादी) का दौर शुरू होता है हर तरह की सामुदायिकता और कल्याणकारी राज के ढांचे को छिन्न-भिन्न करते हुए सभी को वैयक्तिक उपभोक्ता में बदलना शुरू करता है। इससे हर तरह के पहचान और उससे जुड़े कानूनी लाभों के बने रहने में एक अनिश्चितता पैदा होती है और इसके जवाब में जातीय- सामुदायिक राजनीति का एक तीखा उभार होता है । आजादी के समय की जातीय- सामुदायिक राजनीति का आधार जहां पर जाति विशेष की गरीब मेहनतकश आबादी थी वहीं पर नए दौर में उसका आधार मध्यवर्ग और सरकारी कर्मचारी थे। इस नए रूप में पूंजीवाद के खात्मे और जाति प्रथा के खात्मे की जगह इसका फायदा उठाने की सोच अधिक थी।
महत्वपूर्ण बात यह थी कि उदारवादी व्यवस्था ने इस नई पहचान की राजनीति को आगे बढ़ाने में मदद की, जाति- धर्म दोनों के आधार पर और बदले में इस राजनीतिक नवउदारवाद ने पुराने उदारवादी आर्थिक ढांचे को तोड़ने में मदद की। इससे पुराने समाज में आर्थिक और कानूनी असमानता तेजी से बढ़ी । यदि हम इस दौर में प्रचलित राजनीति के आधार पर देखें तो हमें जातीय भेदभाव का सवाल प्रमुख दिखेगा, इसके उलट यदि आर्थिक धरातल पर देखें तो यह साफ दिखेगा कि पूरा समाज जाति- धर्म से आगे बढ़कर आर्थिक आधार पर ध्रुवीकरण होता जा रहा है। सभी जाति धर्म के वंचित लोगों की सामाजिक स्थिति एक जैसी होती जा रही थी और उनकी मांगे भी एक जैसी हो रही थी। जातीय नेताओं की स्वेच्छाचारीता, सामाजिक न्याय के मूल्यों की अवहेलना, परिवारवाद और भ्रष्टाचार से निराश लोगों के पास दक्षिणपंथी राजनीति के खेमे में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। कांग्रेस नवउदारवादी नीतियों को इस देश में लागू करने की प्रक्रिया में स्वयं अपना ही राजनीतिक निषेध कर चुकी थी।
इस पूरे दौर में नई नीति का हर जाति धर्म के लोगो में फायदा उठाने वाला एक बड़ा तबका पैदा हुआ और दक्षिणपंथी राजनीति का मजबूत आधार और भागीदार बना। अवसरवादी राजनीति ने तानाशाही के लिए जगह बनाई।नवउदारवाद ने अपना स्वाभाविक राजनीतिक रूप ग्रहण किया।इस राजनीति का एजेंडा है श्रमिको किसानों की कीमत पर कॉरपोरेट को बचाना,उसके लिए विश्व बाज़ार में जगह बनाना और देश के भीतर नागरिक विरोध ,विपक्ष का बल पूर्वक खात्मा।एक तरह का माफिया राज कायम करना।
इस स्थिति में किसी नए जातीय-धार्मिक-क्षेत्रीय जोड़-तोड़ के मार्फत कुछ स्थानीय सफलताएं मिल सकती हैं लेकिन दक्षिणपंथी राजनीतिक सत्ता का विकल्प या मजबूत विपक्ष का बनना मुश्किल है। नव उदारवादी नीतियों के तहत आर्थिक- कानूनी असमानता की जो नई तस्वीर उभरी है उसे राजनीति का मुख्य आधार बनाए बिना किसी प्रभावी विपक्ष की बात करना मुश्किल है और दुर्भाग्य से यह मौजूदा मुख्यधारा की पार्टियों के वश में नहीं है। स्वयं कांग्रेस पार्टी के भीतर चल रहे संघर्ष का यह एक प्रमुख पहलू है। कुछ नई पार्टियों ने इस नए यथार्थ को सतही तौर पर ही एजेंडा बनाया तो उन्हें सफलता भी मिली लेकिन जल्द ही उन्हें दक्षिण पंथ से समझौता करना पड़ा।
