Connect with us

Hi, what are you looking for?

प्रिंट

प्रिंट मीडिया की मजबूती के लिए नुकसानदेह है प्रकाशकों का रवैया

प्रकाशक अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मार रहे हैं? इस वर्ष के आरंभ में जब इंडियन रीडरशिप सर्वे अथवा आईआरएस 2014 के आंकड़े जारी किए गए तब से प्रकाशक एक ऐसे अभियान पर हैं जो सालाना रस्म की शक्ल अख्तियार कर चुका है। टाइम्स ऑफ इंडिया तथा अन्य अखबारों ने बड़े-बड़े नोटिस प्रकाशित करके आईआरएस का मखौल उड़ाया। आईआरएस सर्वेक्षण को मीडिया रिसर्च यूजर्स काउंसिल अथवा एमआरयूसी, जारी करती है जो प्रकाशकों, विज्ञापनदाताओं एवं एजेंसियों की संस्था है। द हिंदू एवं दैनिक भास्कर जैसे संस्थानों ने इस कवायद से बाहर रहने का फैसला किया। अन्य ने अपना उपभोक्ता शुल्क चुकाने से ही इनकार कर दिया।

<p>प्रकाशक अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मार रहे हैं? इस वर्ष के आरंभ में जब इंडियन रीडरशिप सर्वे अथवा आईआरएस 2014 के आंकड़े जारी किए गए तब से प्रकाशक एक ऐसे अभियान पर हैं जो सालाना रस्म की शक्ल अख्तियार कर चुका है। टाइम्स ऑफ इंडिया तथा अन्य अखबारों ने बड़े-बड़े नोटिस प्रकाशित करके आईआरएस का मखौल उड़ाया। आईआरएस सर्वेक्षण को मीडिया रिसर्च यूजर्स काउंसिल अथवा एमआरयूसी, जारी करती है जो प्रकाशकों, विज्ञापनदाताओं एवं एजेंसियों की संस्था है। द हिंदू एवं दैनिक भास्कर जैसे संस्थानों ने इस कवायद से बाहर रहने का फैसला किया। अन्य ने अपना उपभोक्ता शुल्क चुकाने से ही इनकार कर दिया।</p>

प्रकाशक अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मार रहे हैं? इस वर्ष के आरंभ में जब इंडियन रीडरशिप सर्वे अथवा आईआरएस 2014 के आंकड़े जारी किए गए तब से प्रकाशक एक ऐसे अभियान पर हैं जो सालाना रस्म की शक्ल अख्तियार कर चुका है। टाइम्स ऑफ इंडिया तथा अन्य अखबारों ने बड़े-बड़े नोटिस प्रकाशित करके आईआरएस का मखौल उड़ाया। आईआरएस सर्वेक्षण को मीडिया रिसर्च यूजर्स काउंसिल अथवा एमआरयूसी, जारी करती है जो प्रकाशकों, विज्ञापनदाताओं एवं एजेंसियों की संस्था है। द हिंदू एवं दैनिक भास्कर जैसे संस्थानों ने इस कवायद से बाहर रहने का फैसला किया। अन्य ने अपना उपभोक्ता शुल्क चुकाने से ही इनकार कर दिया।

उनमें से अनेक प्रसार संख्या के उन आंकड़ों की कसमें खा रहे जिनका वे वर्षों तक तिरस्कार करते रहे। रीडरशिप सर्वे के ऐसे आंकड़े पिछली बार करीब दो साल पहले आए थे जिन पर प्रकाशकों का भरोसा था (सवाल यह है कि क्या रीडरशिप की प्रासंगिकता कम हो गई है)। इस बीच विज्ञापनदाता जो 26,300 करोड़ रुपए के राजस्व वाले इस उद्योग के दो तिहाई हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं वे टेलिविजन अथवा डिजिटल मीडिया की ओर रुख कर गए हैं। मुद्रित माध्यमों में विज्ञापन से आने वाले राजस्व में पिछली दो तिमाहियों में गिरावट आई है और वह 8 फीसदी से घटकर 5-6 फीसदी रह गया है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

बड़े भाषायी समाचार पत्रों में आने वाले विज्ञापनों का दो तिहाई हिस्सा स्थानीय अथवा क्षेत्रीय विज्ञापनदाताओं से आता है जो उस पर आने वाली प्रतिक्रियाओं का आकलन करते हैं। रीडरशिप सर्वेक्षण राष्ट्रीय विज्ञापनदाताओं के लिए मायने रखता है और इसकी अनुपस्थिति में वे अन्य संचार माध्यमों का रुख कर चुके हैं। दूसरी बात वर्ष 2012 के आईआरएस में अंग्रेजी मुद्रित माध्यमों के पाठकों की संख्या में होने वाली वृद्घि एक फीसदी से भी कम रह गई। कुछ प्रमुख समाचार पत्रों की प्रसार संख्या में मामूली गिरावट भी देखने को मिली। ताजा आंकड़ों के अभाव में विज्ञापनदाता अपने खर्च को पुराने आंकड़ों के आधार पर निर्धारित करते हैं। बहरहाल, छोटे प्रकाशकों की बात करें तो शीर्ष 2-3 प्रकाशकों के बाद के प्रकाशकों को बेहतर विज्ञापन दर हासिल करने के लिए बेहतर प्रसार संख्या की आवश्यकता होती है। कुलमिलाकर यह मामला छोटे बनाम बड़े प्रकाशकों का बन जाता है। यह भी बड़ी विडंबना है। एमआरयूसी की स्थापना सन 1994 में की गई थी ताकि पिछले राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण में बड़े अखबारों के दबदबे को समाप्त किया जा सके।

