Connect with us

Hi, what are you looking for?

प्रिंट

आज प्रभाष जोशी जी की पुण्यतिथि है, शम्भूजी बयान कर रहे हैं कुछ अदभुत वाकये!

-शंभूनाथ शुक्ल-

अख़बार को आम लोगों तक पहुँचाया प्रभाष जोशी ने… आज प्रभाष जोशी की पुण्यतिथि है। साल 2009 में आज के ही दिन टीवी पर क्रिकेट मैच देखते हुए उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे नहीं रहे। जीवित होते तो 83 वर्ष के होते। प्रभाष जोशी ने अख़बार में सिर्फ़ कागद ही कारे नहीं किए। बल्कि उन्हें भाषा और संस्कार दिए। उन्होंने सत्य के लिए अड़ना और लोक भावनाओं में न बह जाने की सीख दी।

Advertisement. Scroll to continue reading.

अंग्रेज़ी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस समूह के हिंदी दैनिक जनसत्ता को उन्होंने निकाला और एक ही वर्ष में उसका प्रसार ढाई लाख तक पहुँचा दिया। हालाँकि प्रभाष जोशी का मतलब जनसत्ता नहीं है। उन्होंने तमाम काम ऐसे किए हैं जिनसे जनसत्ता का कोई जुड़ाव नहीं है मसलन प्रभाष जी का 1992 के बाद का रोल।

यह रोल प्रभाष जी की अपनी विशेषता थी जनसत्ता की नहीं। जनसत्ता में तो 1992 के बाद वे लोग कहीं ज्यादा प्रभावशाली रहे जो बाबरी विध्वंस को राष्ट्रीय गर्व के रूप में याद करते हैं। लेकिन प्रभाष जी ने इस एक घटना के बाद एक सनातनी हिंदू का जो धर्मनिरपेक्ष स्वरूप दिखाया वह शायद प्रभाष जी के अलावा और किसी में संभव नहीं था।

Advertisement. Scroll to continue reading.

आज प्रभाष जी की परंपरा को जब हम याद करते हैं तो उनके इस योगदान पर विचार करना बहुत जरूरी हो जाता है।

प्रभाष जी कहा करते थे जैसा हम बोलते हैं वैसा ही लिखेंगे। और यही उन्होंने कर दिखाया। जनसत्ता शुरू करने के पूर्व एक-एक शब्द पर उन्होंने गहन विचार किया। कठिन और खोखले शब्दों के लिए उन्होंने बोलियों के शब्द निकलवाए। हिंदी के एडजक्टिव, क्रियापद और सर्वनाम तथा संज्ञाओं के लिए उन्होंने नए शब्द गढ़े। संज्ञा के लिए उनका तर्क था देश के जिस किसी इलाके की संज्ञा जिस तरह पुकारी जाती है हम उसे उसी तरह लिखेंगे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

प्रभाष जी के बारे में मैं जो कुछ लिख रहा हूं इसलिए नहीं कि मैने उनके बारे में ऐसा सुना बल्कि इसलिए कि मैने एकदम शुरुआत से उनके साथ काम किया और उनको अपना पहला पथ प्रदर्शक व गुरू माना तथा समझा। प्रभाष जी को मैने पहली दफा तब ही देखा था जब मैं जनसत्ता की लिखित परीक्षा देने दिल्ली आया था। लेकिन उसके बाद उनके साथ ऐसा जुड़ाव हुआ कि मेरे लिखने-पढ़ने में हर वक्त प्रभाष जी ही हावी रहते हैं। 28 मई 1983 को मैने प्रभाष जी को पहली बार देखा था और 4 नवम्बर2009 को उनके अंतिम दर्शन किए थे।

दैनिक जागरण में नौकरी करते मुझे तीन साल हो गए थे और तब तक यह भी लगने लगा कि यहां कोई भविष्य बहुत उज्जवल नहीं है। इसलिए अब मैने ठान लिया कि अगर कुछ नया करना है तो दिल्ली का रुख करना चाहिए। पर कहां? दिल्ली में मैं किसी को जानता नहीं था। परिवार की माली हालत ऐसी नहीं थी कि मैं रहूं दिल्ली में और खर्चा पानी घर से मंगा लूं। निराशा के इन्हीं दिनों में मैने इंडियन एक्सप्रेस में एक विज्ञापन देखा कि एक्सप्रेस ग्रुप के जल्दी ही निकलने वाले हिंदी दैनिक के लिए पत्रकारों की जरूरत है। यह मेरे लिए सुनहरा मौका था। मैने बगैर किसी से पूछे फौरन इंडियन एक्सप्रेस के तत्कालीन संपादक बीजी वर्गीज के नाम हिंदी में एक आवेदन लिखा कि मैं कानपुर के दैनिक जागरण में तीन साल से उप संपादक हूं। सबिंग, संपादन, रिपोर्टिंग व लेखन में मेरी गति अच्छी है। इंडियन एक्सप्रेस समूह से जुड़कर पत्रकारिता करने की मेरी दिली इच्छा है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