इस महामारी से निपटने के लिए व्यवस्था द्वारा जो योजना ली गई और उसका नतीजा सामने आ रहा है, उससे स्पष्ट हो रहा है कि समाज में वास्तविक विभाजन का आधार क्या है और सरकारें किसका पक्ष ले रही हैं। रोजमर्रा की कमाई पर निर्भर करोड़ों श्रमिक (प्रवासी, स्थानीय) निम्न आय वाले निजी क्षेत्र के करोड़ों कर्मचारी उत्पादन, वितरण ,सेवा क्षेत्र, निजी क्षेत्र के करोड़ों श्रमिक, कर्मचारी, छोटे कारोबारी, महिलाएं, आदिवासी आदि को किस तरह सड़कों पर बेसहारा छोड़ दिया गया। इस दौर में इन सभी की जिंदगी भूख और अपमान का ऐसा मार्मिक दृश्य बन गया है कि कोई भी संवेदनशील नागरिक इस सभ्यता पर शर्म से गड़ जाए। इसी बहिष्कृत आबादी के वोट से सरकारें बनती हैं, यही धर्म- जाति के बहकावे में एक – दूसरे से लड़ते हैं,कुछ सिक्को के लालच में चुनावी सभाओं की भीड़ बनते है राजसत्ता और मालिकों का खास आदमी बनने के फेर में अपने ही लोगों की तबाही का जरिया बनते हैं। महामारी के इस दौर में मालिकों ने बिना अपने पराए का भेद किए सभी को दुत्कार दिया। विपक्ष की राजनीति हमेशा उस दौर के उत्पीड़न के सवालों से जुड़कर ही अपने पावों पर खड़ी होती है।आज इस उत्पीड़न ने जाति-धर्म की सीमाओं को लांघकर एक व्यापक रूप ले लिया है, एक श्रमिक वर्गीय रूप ले लिया है।लेकिन दक्षिणपंथी सत्ता की सस्ती लोक प्रियता की नीति और दिखावटी अमीर विरोधी इसकी वर्गीय राजनीति के पैरो में बेड़ियां बनी हुई है। मुख्यधारा की पार्टियों के लिए अपनी वर्गीय पक्षधरता और अपने जातीय राजनीति के मुखोटे को त्याग कर श्रमिक वर्ग, किसानों आदि के पक्ष में ईमानदारी से खड़ा होना मुश्किल है।
यह काम तब और भी मुश्किल हो जाता है जब देश में वाम राजनीति विखरी हुई हो और उसकी समाजिक विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग चुका हो। जैसा कि पहले ही निवेदन किया गया है कि विपक्ष की राजनीति को तो पूरी दुनिया में वैचारिक खुराक हमेशा वाम राजनीति से ही प्राप्त होता है, इसलिए पूरी दुनिया में इसके अस्तित्व को मिटाने और उसे लांक्षित करने का काम निरंतर चलता रहता है।यदि अपने देश के पैमाने पर हम देखें तो दाभोलकर, पंसारे, कलबुर्गी की हत्या, वाम बुद्धिजीवियों को जेल भेजना, उनके खिलाफ मुकदमे कायम करना आदि और इसके अतिरिक्त अर्बन नक्सल, टुकड़े-टुकड़े गैंग, खान मार्केट गैंग, लिबरल और तमाम नए मुहावरों का इस्तेमाल, जेएनयू पर हमला, तमाम उच्च शिक्षण संस्थानों में वाम सोच के लोगों का उत्पीड़न आदि। यह पूरी प्रक्रिया ऊपर से शुरू होती है और व्यवहारिक तौर पर वाम,बुद्धिजीवी और मानवीय सोच के लोगों का उत्पीड़न किया जाता है। न्याय और शांति के पक्षधर लोगों को खुलेआम देशद्रोही घोषित किया जाता है और इनके उत्पीड़न को देशभक्ति का नाम दिया जाता है।
