पत्रकारिता गहरी समझ का विषय है। यह मानवीय संवदेनाओं और सरोकरों से सीधा जुड़ा हुआ है। पत्रकारिता सत्ता और जनता के दोनों सिरों को जोड़ने का काम करती है, इसके लिए यह भी जरूरी है कि पत्रकारिता करने वाले व्यक्ति को सत्ता और जनता की गहरी समझ होनी चाहिए। अब सवाल यह की कुकरमुत्तों की तरह लाभ के लिए खुल रहे मीडिया शिक्षण संस्थान क्या इस स्तर हैं कि वे सत्ता की बारीकियों और जनता के सरोकारों के मामले में पत्रकार बनने की उम्मीद से आए छात्रों को प्रशिक्षित कर सकें? इस सवाल का सीधा सा उत्तर होगा, नहीं।
यदि जवाब के पीछे के कारणों को ढूढ़ा जाए तो पता चलेगा कि इसके लिए मीडिया शिक्षण संस्थानों की पत्रकारिता शिक्षण की गंभीरता के प्रति समझ का अभाव है। देश में चल रहे सैकड़ों प्राइवेट मीडिया शिक्षणों संस्थानों में अधिकांश के पास न तो मीडिया शिक्षण के लिए जरूरी बुनियादी सुविधाएं हैं और न ही कुशल मीडिया शिक्षक। यह भी सभी जानते हैं कि अपवादों को छोड़कर मीडिया शिक्षण के कार्य में जाने वाले अधिकांश व्यक्ति वही होते हैं, जो पत्रकारिता के क्षेत्र पूरी तरह से असफल सिद्ध हुए हैं। साथ ही उन लोगों की ही मीडिया शिक्षण के क्षेत्र में भरमार है, जिन्होंने मुख्यधारा पत्रकारिता के संस्थानों के अंदर कभी घुसकर भी नहीं देखा और सीधे डिग्री करने के बाद पत्रकारिता पढ़ाने लग गए। ऐसे लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है? इस मामले में सीधा कहा जाएगा कि वे पत्रकार बनने की उम्मीद लगाए बैठे छात्रों के भविष्य के साध खिलवाड़ कर रहे हैं।
पत्रकारिता किताबों से ज्यादा फील्ड का विषय है। जिन लोगों ने कभी फील्ड का मुंह न देखा हो वह छात्रों को पत्रकारिता के विषय में कैसे समझा सकते हैं? कुछ मीडिया संस्थान तो इससे भी आगे हैं, उनके यहां विभागाध्यक्ष से लेकर शिक्षक तक ऐसे हैं, जिन्हें फील्ड का अनुभव तो छोड़िए, पत्रकारिता की बुनियादी डिग्री भी नहीं ली है। अखबारों व मीडिया के जरिए अपनी छवि चमकाने वाले गलगोटिया युनिवर्सिटी को ही ले लीजिए। अखबारों व मीडिया को पैसे देकर सर्वे में अपनी टॉप टेन रैंक में जगह दिखाने वाले गलगोटिया का भी यही हाल है।
गलगोटिया विश्वविद्यालय की पत्रकारिता विभाग की विभागाध्यक्ष अनीता आर गौतम हैं। उनके पास न तो पत्रकारिता में स्नातक है, न परास्नातक की डिग्री, न ही इस विषय में पीएचडी। वे माइक्रोबॉयलोजी में परास्नातक व पीएचडी हैं। अनीता आर गौतम न ही कभी पत्रकारिता के क्षेत्र में काम किया है। मीडिया के बारे में क, ख, ग भी न जानने के बावजूद गलगोटिया युनिवर्सिटी ने उन्हें पत्रकारिता विभाग का डीन बना रखा है। मेरे मित्र ने बताया कि वह वे मीडिया की क्लॉस भी लेती हैं। हद तो इस बात कि वह डीन होने के नाते यह भी निर्धारण करती हैं कि पत्रकारिता के छात्रों को क्या पढ़ाना है और क्या नहीं। इसे पत्रकारिता के छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं तो क्या कहा जाएगा।
अनीता आर गौतम का पत्रकारिता विभाग का डीन बनने की सबसे बड़ी वजह उनके पति का दैनिक भास्कर समाचार पत्र के प्रबंध विभाग में उच्च औहदे पर कार्यरत होना है। वे वहां दैनिका भास्कर की जड़ खोद रहे हैं और अपनी पत्नी को मीडिया के छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने युनिवर्सिटी में फिट करा दिया। अपने पति के इसी रूतबे के चलते वह एमिटी और शारदा युनिवर्सिटी में भी काम कर चुकी हैं। एमिटी व शारदा युनिवर्सिटी में छात्रों के हल्लाबोल, गंभीर आरोप व अनियमियताओं के कारण उन्हें दोनो युनिवर्सिटियों से त्यागपत्र देना पड़ा था। लखनऊ में केन्द्र सरकार के संस्थान आरटीआरसी ने भी उन्हें उनकी अयोग्यता और अनियमिताओं के कारण निकाल दिया था। लेकिन प्राइवेट युनिवर्सिटियों ने छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने के लिए जगह दी। यह उदाहरण तो एक बानगीभर है, अधिकांश प्राइवेट संस्थानों का यही हाल है। अनीता आर गौतम जैसे तमाम लोग वहां कार्यरत हैं। अऩीता आर गौतम शारदा में काम करने के दौरान मेरी टीचर रह चुकी हैं। ।
सवाल यहां किसी व्यक्ति विशेष का नहीं, बल्कि प्राइवेट मीडिया संस्थानों की पत्रकारिता के प्रति गंभीरता को लेकर है। जो विषय देश को दिशा दिखाता है, उसे इन प्राइवेट संस्थानों द्वारा इतने हल्के में क्यों लिया जाता है, चाहे वो शारदा हो या गलगोटिया या अन्य।
कई मीडिया समूह ने तो अपने पत्रकारिता के शिक्षण संस्थान भी खोल रखे हैं। मीडिया समूह के साथ जुड़े होने के कारण इन संस्थानों को बिना मेहनत के अधिक प्रचार मिल जाता है। कुछ संस्थानों को छोड़कर, जिनकी वाकई गिनती देश के बढ़िया मीडिया शिक्षण संस्थानों में होती है, अधिकांश का हाल नाम बड़े दर्शन छोटे जैसा है। । इन संस्थाओं का हाल भी तीस दिन में अंग्रेजी सिखाने के दावे करने वालों की तरह ही तुरंत पत्रकार बनाने का रहता है। लेकिन हकीकत सब जानते है कि ये संस्थान पत्रकार बनाने ज्यादा बेरोजगारों की फौज पैदा कर रहे हैं।
मीडिया का ग्लैमर और विज्ञापन के जरिए अपनी युनिवर्सिटी व संस्थानों की टॉप रैक दिखाकर छात्रों को आकर्षित तो किया जा सकता है, उनसे पैसे तो ऐंठे जा सकते हैं। लेकिन उन्हें देश का भविष्य नहीं बनाया जा सकता है। इस मामले में सरकार व यूजीसी से भी ध्यान देने की अपेक्षा की जाती है।
संजीव गौतम संपर्क : [email protected]