मार्च 1983 में मैने यह आवेदन भेजा था लेकिन महीनों बीत गए कोई जवाब नहीं। तब तक यह पता चल गया कि जागरण से कई लोगों ने आवेदन किया हुआ है। एक्सप्रेस ग्रुप के भावी हिंदी अखबार की लिखित परीक्षा के लिए उन सभी लोगों के पास बुलावा आने लगा जिन्होंने वहां आवेदन किया था। राजीव शुक्ला उन दिनों जागरण में मेरे सीनियर साथी थे। अक्सर उनकी डेस्क में मुझे रहना पड़ता। एक दिन अकेले में मैने उन्हें बताया कि यार एक्सप्रेस में मैने भी एप्लीकेशन भेजी थी लेकिन मेरे पास अभी तक कोई जवाब नहीं आया। राजीव शुक्ला भी दिल्ली जाकर एक्सप्रेस के शीघ्र निकलने वाले हिंदी अखबार का टेस्ट दे आए थे। राजीव ने पूछा कि किसके नाम एप्लीकेशन भेजी थी? मैने बताया बीजी वर्गीज के नाम भेजी थी हिंदी में लिखकर।

राजीव ने कहा- तुमने हिंदी में आवेदन भेजा है वह भी बीजी वर्गीज के नाम। पता है वो हिंदी बोल भी नहीं पाते हैं पढऩा तो दूर। मुझसे पूछ लिया होता मैं बता देता कि किसके नाम भेजनी है? और कम से कम एप्लीकेशन तो अंग्रेजी में भेजनी थी। आगे राजीव ने बताया कि एक्सप्रेस ग्रुप के हिंदी अखबार का नाम जनसत्ता है और उसके संपादक प्रभाष जोशी हैं। मैने हिंदी में यह नाम ही पहली बार सुना था। मैने मान लिया कि गलती हो गई अब मेरा एक्सप्रेस समूह में काम करना सपना बनकर ही रह जाएगा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

लेकिन इसके तीन चार दिनों बाद ही 27 मई की शाम पांच बजे के आसपास मेरे घर पर इंडियन एक्सप्रेस से एक तार आया जिसमें लिखा था कि 28 मई 1983 को सुबह 11 बजे दिल्ली की इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग में मुझे उनके हिंदी अखबार जनसत्ता की लिखित परीक्षा में शरीक होना है। तार पढ़ते ही मैं उत्साह से गद्गद। फौरन तैयारी की और रात आठ बजे कानपुर सेंट्रल से इलेवन अप पकड़ कर सुबह पांच बजे पुरानी दिल्ली स्टेशन आ गया।

13 जून को मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। चूंकि एक बार दिल्ली हो आया था इसलिए कुछ आत्मविश्वास भी था। एक्सप्रेस बिल्डिंग के हाल में तमाम लोग बैठे थे कुछ इंटरव्यू दे चुके थे कुछ का नंबर अभी आना था। वहां की फुसफुसाहट से पता चला कि अंदर सारे लोग अंग्रेजी के ही हैं। प्रभाष जोशी जो उस वक्त तक इंडियन एक्सप्रेस के रेजीडेंट एडिटर थे, बीजी वर्गीज, एलसी जैन तथा राजगोपाल। मुझे लगा कि मेरा लौट जाना श्रेयस्कर होगा। ये लोग लगता है कि हिंदी पत्रकारों से अंग्रेजी में ही अखबार निकलवाएंगे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

तभी मेरा नाम बुलाया गया। अंदर पहुंचा तो पहले प्रभाष जी ने ही पूछा कि आपने ज्यादातर रपटें गांवों के बारे में लिखी हैं आप मुझे सेंट्रल यूपी के जातीय समीकरण के बारे में बताइए। मेरा आत्मविश्वास लौट आया और मैं फटाफट बोलने लगा। कुछ सवाल वर्गीज जी ने पूछे तथा कुछ एलसी जैन ने। लेकिन अब मैं आश्वस्त था कि मेरा चयन सेंट परसेंट पक्का है। 18 जुलाई को प्रभाष जी का एक पत्र आया जिसमें लिखा था- प्रिय श्री शुक्ल, बधाई! आपका जनसत्ता में चयन हो गया है। आपका नाम मेरिट लिस्ट में है। चुनने का हमारा तरीका शायद बेहद थकाऊ और उबाऊ रहा होगा लेकिन मुझे लगता है कि प्रतिष्ठाओं और सिफारिशों को छानने के लिए इससे बेहतर कोई चलनी नहीं थी। मेरा मानना है कि पहाड़ वही लोग चढ़ पाते हैं जो बगैर किसी सहारे के अपने बूते चलते हैं।

प्रभाष जी रोज हम लोगों को हिंदी का पाठ पढ़ाते कि जनसत्ता में कैसी भाषा इस्तेमाल की जाएगी। यह बड़ी ही कष्टसाध्य प्रक्रिया थी। राजीव और मैं जनसत्ता की उस टीम में सबसे बड़े अखबार से आए थे। दैनिक जागरण भले ही तब क्षेत्रीय अखबार कहा जाता हो लेकिन प्रसार की दृष्टि से यह दिल्ली के अखबारों से कहीं ज्यादा बड़ा था। इसलिए हम लोगों को यह बहुत अखरता था कि हम इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार और मध्य प्रदेश के प्रभाष जोशी से खांटी भाषा सीखें। हमें अपने कनपुरिया होने और इसी नाते हिंदी भाषा व पत्रकारिता की प्रखरता पर नाज था। प्रभाष जोशी तो खुद ही कुछ अजीब भाषा बोलते थे। मसलन वो हमारे और मेरे को अपन तथा चौधरी को चोदरी कहते। साथ ही हमारे बार-बार टोकने पर भी अपनी बोली को ठीक न करते। एक-दो हफ्ते तो अटपटा लगा लेकिन धीरे-धीरे हम उनकी शैली में पगने लगे। प्रभाषजी ने बताया कि हम वही लिखेंगे जो हम बोलते हैं। जिस भाषा को हम बोल नहीं पाते उसे लिखने का क्या फायदा? निजी तौर पर मैं भी अपने लेखों में सहज भाषा का ही इस्तेमाल करता था। इसलिए प्रभाष जी की सीख गांठ से बांध ली कि लिखना है उसी को जिसको हम बोलते हैं। भाषा के बाद अनुवाद और अखबार की धारदार रिपोर्टिंग शैली आदि सब चीजें प्रभाष जी ने हमें सिखाईं। अगस्त बीतते-बीतते हम जनसत्ता की डमी निकालने लगे थे। सितंबर और अक्तूबर भी निकल गए लेकिन जनसत्ता बाजार में अभी तक नहीं आया था। उसका विज्ञापन भी संपादकीय विभाग के हमारे एक साथी कुमार आनंद ने ही तैयार किया था- जनसत्ता, सबको खबर दे सबकी खबर ले। 1983 नवंबर की 17 तारीख को जनसत्ता बाजार में आया।
हिंदी की एक समस्या यह भी है कि चूंकि यह किसी भी क्षेत्र की मां-बोली नहीं है इसलिए एक बनावटी व गढ़ी हुई भाषा है। साथ ही यह अधूरी व भावों को दर्शाने में अक्षम है। प्रकृति में कोई भी भाषा इतनी अधूरी शायद ही हो जितनी कि यह बनावटी आर्या समाजी हिंदी थी। इसकी वजह देश में पहले से फल फूल रही उर्दू भाषा को देश के आम लोगों से काटने के लिए अंग्रेजों ने फोर्ट विलियम में बैठकर एक बनावटी और किताबी भाषा तैयार कराई जिसका नाम हिंदी था। इसे तैयार करने का मकसद देश में देश के दो बड़े धार्मिक समुदायों की एकता को तोडऩा था। उर्दू को मुसलमानों की भाषा और हिंदी को हिंदुओं की भाषा हिंदी को हिंदुओं के लिए गढ़ तो लिया गया लेकिन इसका इस्तेमाल करने को कोई तैयार नहीं था यहां तक कि वह ब्राह्मण समुदाय भी नहीं जिसके बारे में मानकर चला गया कि वो हिंदी को हिंदू धर्म की भाषा मान लेगा। लेकिन बनारस के ब्राह्मणों ने शुरू में इस बनावटी भाषा को नहीं माना था। भारतेंदु बाबू को बनारस के पंडितों की हिंदी पर मुहर लगवाने के लिए हिंदी में उर्दू और बोलियों का छौंक लगवाना पड़ा था। हिंदी का अपना कोई धातुरूप नहीं हैं, लिंगभेद नहीं है, व्याकरण नहीं है। यहां तक कि इसका अपना सौंदर्य बोध नहीं है। यह नागरी लिपि में लिखी गई एक ऐसी भाषा है जिसमें उर्दू की शैली, संस्कृत की धातुएं और भारतीय मध्य वर्ग जैसी संस्कारहीनता है। ऐसी भाषा में अखबार भी इसी की तरह बनावटी और मानकहीन खोखले निकल रहे थे। प्रभाष जी ने इस बनावटी भाषा के नए मानक तय किए और इसे खांटी देसी भाषा बनाया। प्रभाष जी ने हिंदी में बोलियों के संस्कार दिए। इस तरह प्रभाष जी ने उस वक्त तक उत्तर भारतीय बाजार में हावी आर्या समाजी मार्का अखबारों के समक्ष एक चुनौती पेश कर दी।
इसके बाद हिंदी जगत में प्रभाष जी की भाषा में अखबार निकले और जिसका नतीजा यह है कि आज देश में एक से छह नंबर तो जो हिंदी अखबार छाए हैं उनकी भाषा देखिए जो अस्सी के दशक की भाषा से एकदम अलग है। प्रभाष जी का यह एक बड़ा योगदान है जिसे नकारना हिंदी समाज के लिए मुश्किल है।

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement