सिर्फ 50 रुपए में बन गए राजा
-विजय सिंह ‘कौशिक’-
शिलांग से चेरापूंजी के लिए रवाना होने के वास्ते 23 नवंबर 2015 कि सुबह 7 बजे का समय तय किया गया था। लेकिन हम भारतीयों में से अधिकांश समय प्रबंधन के मामले में कच्चे ही हैं। कुछ साथी तैयार हो रहे थे इस लिए बाकी साथी राजस्थान विश्राम भवन के पास में स्थित होटल में नास्ता करने चले गए। होटल के काउंटर पर बैठे सज्जन को हिंदी अखबार पूर्वोदय पढ़ते देखा तो समझ में आ गया कि महोदय हिंदी भाषी हैं। पूर्वोत्तर में हिंदीभाषियों के खिलाफ हिंसा की खबरे आती रहती हैं। उनसे यहां के हालात जानने के लिए बातचीत करने की उत्सुकता हुई। पता चला होटल के मालिक राजेंद्र शर्मा मूलतः राजस्थान के सिलचर जिले के रहने वाले हैं। 40 सालों पहले उनका परिवार राजस्थान से शिलांग आ गया था। मौजूदा हालात के बारे में पूछने पर शर्मा बताते हैं कि अभी स्थिति थोड़ी अच्छी है।
अब हिंदीभाषियों के खिलाफ आंदोलन नहीं होते। शर्मा बताते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले यहां के लोग किसी गैर कांग्रेसी नेता को नहीं जानते थे। हिंदी यहां लोग समझते हैं ? इस सवाल पर शर्मा बताते हैं कि शहरों में तो अधिकांश लोग हिंदी बोलते समझते हैं। पर ग्रामीण क्षेत्र से आए लोगों को थोड़ी दिक्कत होती है। लेकिन यहां के लोगों की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि जिनको हिंदी नहीं आती,वे भी बोलने की कोशिश करते हैं। अब पहले जैसी स्थिति नहीं रही। नई पीढि हिंदी बोलना जानती है। यहीं हमारी मुलाकात अखबार बेच रहे बीर बहादुर से होती है। नेपाल से यहां आए बीरबहादुर बताते हैं, हर रोज हिंदी अखबारो के भी 60-65 कापी बेच लेता हूं। हल मेघालय से तो कोई हिंदी अखबार नहीं छपता पर पडोसी राज्य आसाम की राजधानी गुहाटी से हिंदी के चार अखबार छपते हैं, जो पूरे पूर्वोत्तर में पढ़े जाते हैं।
यहां हिंदी अखबार काफी मंहगे हैं। 14 पेज का अखबार 8 रुपए में। लेकिन यहां के हिंदीभाषी पाठकों को इस किमत से कोई शिकायत नहीं है। सुबह 8 बजे चुके थे और अब तक सारे साथी तैयार हो कर वाहन में सवार हो गए थे। आखिरकार शिलांग से चेरापुंजी की यात्रा शुरु हुई। ऊचाई वाले रास्ते, पहाड़ों के बीच बने घर और हरियाली से आच्छादित पर्वतों के बीच से हमारी बस गुजर रही थी। इन रास्तों से गुजरना सुखद लग रहा था। करीब 50 किलोमीटर की यात्रा के बाद एक जगह हम चाय पीने के लिए रुके। हम चाय की चुस्कियां ले रहे थे। तभी हमनें देखा सामने सड़के के बगल दो लड़कियां पर्यटकों को यहाँ के राजाओं के पारंपरिक ड्रेस पहना रही थी। उत्सुकतावश हम भी वहां पहुंच गए। पूछने पर पता चला कि फोटो निकालने के लिए 50 रुपए में यह ड्रेस आप धारण कर सकते हैं। अपने मोबाईल से फोटो खिचने की सुविधा तो हैं ही, यदि उनके कैमरे से फोटो निकलवाया तो उसके 50 रुपए अतिरिक्त देने होंगे। 50 रुपए में सिर्फ ड्रेस नहीं बल्कि तलवार और ढाल धारण करने का भी मौका मिलने वाला था। सौदा बुरा नहीं था। इस लिए सभी साथियों ने 50 रुपए में कुछ समय के लिए सही, राजा बनने की सोची। दोनों लड़किया काफी मृदभाषी थी। और अच्छी बात यह थी कि वे अच्छी हिंदी भी बोलना जानती थी।
उनको हिंदी बोलते देख मैंने पूछ ही लिया कि हिंदी कैसे सिखा ? जवाब मिला हिंदी फिल्मों से । लगे हाथ उन्होंने हिंदी फिल्मों के कुछ डायलाग भी सुना दिए। उसके बाद तो सभी पत्रकार साथी राजा बनने के लिए लाईन में लग गए। खासी राजा के वस्त्र धारण करने के बाद तलवार-ढाल लेकर हमारे साथी एक्शन में आ गए और शुरु हो गया फोटोग्राफी और विडियो बनाने का दौर। हमे इस वेशभूषा में देख कर वहां आए कई दूसरे पर्यटक भी हमारे साथ फोटो निकलवाने लगे तो हमें भी कुछ क्षणों के लिए आम से खास होने का अहसास हुआ। हालांकि राजा बनने के इस खेल में काफी समय जाया चला गया। हम अपने तय समय से काफी लेट हो गए थे। क्योंकि राजा का यह खुमार हमारे सिर से उतर ही नहीं रहा था। हमारे वरिष्ठ साथी अभिजीत मुले जी बार-बार कह रहे थे कि चलो बस में बैठो।
आगे बारिश हुई तो समस्या हो जाएगी। हम 18 लोगों में अभिजीत जी ही ऐसे थे जो कई बार पूर्वात्तर की लंबी-लंबी यात्राए कर चुके थे। इस लिए हम सबके बीच वहां के बारे में उन्हीं ही अच्छी जानकारी थी। किसी तरह हमने राजा के वस्त्र त्यागे और उस वस्त्र का किराया अदा कर बस में सवार हुए। करीब आधे घंटे की यात्रा के बाद हम चेरापुंजी पहुंच चुके थे। लेकिन वहां बारिश का कही नामो-निशान नहीं था। मैंने अभिजीत जी से पूछा क्या यहां अब हर रोज बारिश नहीं होती। उन्होंने जो बताया उसे जानकर और आश्चर्य हुआ। अभिजीत जी ने बताया कि चेरापुंजी दुनियाभर में सबसे ज्यादा बारिश के लिए जाना जाता है। लेकिन आज यहां पानी की किल्लत है। लोगों को पानी के लिए परेशान होना पड़ता है। हालांकि चेरापुंजी में सालभर के दौरान 11 हजार 770 मिलीमीटर बारिश रिकार्ड कि जाती है।
लेकिन जल संचय की उचित व्यवस्था न होने की वजह से लोगों को पेयजल की किल्लत का सामना करना पड़ता है। हमारा वाहन चेरापुंजी कस्बे से 7 किलोमीटर दूर स्थित नोहकालीकई वाटरफाल के पास रुका। थोड़ी उचाई पर स्थित इस वाटर फाल को देखने के लिए हमें थोड़ा पैदल चलना पड़ा। ऊचांई से गिरते पानी के धार को देखना अच्छा लगता है। यह नज़ारा खुबसुरत था। फोटोग्राफी के बाद आसपास चहलकदमी शुरु हुई। वहां बच्चे तेजपत्ता, दालचिनी और रम की बोतलो में भरी शहद बेच रहे थे। इन बच्चों के आग्रह पर हमनें तेजपत्ता, दालचिनी खरीदी। राजकुमार सिंह सहित कई साथियों ने शहद कि भी खरीदारी की। वहां से हम मावसमाई गुफा देखने गए। चुने से बने इस प्राकृतिक गुफा के भीतर से गुजरना अदभूत अनुभव था।
भाषा नहीं समझे पर भावनाओं से जुड़े दिल
शाम को हमें शिलांग पहुंच कर वहां आयोजित शेंग खासी जनजाति के स्थापना दिवस समारोह में भाग लेना था। खासी मेघालय की प्रमुख जनजाति है। पूर्वोत्तर में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ है। यहां की आधी से अधिक आबादी ईसाई है। लेकिन प्रकृति की पूजा करने वाले खासी जनजाति ने अभी तक खुद को धर्मांतरण से बचाए हुए है। दोपहर 3 बजे से शुरु होने वाले इस समारोह में हम देरी से पहुंच पाए। शाम करीब 5 बजे हम शिलांग के शेनखासी कालेज परिसर में आयोजित भव्य स्थापना दिवस समारोह में पहुंच चुके थे। कार्यक्रम स्थानीय खासी भाषा में चल रहा था। इस लिए वे क्या बोल रहे है, हमें यह तो नहीं समझ आया लेकिन आयोजकों ने जिस गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया उससे हम अभिभूत हुए। आयोजको की तरफ से हमें भोजन कराया गया। हालांकि यहां भोजन करने में हम लोगों ने काफी सावधानी बरती। क्योंकि यहां लोगों के भोजन में कुत्ते, सांप, कीडे सब शामिल रहते हैं। इस लिए हमनें उबले अंडे और सूखे चावल से ही काम चलाया। यहां हो रहे भाषण तो हमें समझ में नहीं आए पर बच्चों द्वारा पेश सांस्क़ृतिक कार्यक्रमों का लुत्फ जरूर उठाया।
दाल-भात-रोटी
शाम के भोजन की व्यवस्था कमल झुनझुनवाला जी ने अरविंदो आश्रम में की थी। इस लिए शेनखासी कार्यक्रम से हम रात के भोजन के लिए अरविंदो आश्रम पहुचे। झुनझुनवाला जी नार्थ ईस्ट पैनोरमा नाम से एक अंग्रेजी पत्रिका भी निकालते हैं। बहुत दिनों बाद हमें घर जैसा खाना दाल चावल, सब्जी रोटी मिली थी। खाना बना भी काफी स्वादिष्ट था। पूर्वोत्तर में गेहू के आटे की रोटी दुर्लभ होती है। यहाँ के लोग रोटी खाते नहीं। इस लिए आप ने होटलो में रोटी की मांग की तो बड़ी मुश्किल से चावल की ही रोटी मिलेगी। भोजन के साथ कमल जी से पूर्वोत्तर खासकर मेघालय के हालात के बारे में चर्चा भी होती रही। पूर्वोत्तर भारत के सात राज्यों में ट्रेन से पहुचने के लिए आसाम की राजधानी गुहाटी तक ही ट्रेन की सुविधा उपलब्ध है। केंद्र सरकार ने 1993 में मेघालय को रेलमार्ग से जोड़ने के लिए 2 हजार करोड़ की योजना तैयार की थी।
लेकिन यहाँ के छात्र संगठनो के कड़े विरोध की वजह से सरकार को अपने कदम पिछे खिचने पड़े थे। इस बारे मेघालय प्लानिंग बोर्ड के सदस्य रह चुके कमल झुनझुनवाला ने बताया कि यहाँ के लोगों को लगता है कि ट्रेन चली तो उस पर बैठ कर देशभर के लोग पूर्वोत्तर पहुँच जायेंगे। इस डर से ट्रेन चलाये जाने का विरोध होता रहा है। झुनझुनवाला कहते है कि प्राकृतिक खूबसूरती वाले पूर्वोत्तर में पर्यटन की अपार सम्भावनाये हैं। पर सुविधाओं के अभाव में उतने पर्यटक नहीं आ पाते। रेल संपर्क होने से यहाँ लोगों की आवाजाही आसान हो सकती है। अरबिंदो आश्रम से राजस्थान विश्राम भवन लौटने पर यहां हमारी मुलाकात भाजपा युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष एजेंस्टर कुरकालोंग से होती है। पत्रकार साथियों के साथ उनसे स्थानीय मसलो, मेघालय में भाजपा की स्थिति आदि को लेकर काफी चर्चा हुई। इस दौरान मैंने कुरकालोंग से भी पूछा कि मेघालय के छात्र संगठन ट्रेन चलाये जाने का विरोध क्यों करते है? इस पर भाजपा युवामोर्चा के अध्यक्ष एजेंस्टर कुरकालोंग ने कहा कि हां यहाँ इस तरह का विरोध रहा है पर अब धीरे धीरे सोच बदल रही है।
मेघालय में पहली पैसेंजर ट्रेन भले ही पिछले साल ही चल सकी पर 1895-96 में आसाम राज्य की तत्कालीन ब्रिटिश प्रांतीय सरकार ने यहाँ रेल परियोजनाओं के लिए एक कंपनी का निर्माण किया था। करीब 125 साल पहले ‘चेर्रा कंपनीगंज स्टेट रेलवे ( सीसीएसआर) ने अपने जमाने में काफी शानदार सफर तय किया था। मेघालय में सीसीएसआर के तहत आवाजाही की शुरुआत छह जून 1886 को हुई थी। चेरापुंजी की तलहटी में बसे एक छोटे से गांव ‘थरिया’ और कंपनीगंज के बीच मुसाफिरों और सामानों को लाने ले-जाने का काम ट्रेन से होता था। कंपनीगंज अब बांग्लादेश में है।
लेखक विजय सिंह कौशिक दैनिक भास्कर, मुंबई में प्रमुख संवाददाता हैं. इनसे संपर्क 09821562156 के जरिए किया जा सकता है.
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