यहां तक कि कई विपक्षी पार्टियों को वाममार्गी कहकर उन्हें देशद्रोहियों का समर्थक बताया जाता है। वाम विचार वाले लोगों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले तमाम शब्द- समानता, न्याय, आजादी, धर्मनिरपेक्षता, शोषण, नैतिकता, मानव अधिकार, वैज्ञानिक सोच आदि को देश के आम राजनीतिक बहसों से गायब करवा के चर्चा को अराजनीतिक व निर्जीव बना दिया जाता है। यदि हम ध्यान दें तो यह साफ दिखेगा कि सरकारें और उनकी पार्टियां निरंतर वाम विचारों के खिलाफ जहर उगलती हैं, यह बात गौरतलब है कि दूसरी पार्टियाँ या विशेषकर पहचान की राजनीति वाली पार्टियाँ भी अपने समय में ऐसा ही किया है, थोड़ा बचते-बचाते। विपक्ष के आवाज के मूल वैचारिक आधार पर सभी ने चोट किया है, इसलिए सभी एक साथ पंगु हुई हैं।
इधर 6-7 वर्षों में हमारे समाज में वाम विरोधी नीति के कारण न्याय-अन्याय नैतिकता-अनैतिकता मानवीयता- अमानवीय,धर्म- उन्माद, हिंसा-अहिंसा लोकतंत्र- तानाशाही, वैचारिकता- विचारहीनता, दया- क्रूरता, सत्य- झूठ,7 नागरिक चेतना- भीड़ चेतना आदि के बीच विभाजन की रेखा को लगभग मिटा दिया गया है और पूरे समाज ,पूरे देश को को एक आत्मघाती स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया गया है। हम सभी गुलामी के एक नए दौर में प्रवेश कर चुके हैं और यह महामारी उसे और पुख्ता करने का जरिया बनेगी।
इस चर्चा का मकसद यह है यदि हम देश में विपक्ष की राजनीति में थोड़ी जान डालना चाहते हैं ताकि मौजूदा हुकूमत की स्वेच्छाचारिता और जुल्म पर कुछ लगाम लगे, लोकतंत्र की प्रस्थापनाओं को बचाना चाहते हैं जो सभी को अपनी बात कहने, विरोध करने और अपने अधिकारों के लिए आंदोलन की आजादी देती है तो सबसे पहले हमें देश की वामपंथी राजनीति को मजबूत बनाने के बारे में सोचना होगा। वामपंथी राजनीति के कमजोर होने के एकमात्र कारण राजसत्ता के हमले ही नहीं हैं बल्कि स्वयं हमारी कुछ बुनियादी कमियां हैं, इसे चिन्हित करना और उसे हल करना हमारा पहला कार्य होना चाहिए। हमारी समस्या राजसत्ता की समझ को लेकर उतनी नहीं है जितनी अपने समाज को समझने और उससे संवाद बनाने को लेकर है। कितने समझदार या बुद्धिजीवी हैं यह उतना मायने नहीं रखता जितना कि समाज में हमारी विश्वसनीयता कितनी है? कई लोगों की यह समझ कि क्रांति के नाम पर कुछ भी जायज है हमें लोगों के प्रति गैरजिम्मेदाराना व्यवहार की आजादी देता है या लोगों का इस्तेमाल करने की दृष्टि देता है और नतीजे के तौर पर पूरे वाम राजनीति की साख प्रभावित होती है। हमें तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद एक दूसरे के प्रति आम नागरिकों के प्रति ईमानदार और मददगार होना चाहिए। वाम राजनीति में नैतिकता का सवाल एक बुनियादी सवाल है और सैद्धांतिक बहसों, मतभेदों की आड़ में इसे अनदेखा करना हमारे लिए भारी पड़ता है। क्रांति कोई षड्यंत्र नहीं है और ना ही किसी संगठन का कॉपीराइट।
वैसे तो वामपंथी होने के कारण हम सामाजिक जीवन के हर पहलू की बेहतर समझ का दावा करते हैं और हमारे देश में इस विचारधारा को मानने वालों की संख्या भी काफी अधिक है फिर भी हम अभी तक अपनी कोई प्रभावी एकजुटता नहीं कायम कर पाए हैं। कई बार ऐसा लगता है कि हमारी अधिक समझ ही हमारी एकजुटता की राह की प्रमुख बाधा है। दिक्कत यह है कि हम इसी समझ के आधार पर समाज को शिक्षित और संगठित करने की कोशिश करते हैं और नतीजा हमारे सामने हैं । एकता कायम करने का अर्थ एकरूपता थोपना नहीं होता और ना ही एक छोटे समूह में समाजवाद लाना है बल्कि उन जीवन मूल्यों पर एक साझा सहमति बनाना है जो हम अपनी अपनी विशेषताओं के साथ एक साझा उद्देश्य के लिए अधिकतम क्षमता के साथ काम करने में मदद करें। हमें एक दूसरे का सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करने की कमजोरी से मुक्त होकर पूरे भरोसे के साथ एक दूसरे का हाथ थामने का साहस करना होगा, इससे हमारी सामाजिक साख में इजाफा होगा। अधिक ज्ञानी, अधिक बहादुर, अधिक त्याग के दावों के आधार पर लोगों को प्रेरित करने की जगह अपने सद्गुणों से प्रेरित करने की राह ज्यादे ठोस होती है।
हम विचारों और वैचारिक संघर्षों की बातें बहुत करते हैं लेकिन वास्तव में हम क्या करते हैं? समाजवादी आंदोलन के इतिहास में हुए वैचारिक संघर्षों का आज के यथार्थ पर प्रक्षेपण करके पुराने तर्कों का मंत्रोचार करते हैं। इस बहस में विचारों के तरह-तरह के वर्गीकरण पैदा होते हैं, और एक के समर्थक दूसरे को क्रांति- विरोधी घोषित करके अपनी राह अलग कर लेते हैं। इतिहास को जानना और उसे सबक लेना जरूरी है लेकिन इसके आईने में वर्तमान को देखना वास्तविक वैचारिकता का शुद्ध अभाव है। जहां तक वैचारिकता का सवाल है वह हम सभी में, पढ़े लिखे तथा अनपढ़ में स्वाभाविक रूप से मौजूद होती है लेकिन यह हो सकता है कि सबके पास सुसंगत विचारधारा ना हो। दर्शन को, वैचारिकता को एक विशेष समय की जरूरतों के मुताबिक विचारधारा का रूप देना समाज के लिए जरूरी होता है लेकिन इसे परम सत्य के रूप में ग्रहण करना वैचारिकता की जगह धार्मिक विचार हीनता को स्थापित करता है इसलिए व्यापक आबादी द्वारा इसे नजरअंदाज करना उचित ही है।
फिर हमें विचारों, दर्शन आदि को लेकर कैसे बात करनी चाहिए, मार्क्स -एंगेल्स- लेनिन- त्रात्स्की- रोजा लक्जमबर्ग- ग्राम्शी आदि के योगदान को किस रूप में ग्रहण करना चाहिए। इसे अपने देश की चिंतन प्रक्रिया से कैसे जोड़ना चाहिए, वर्तमान यथार्थ को समझने में इससे किस तरह मदद लेनी चाहिए आदि और फिर आज के सामाजिक जीवन के साथ इसे कैसे जोड़ा जाए? यह पूरी एक प्रक्रिया है, सामाजिक विज्ञान का क्षेत्र है, इसका सरलीकरण या कुछ फार्मूलों में बांधकर देखने से बेहतर है कि हम इस क्षेत्र को ही छोड़ दें क्योंकि तब हम समाज में भ्रम फैलाने के दोषी तो नहीं कहे जाएंगे । सोचिए कि जब कोई हमसे हमारे विचारों के बारे में पूछता है और हम यह कहते हैं कि हम मार्क्सवादी- लेनिनवादी हैं तो क्या यह हास्यास्पद नहीं लगता है? क्या इससे यह नहीं संप्रेषित होता है कि हम एक नए धर्म के प्रचारक हैं? जब हम इतिहास की व्याख्या एक पूर्व निर्धारित प्रक्रिया के रूप में करते हैं, उसे दास प्रथा, सामंती, पूंजीवादी, समाजवादी काल खंडों में नियतीवादी तरीके से बांटते हैं तो इसे विज्ञान कहा जाएगा या भाग्यवाद- ईश्वरवाद?
इसी तरह सामाजिक जीवन के तमाम पहलू हैं , यथार्थ का सवाल, सौंदर्य -बोध, कला- साहित्य- संस्कृति का सवाल आदि। यदि इन्हें हम पूंजीवादी, समाजवादी खांचो में बाटेंगे तो यह बंटवारा यही नहीं रुकेगा बल्कि आगे बढ़ते हुए दलितवादी, सवर्णवादी, राष्ट्रीयतावादी, नारीवादी, प्रकृतिवादी आदि नाना प्रकार के खंडों में विभाजित होकर अपनी भूमिका और महत्व खो देगा। हम समग्रता और एक लगातार विकसित होती प्रकिया के रूप में नहीं देख पाएंगे और ना ही इसमें भागीदार बन पाएंगे , और इस बात को नहीं समझ पाएंगे कि मानव समाज के विकास के साथ इन विषयों का सीधा रिश्ता है और एक प्रक्रिया में इसका दायरा विस्तारित होता गया है और समझ संवेदना गहरी होती गई है ।टुकड़ों में प्राप्त ज्ञान हमारी किसी काम का नहीं होता और हम उसके उपभोक्ता बन कर रह जाते हैं।
बात को यदि हमें समेटना है तो हम यह कह सकते हैं कि समस्या हमारे क्रांतिकारी शिक्षकों की उतनी नहीं है जितना उसकी पुरोहिती को लेकर है। जब हम मानव ज्ञान का रचनात्मक विकास करने का दायित्व और क्षमता खो देते है तो पुरोहिती पैदा होती है। मानव सभ्यता के इतिहास में ज्ञान के साथ यह समस्या हमेशा से रही है, ज्ञान पर एकाधिकार करके उसकी पुरोहिती और कारोबार करना। ईश्वर और नश्वर मनुष्य के बीच हमेशा एक पुरोहित मौजूद होता है, कोई भी सीधे ईश्वर से संपर्क नहीं कर सकता। यह पुरोहित मानव जाति को ना तो एकजुट होने देंगे और ना ही स्वायत्त या आत्मनिर्भर। ज्ञान मानव जाति की साझा विरासत है, उसके साझे कार्यों से विकसित होती है और आज संघर्ष इस बात का है कि वह कुछ मुट्ठी भर लोगों के एकाधिकार से मुक्त होकर पूरी मानवता की मुक्ति का जरिया कैसे बने?
अपने देश में जिस अनुपात में सरकारें स्वेच्छाचारी और निर्मम होती गई, जिस अनुपात में श्रमिकों – नागरिकों के अधिकार छीनने का काम चल रहा है, कल्याणकारी भूमिका से राजसत्ता जैसे-जैसे स्वयं को अलग कर रही है, जिस अनुपात में आर्थिक असमानता और बेरोजगारी बढ़ रही है आदि, उस अनुपात में उसके खिलाफ जन असंतोष नहीं दिखता या व्यापक राजनीतिक संघर्ष नहीं दिखता। यह कहना उचित नहीं होगा ऐसा कमजोर वाम राजनीति के कारण है। क्या हमारी सामाजिक- सांस्कृतिक संरचना में भी कुछ ऐसी बातें हैं जो लगातार जनाक्रोश को असरहीन करती रहती हैं या यह लोगों के मन में बैठा राजसत्ता का खौफ है जो उन्हें चुपचाप सब कुछ स्वीकार करने को बाध्य करता है? शायद गरीबी और अभाव पर्याप्त कारण नहीं है लोगों के विद्रोह का। दूसरे अन्य कारक क्या हो सकते हैं? इन तमाम कारकों को समझना और उसके जाल से लोगों को मुक्त करने की राह निकालना भी एक जरूरी कार्य है।
हमारे समाज की एक परंपरागत सामाजिक- सांस्कृतिक- वैचारिक बनावट है, राजसत्ता के प्रति उसका नजरिया और दूसरे मौजूदा दौर में वर्चस्वशाली सत्ता द्वारा लगातार किए जा रहे वैचारिक- सांस्कृतिक- शैक्षिक हस्तक्षेप है जो आम लोगों में अराजनीतिक सोच और दासता भाव पैदा करती हैं। मीडिया का लोगों के सोच- विचार पर इतना अधिक प्रभाव पड़ता है, उसे भी समझने की बहुत जरूरत है। इस मसले पर मुस्लिम समुदाय को खलनायक बनाने और लोगों द्वारा इसे बिना किसी हिला- हवाली के स्वीकार कर लेना कोई छोटा सवाल नहीं है। हम लाख तर्क वितर्क करें, इंसानियत का हवाला दे, कोई खास फर्क नहीं पड़ता।