नई व्यवस्था में सभी के लिए जगह है। इसमें छोटे-बड़े प्रकाशकों से लेकर विज्ञापनदाता और एजेंसियों तक सभी शामिल हैं। वर्ष 2009 में उसने ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन के साथ हाथ मिलाकर सर्वेक्षण के हालात सुधारने की कोशिश की। आईआरएस का नया सर्वेक्षण जनवरी 2014 में जारी किया गया। इससे पता चला कि कुल पाठक संख्या 35.5 करोड़ से घटकर 28.1 करोड़ रह गई है (हालांकि बाद में इसे 30.1 करोड़ बताया गया)। इतना ही नहीं इस सर्वेक्षण में तमाम बड़े नाम ऊपर नीचे हुए थे। बस फिर क्या था? इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी ने सर्वेक्षण की आलोचना की। दैनिक भास्कर ने उस पर स्थगन आदेश हासिल कर लिया।

Advertisement. Scroll to continue reading.

बहरहाल, 15 सदस्यों की एक समिति ने उसे आंकड़ों को सही करार दिया। एमआरयूसी ने वर्ष 2013 के आईआरएस के साथ-साथ वर्ष 2014 के आईआरएस के एक दौर के आंकड़ों का इस्तेमाल करके आईआरएस 2014 जारी किया। लेकिन प्रकाशक अब भी उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। उनकी शिकायत है कि आंकड़े पुराने हैं, उनसे छेड़छाड़ संभव है और नमूने का आकार बहुत छोटा है। इनमें से कुछ मसले तो वास्तविक हैं। कुछ दिन पहले एमआरयूसी के बोर्ड ने तय किया कि वह अपने नमूने को 2,35,000 से बढ़ाकर 3,00,000 करेगा। पांच प्रमुख सलाहकार कंपनियों में से किसी एक से इसका अंकेक्षण कराया जाएगा। दूसरे मुद्दे खराब निर्णय से ताल्लुक रखते हैं। मसलन एक साल पुराने आंकड़े का इस्तेमाल करना आदि।

लेकिन सवाल यह भी है कि प्रकाशकों ने जो एमआरयूसी में अहम सदस्य हैं और जो बोर्ड तथा वैधता देने वाली समिति में भी शामिल हैं, उन्होंने इससे निपटने के लिए क्या किया? एक सदस्य पूछते हैं, ‘प्रकाशक आंकड़ों में भ्रष्टाचार को लेकर इतना शोरगुल कर रहे हैं लेकिन उनको भ्रष्ट करने वाला कौन है? वे अपने ही सदस्यों पर लगाम क्यों नहीं लगाते?’

Advertisement. Scroll to continue reading.

अगर हम टेलिविजन उद्योग में टैम रेटिंग व्यवस्था के बाद आने वाले बदलाव पर नजर डालें तो एकदम विपरीत परिस्थिति नजर आती है। नवनिर्मित ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल ने बहुत अच्छी तरह काम किया है। जब उसके पास धन की कमी हुई तो उसके सदस्य यानी प्रसारक, विज्ञापनदाता आदि 180 करोड़ रुपए की गारंटी के साथ सामने आए ताकि नई रेटिंग व्यवस्था कायम की जा सके। जबकि एमआरयूसी अभी 15 करोड़ रुपए जुटाने के लिए ही संघर्ष कर रहा है।

दुनिया के अधिकांश हिस्सों में मुद्रित प्रसार माध्यम धीमी और कष्टप्रद मौत मर रहे हैं। इसकी एक वजह है इंटरनेट और टेलीविजन। भारत उन चुनिंदा बाजारों में से हैं जहां मुद्रित माध्यम खासतौर पर स्थानीय भाषाओं के माध्यम अभी भी विकसित हो रहे हैं। इसे कुछ लाभ भी हासिल हैं। मसलन, इंटरनेट की पहुंच बहुत सीमित है, घर तक आपूर्ति भी अहम है। इसके अलावा लिखे हुए शब्दों के प्रति भारतीयों का लगाव भी उनके लिए मददगार है। चूंकि साक्षरता दर मुद्रित माध्यमों की पहुंच की तुलना में दोगुनी है इसलिए अभी भी विकास की बहुत अधिक संभावना मौजूद है। ब्लूमबर्ग मीडिया समूह के मुख्य कार्याधिकारी जस्टिन स्मिथ ने हाल ही में कहा था कि भारतीय प्रिंट मीडिया की ताकत ने मोबाइल विज्ञापनों के विकास को रोक दिया है। लेकिन लगता है देश के प्रकाशकों को इस शक्ति पर भरोसा नहीं है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

बिजनेस स्टैंडर्ड से साभार

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement