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सुख-दुख

क्या प्रेस और पुलिस अपराधियों को संरक्षण देनेवाली संस्था बन गई है?

प्रवीण बाग़ी-

सबसे ज्यादा दुरुपयोग प्रेस और पुलिस के नाम का हो रहा है। ऐसा नहीं है की यह धंधा आज शुरु हुआ है। अरसे से चला आ रहा है। हां, इन दिनों उसमें तेजी आई है। दो महीने के अन्दर सिर्फ पटना में दो पत्रकार गिरफ्तार किये गए जबकि एक फरार है। जो फरार है, पुलिस के मुताबिक वह शराब का सप्लायर है।

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एक पत्रकार होटल में शराब पार्टी में पकड़ा गया और एक पत्रकार पटना के गोविन्द मित्रा रोड में दवा दूकान को लूटते समय पकड़ा गया। ये तीनों पत्रकार यूट्यूब चैनल से जुड़े हैं। दो दिन पहले दीघा पुलिस ने प्रेस का स्टिकर लगी दो गाड़ियों को पकड़ा जिसमें शराब लदी हुई थी। हालांकि उसमें कोई पत्रकार नहीं था। पुलिस से बचने के लिए शराब सप्लायर ने प्रेस का स्टिकर चिपकाया था।

ठीक ऐसा ही पुलिस के साथ हो रहा है। कई पुलिसवाले शराब पीते, अवैध वसूली करते, जमीन पर कब्ज़ा करते और अपराधियों को संरक्षण देते पकडे गए हैं। पुलिस लिखी गाड़ी पर हथियार के साथ अपराधी पकडे जाते रहे हैं। पुलिस लिखी बाइक पर अपराधी धड़ल्ले से शहर में घूमते नजर आते हैं। इनमें से कुछ पुलिस के मुखबिर होते हैं। वे पकडे जाने के बाद फिर छूट जाते हैं। पुलिस की छतरी का इस्तेमाल कर वे अपराध करते हैं।

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तो क्या यह मान लिया जाए की प्रेस और पुलिस अपराधियों को संरक्षण देनेवाली संस्था बन गई है? इसका जवाब होगा नहीं। कुछेक घटनाओं से यह निष्कर्ष निकालना सही नहीं होगा। लेकिन यह दोनों संस्थाओं के साथ -साथ पूरे समाज के लिए चिंता का विषय जरूर होना चाहिए। अपने कार्यों के कारण समाज में प्रेस और पुलिस का जो रुतबा है, अपराधी उसका फायदा उठा रहे हैं। इसे रोकने के लिए प्रेस और पुलिस दोनों सेवाओं से जुड़े जिम्मेवार लोगों को आगे आना चाहिए।

प्रेस को अपराधियों की छतरी न बनने दिया जाये, इसके लिए मीडिया संस्थानों को ज्यादा सजग होना पड़ेगा। हालाँकि सोशल मीडिया के इस दौर में उसपर पत्रकारिता के मानदंडों को लागू करना कठिन है। व्हाट्सएप ग्रुप, यूट्यूब चैनल्स और फेसबुक पेज के माध्यम से गली -गली में पत्रकार पैदा हो गए हैं। इसमें बड़ी संख्या वैसे लोगों की भी है जो इस माध्यम से गंभीर और जनोन्मुखी पत्रकारिता कर रहे हैं। अनेक नामी -गिरामी पत्रकार, जिनका दशकों का पत्रकारिता का अनुभव रहा है, वे भी यूट्यूब चैनल पर दिख रहे हैं। वे पत्रकारिता के मूल्य समझते हैं।

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लेकिन इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता की बड़ी संख्या संदिग्ध चरित्र वालों की भी है। असल समस्या उनको नियंत्रित करना और सही दिशा दिखाना है। सोशल मीडिया ने बड़ी संख्या में बेरोजगार नौजवानों को रोजगार भी दिया है। उससे कई अच्छे पत्रकार भी निकले हैं जो आज अच्छे संस्थानों में सेवा दे रहे हैं। गली -कूचे की समस्याएं, सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों का दुःख दर्द, जहां पारम्परिक मीडिया नहीं पहुंच पाती, यूट्यूब चैनलों के माध्यम से वहां की ख़बरें लोगों तक पहुँचती हैं ।

कोई ऐसा मैकेनिज्म विकसित किया जाना चाहिए जिससे अपराधियों को मीडिया/ सोशल मीडिया से दूर रखा जा सके। केंद्र सरकार के आईटी मंत्रालय ने इस दिशा में गाइडलाइंस जारी किये हैं। लेकिन वे बहुत जटिल और अस्पष्ट हैं। सूचना प्रसारण मंत्रालय को इसकी कोई जानकारी नहीं है। यह एक अलग समस्या है।

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बिहार सरकार ने सोशल मीडिया को विज्ञापन देने के लिए नीति घोषित की है। यह सराहनीय पहल है लेकिन इसे और व्यापक बनाने की जरुरत है।

पुलिस के आला अधिकारियों ने कई बार घोषणा की कि प्रेस/ पुलिस लिखे वाहनों की जांच की जायेगी, लेकिन इसपर अमल होता नहीं दिखता। प्रेस और पुलिस अपराधियों का आश्रय स्थल न बने इसके लिए ठोस उपाय किये जाने चाहिए।

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