नफरत की राजनीति का संबंध उस व्यवस्था से है जो उसके मानवीय गुणों के विकास के रास्ते बंद कर पूंजी पैदा करने वाली मशीन में बदल देती है, गरीबों और अमीरों दोनों का अमानवीकरण करती है। हम जो जिंदगी जीते हैं, जिन समस्याओं से हर रोज जूझते हैं, विभिन्न जाति धर्म के लोगों से सहयोग पाते, सहयोग करते हैं लेकिन हमारा नजरिया इस सच का उल्टा होता है। हमारा नजरिया आम तौर पर उन घटनाओं, सूचनाओं से निर्मित होता है जो हम से सीधे जुड़े नहीं होते, जिनके बारे में हमें देश-दुनिया की मीडिया बताती है। देश की श्रमिक जनता, किसान, बेरोजगार युवा, महिलाएं सभी इस जहर के प्रभाव में अपने ही लोगों के खिलाफ दुश्मन बने हुए हैं।
इस वैचारिक- सांस्कृतिक माहौल की एक खास बात यह होती है कि हम उन संभावनाओं को देखने की क्षमता खो देते हैं जो इंसानियत को आगे ले जाने वाली होती हैं। चौतरफा सामाजिक- आर्थिक असुरक्षा का माहौल, अकेलापन सभी को भीतर से कमजोर कर देता है। इस नए दौर में धर्म का भी एक नया रूप पैदा हुआ है जिसका हमारे आत्मिक विकास या सद्गुणों से कोई रिश्ता नहीं है, वह सिर्फ हमारी मानवीय कमजोरियों का खुलेआम प्रदर्शन करने का एक मंच बन गया है और आज यह राजसत्ता के वर्चस्व को बनाए रखने का और उसकी निरंकुशता पर पर्दा डालने का महत्वपूर्ण जरिया है।इस मामले में कोई धर्म अपवाद नहीं है। ईश्वर की निगाह में सभी मनुष्य समान है लेकिन समस्या यह है कि उसे व्यवहार में कैसे उतारा जाए।
यह पूरा सांस्कृतिक -शैक्षिक- वैचारिक परिदृश्य एक नए प्रकार के अध्ययन की मांग करता है क्योंकि यही वह दायरा है जहां पर हम सभी एक दूसरे से संबंधित होते हैं, संवाद करते हैं, प्रभाव डालते हैं और प्रभावित होते हैं। नई राजनीति के लिए नए वैचारिक और सांस्कृतिक दृष्टि और तरीके बेहद जरूरी हैं । यह काम किसी अकेले के बस का नहीं है, क्या इसके लिए जरूरी नहीं है कि इस दीर्घकालीन संघर्ष में हम थोड़ा एकजुट होकर हस्तक्षेप करने की कोशिश करें?
हमे यह बात ध्यान में रखनी होगी कि सामाजिक सुधार और बदलाव की एजेंसी राज सत्ता नहीं स्वयं समाज और मनुष्य है।इसे केंद्र में रखे बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। इस महामारी में पूंजीवादी व्यवस्था के हर पहलू की सीमाओं , अक्षमताओंऔर लाचारी को सात अरब आबादी के सामने ला दिया है। आज की दुनिया में महाबली होने का मिथक टूट रहा है, उनके पास एक ही जवाब है- “सोशल डिस्टेंसिंग” और सब के द्वारा निजी कोशिशें। शारीरिक दूरी की जगह सामाजिक दूरी शब्द का इस्तेमाल वे एक दूरगामी योजना के रूप में कर रहे हैं। उनकी राह की 14 सबसे बड़ी बाधा मानव जाति का सामाजिक और सामुदायिक जीवन है, जिसे उन्होंने लगातार तोड़ा है, आपस में लड़ाया है और उसकी स्वायत्तता का अपहरण किया है। उन्होंने मनुष्यों को लगातार अकेला किया है, एक दूसरे के प्रति अजनबीपन पैदा किया है और उन्हें एक जीवंत समुदाय से भीड़ में बदला है ताकि लोगों को भेड़ की तरह हांका जा सके। सामाजिक दूरी से बीमारी का इलाज करने के साथ ही वह सामाजिक जीवन के बचे खुचे रूप और हर तरह के सामाजिक प्रतिरोध को भी हमेशा के लिए खत्म करना चाहते हैं। आज की दुनिया में पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की एक ही कार्य-नीति है। लूट की निरंतरता के लिए नागरिक समाज की आर्थिक- राजनीतिक- सांस्कृतिक- वैचारिक स्वायत्तता का खात्मा अर्थात हर जगह एक स्वेच्छाचारी, झूठा ,बेरहम और दमनकारी राजसत्ता की स्थापना।