संगम पांडेय-
वरुण शर्मा की प्रस्तुति ‘जब शहर हमारा सोता है’…
दिल्ली में एनएसडी और अन्य सरकारी तंत्र के अलावा भी रंगमंच की एक दुनिया है। इस दुनिया के नए सितारे का नाम है- वरुण शर्मा। यूँ तो वरुण के काम को मैं पिछले आठ-दस साल से दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉलेजों के लिए निर्देशित उनकी प्रस्तुतियों व अन्य स्वतंत्र रंगकर्म के जरिए जानता रहा हूँ, लेकिन अब उन्होंने पेशेवर थिएटर का अपना ठीकठाक ढाँचा खड़ा कर लिया है। कुछ हफ्ते पहले उनकी प्रस्तुति ‘उमराव जान’ देखी थी, जो उस रोज श्रीराम सेंटर में उनके ग्रुप की तीन अलग-अलग प्रस्तुतियों में से एक थी, और इस हफ्ते देखी ‘जब शहर हमारा सोता है’। यह भी एक ही दिन मंचित की गईं तीन भिन्न प्रस्तुतियों में से एक थी।
जाहिर है प्रेक्षागृह के एक दिन के किराए में तीन प्रस्तुतियाँ करना थिएटर की पेशेवर इकॉनॉमी का हिस्सा है, लेकिन वरुण की वास्तविक उपलब्धि है तीनों ही शो में 90 फीसदी से अधिक टिकेटेड दर्शकों की उपस्थिति। और वो भी तब जबकि पीयूष मिश्रा लिखित ‘जब शहर हमारा सोता है’ कोई कॉमेडी या सुखांत नाटक नहीं है।
अगर फिल्म ‘मेरे अपने’ और नाटक ‘रोमियो जूलियट’ को किसी डिब्बे में बंद कर जोर से हिला दिया जाए और फिर खोला जाए तो जो निकलकर आएगा वो होगा पीयूष मिश्रा का यह नाटक। पीयूष मिश्रा ने इसमें हिंदू-मुस्लिम समस्या को एक एक्शन-पैक्ड कलेवर में प्रस्तुत किया है। इसमें जमाने से बेपरवाह मोहब्बत, सीने में सुलगती नफरत, नतीजे में होने वाली हत्याएँ, इमोशनल किस्म के बीच-बचाव आदि मंच पर लगातार हैं। यह करीमपुरा और सुहासधाम मोहल्लों के खंजर और फनियर गैंग का झगड़ा है।
एक गैंग के लड़के को दूसरे गैंग के मुखिया की बहन से प्यार हो जाता है। और वो भी तब जबकि लड़की पहले ही किसी की मंगेतर है। सारे दर्शक सहमे हुए हैं, लेकिन लड़का-लड़की को कोई फिक्र नहीं। ऐसे में अपने ढीलेढाले लॉजिक में ट्रैजेडी की ओर बढ़ते मेलोड्रामा को नियतिवाद के रूमानी गीतों के जरिए संतुलित किया गया है।
वरुण शर्मा की प्रस्तुति में अभिनेताओं की एनर्जी देखते ही बनती है। दोनों ही तरफ के गैंगों में कई तरह के देसी किरदार हैं, जिनके तेवरों और टकराहटों से अच्छी गति बनी रहती है। हालाँकि पिछली देखी प्रस्तुति उमराव जान की तुलना में मंच सज्जा यहाँ काफी कैजुअल है। प्रस्तुति की दूसरी अच्छी बात है चीजों की टाइमिंग।
इस लिहाज से लाइट्स, म्यूजिक, एंट्री-एग्जिट में कहीं कोई लोचा मुश्किल ही दिखता है। एक अच्छा क्राफ्ट वही है जिसमें प्रस्तुति के तमाम पहलू अपनी माकूल जगह पर हों। इसी से इंटेंसिटी आती है और दर्शक उससे बँधता है। वरुण शर्मा, जो अभी खुद भी युवा हैं, ने अपने युवा अभिनेताओं की एक बड़ी टीम के साथ यह काम काफी अच्छे से किया है।
वरुण शर्मा के ऐसे करीब दो दर्जन नाटक हैं जिन्हें वह रह-रहकर रीन्यू और मंचित करते रहते हैं। इतना ज्यादा काम करने के बावजूद थीम, एक्टिंग और टाइमिंग का बुनियादी अनुशासन उनके नाटकों में हमेशा ही देखा जा सकता है। उनकी शुरुआती प्रस्तुतियों से लेकर हाल में देखी इन दोनों प्रस्तुतियों तक में यह चीज रही है। विशेष बात यह भी है कि टिकट से होने वाला कलेक्शन ही उनके ग्रुप के रेवेन्यू का सबसे बड़ा साधन है। कोई ग्रांट उन्होंने अभी तक नहीं ली है।