मैं बनारसी हूँ और मुझे बनारस से बहुत प्यार है. यहाँ का एक लोकल शब्द है ‘लंठ’, जिसमें बदतमीज़, अल्हड, बेबाक या बेशर्म सब कुछ समाहित है. जनमानस तक यदि यह बात रहे तो यह शहर का मिज़ाज कहलाये पर इस शब्द के प्रशासन और व्यवस्थाओं में घुल मिल जाने से समस्याएं विकराल रूप लेती जा रही हैं.
हर्ष का विषय है की माननीय प्रधानमंत्री कई दशकों से उपेक्षित बनारस का उद्धार करने के विषय में सोच रहे हैं और प्रयासरत भी हैं. किन्तु स्थानीय दैनिक जागरण की एक रिपोर्ट पढ़ लेने के बाद मन में कुछ शंकाएं उत्पन्न हो गयी हैं. बनारस में AIMS खोलने पर विचार चल रहा है.
डॉक्टरों का व्यक्तित्व बनारस में पूर्णतया व्यवसायिक हो चुका है. यदि यहाँ के अस्पतालों में किसी सिलसिले में भरती हो लिया जाए तो उदहारण क्या, कई घटनाएँ मिल सकती हैं. आधुनिक तकनीक के नाम पर हमारे पास केवल BHU है जिसमे पूर्वांचल के दूर-दराज़ के इलाकों से भी रोगी मरने आते हैं. जी हाँ, BHU बदनाम है क्यूंकि तमाम सुविधाओं के बाद भी यहाँ ज़िंदा रहकर ठीक हो जाने वालों से ज्यादा यहाँ से उठ जाने वालों की तादात है.
2012 में हमारे पिता भरती हुए थे. उनके लिए स्पेशल वार्ड मिलना नामुमकिन हो चुका था क्यूंकि सारे वार्ड यहाँ के सीनियर डॉक्टरों द्वारा उनके अपने-अपने व्यक्तिगत मरीजों (जो की व्यवसाय है) के लिए अटके रहते हैं. यदि आपकी पहुँच ऊपर तक न हो तो आप चाहे जो हों आपको जनरल वार्ड में ही मरना होगा जहाँ मामूली सी सुविधाओं और साफ़ सफाई का अभाव तो है ही. टेस्ट के लिए बिल्डिंग के चौथे से पहले माले तक, फिर पहले से तीसरे माले और कभी कभी अपने चौथे माले से बगल वाली बिल्डिंग के चौथे माले तक मरीज़ की पदयात्रा करवानी होती है.
स्टाफ कम नहीं, बेहद कम है और भीड़ बेहद ज्यादा. कम्पाउण्डर स्ट्रेचर और व्हील-चेयर देने से साफ़ मुकर जाते हैं. इमरजेंसी वार्ड में आक्सीजन की सप्लाई ठीक समय पर न देने से रोज़ कितने यूँ ही मर जाते हैं. दवाओं की मंडी अस्पताल के बाहर है जिसमे वे सारी दवाएं लगभग चौथाई कम कीमत पर मिलती हैं जो अस्पताल के मेडिकल पर उपलब्ध हैं. बाहर का नज़ारा देखने लायक होता है. अगर आप पर्ची लिए दिख गए तो बीसियों दलाल आपके भाई हो जायेंगे.
इमरजेंसी वार्ड में लगभग हर मरीज़ मरने की कगार पर ही पहुँचता है. जिसे आपात काल में लेटने के लिए तो स्ट्रेचर मिल जाती है मगर बिस्तर नही मिलता. नतीजतन उसे स्ट्रेचर पर ही रखना पड़ता है मगर कम्भख्त कम्पाउण्डर के भाव विहीन दिल में कोई हमदर्दी नहीं होती. वो मरीजों को ज़मीन पर लिटा अपना फ़र्ज़ क्रूरता से पूरा करता है.
BHU के समीप एक हेरिटेज अस्पताल है, जिसका दो साल पहले एक वीभत्स केस सामने आया था. ये अस्पताल बनारस के सबसे महंगे अस्पतालों में से एक है. जहाँ किसी रोगी को ICU में तीन दिन रखा गया था. मृत हो जाने के बाद भी.
यही नहीं. डॉक्टर काफी अनुभवी हैं… उनकी अपनी डिस्पेंसरी होना तो शायद सारे देश में आम बात हो. यहाँ उन्हें रोगी को देखकर ही समझ में आ जाता है की इसके मरने की सही तारिख क्या होगी. उसी हिसाब से दवाएं दे दी जाती हैं ताकि मरने से पहले उद्धार कर जाए.
प्रसूति गृह में अब सामान्य विधि से नहीं हर प्रसूति सिजेरियन ही होती है. उनके अनुसार बनारस की हर महिला सामान्य डिलेवरी के लिए अक्षम है. नसबंदी जैसे काम यहाँ दोयम माने जाते हैं. बच्चे ही तो कमाई हैं लोग इन्हें कैसे रोक संकते हैं?
ऐसे में AIMS के बारे में विचार इन डॉक्टरों की इस व्यवसायिक प्रवृति को हवा देना नहीं होगा?
हालात इससे भी ज्यादा खराब हैं… मैंने केवल व्यक्तिगत अनुभव यहाँ लिखे हैं. जहाँ इतने प्रपंच हो रहे हैं, उसमें सही चिकित्सकीय व्यवस्था तो बनारसियों का हक है ही.
ऋत्विक जोशी <[email protected]>