उनकी व्यवस्था में कानून बनाने और उसे लागू करने में नागरिक समाज और जन संगठनों की कोई जगह नहीं है ।प्रशासन का नौकरशाही लगातार नागरिक समाज की हर पहलकदमी का दमन करता है।
स्वयं को एक उन्नत सभ्यता वाले समुदाय और समाज में संगठित करना और उसका पूरा प्रबंधन स्वयं अपने पास रखना मानव जाति का प्राकृतिक गुण और आवश्यकता है। इसलिए संघर्ष आज जिस मुकाम पर है, उसे हम कह सकते हैं कि यह पूंजीवादी राजसत्ता और पूरे समाज के बीच में सीधे तौर पर है। नागरिक समाज और विशेष तौर पर श्रमिक एवं किसान जनता को अपने समाज को पुनर्गठित करते हुए अपनी स्वायत्तता और अपने जीवन, देश और दुनिया का प्रबंधन अपने हाथ में लेने का दावा पेश करना होगा। हमारा यह दावा प्राकृतिक एवं मानवीय है और उनकी कोशिशें अमानवीय एवं अप्राकृतिक हैं, इसलिए भविष्य हमारा है और हमें ही मानवीय एवं प्राकृतिक जीवन की ओर अपनी दुनिया को ले जाना है। हमें शारीरिक दूरी बनाते हुए इस तरह की सामाजिक दूरी का अंत करना है । इसी से मनुष्य की गरिमा उसे वापस मिलेगी,जीवन सार्थक होगा और सभी को अपने मानवीय क्षमताओं को विकसित करने का अवसर मिलेगा।समाज और व्यक्ति एक दूसरे की ताकत बनेंगे। असुरक्षा और अभाव के युग का अंत होगा और एक नए इंसानी युग की शुरुआत होगी।
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निवेदन
यह आलेख एक प्रस्ताव है उन सभी साथियों के लिए जो अपनी अपनी जगह पर अपने-अपने तरीके से सामाजिक बदलाव और मानवीय समाज बनाने के लिए काम कर रहे हैं और इस बात की जरूरत महसूस कर रहे हैं कि हमें आपस में बात करने और राष्ट्रीय स्तर पर तालमेल बनाने का काम करना है। आलेख में लिखी बातों से सभी की सहमति हो यह जरूरी नहीं है, यह महज बातचीत की शुरुआत है।
आपसे आग्रह है कि इस प्रस्ताव पर ध्यान दें और अपनी राय से हमें ईमेल या व्हाट्सएप द्वारा अवगत कराएं। परिस्थितियां निश्चित रूप से बेहद चुनौतीपूर्ण है लेकिन बेहद संभावना पूर्ण भी हैं ।पूरी मानव जाति के सामने यह अस्तित्व का संघर्ष है,देश के करोड़ों प्रवासी, असंगठित, ठेका श्रमिकों एक लम्बी पैदल यात्रा करने का जो उदाहरण प्रस्तुत किया है उससे यह बात भी निकलती है कि अस्तित्व के संघर्ष में वे सबको राह दिखा सकते है।इसके साथ ही उस राजनीतिक धारा के लोग ही राह दिखाने में सक्षम है जिनका एजेंडा पूरी मानव जाति के कल्याण और विश्व शांति का है। जाहिर है कि यह एजेंडा सिर्फ वाम राजनीति का ही है। इसलिए सिर्फ ऐसी राजनीति का ही भविष्य है और उसे और रचनात्मक, संवेदनशील तरीके से आगे आना है।
उम्मीद है कि आप अपनी बात रखेंगे और इस प्रक्रिया का भागीदार बनेंगे।
साभिवादन।
ओ पी सिन्हा
opsinha21@gmail.com
नरेश कुमार
फोन 9450011433
ऑल इंडिया वर्कर्स कौंसिल