अजय कुमार, लखनऊ
नयी पीढ़ी का तो पता नहीं, लेकिन एक समय था, जब सुल्तान अहमद उर्फ सुल्ताना डाकू की कहानी खूब सुनी-सुनाई जाती थी। नाटक खेले जाते थे।सुल्ताना डाकू पर फिल्में भी बनीं। बीसवीं सदी के दूसरे दशक का देश का सबसे खतरनाक डाकू, जिससे अंग्रेजी सरकार हिल गयी थी। उसे पकडने के लिए सेना के 300 जवान लगे। लंदन से एक खास अधिकारी फ्रायड यंग बुलाए गए। इस काम में प्रसिद्ध वन्यजीवन विशेषज्ञ और लेखक जिम कार्बेट ने उसकी मदद की थी। सुल्ताना को पकड़ लिया गया और फांसी दे दी गयी। सबसे दुर्दांत और खतरनाक, लेकिन सबसे लोकप्रिय सुल्ताना डाकू को सामजिक कार्यों के कारण उसे ‘ सोशल बैंडिट ‘ के नाम से जाना जाता था। उत्तर प्रदेश में अपने अपार जनसमर्थन के कारण वह कई वर्षों तक पुलिस के साथ आंखमिचौली खेलता रहा था। उत्तर प्रदेश के नजीबाबाद में उसके नाम का एक किला आज भी मौजूद है। जहां वह कुछ दिन छुपकर रहा था।
प्रचलित कथाओं के मुताबिक सुल्ताना डाकू ने बचपन में किसी पडोसी का एक अण्डा चोरी किया था जिस की जानकारी उसकी माँ को हो गयी थी पर माँ ने सुल्ताना को सजा देने के बजाये प्रोत्सान दिया और वह उसकी बुराई को छुपा गयी। यहीं से शुरू हुई थी सुल्ताना के डाकू सुल्ताना बनने की कहानी। कहते हैं कि जब सुल्ताना को फांसी की सजा का एलान हुआ था तो को कोई खौफ, मलाल नहीं था। मगर उसकी शिकायत अपनी माँ से थी कि अगर माँ ने बचपन में अण्डा चोरी के समय सजा दे दी होती तो सुल्ताना आगे चल कर डाकू सुल्ताना न बनता। कहा जाता है कि जब सुल्ताना डाकू को फांसी पर लटकाने के लिये ले जाया जा रहा था तो उसने मॉ से मिलने की अंतिम इच्छा जाहिर की। मॉ को बुलाया गया, सुल्ताना डाकू ने मॉ से कान में कुछ कहते हुए दांतों से उनके कान काट लिये।यह उसकी मॉ के प्रति नाराजगी थी। उसे मलाल था कि क्यों नहीं उसकी मॉ ने अण्डा चोरी के लिये उसे सजा नहीं दी।
यह कहानी सुनाना इस लिये जरूरी था ताकि उत्तर प्रदेश पुलिस की हकीकत को समझा जा सके। सुल्तान अहमद अगर खंूखार डाकू बना तो इसके लिये उसकी मॉ काफी हद तक जिम्मेदार थीं, ठीक इसी प्रकार से अगर उत्तर प्रदेश पुलिस दशकों से अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाहन नहीं कर पा रही है तो उसके लिये तमाम सरकारों को भी क्लीनचिट् नहीं दी जा सकती है। जब सरकारें खाकी वर्दी को अपनी जागिर की तरह इस्तेमाल करेंगी, उनकी अच्छाई-बुराई, भ्रष्टाचार, कर्तव्यहीनता की तरफ से आंखें मंुदे रहंेगी।उनसे (पुलिस) सही-गलत काम करायेंगी तो पुलिस वाले तो अपनी जिम्मेदारियों से विमुख होंगे ही।
उत्तर प्रदेश की जनता का यह दुर्भाग्य है कि यहां का पुलिस महकमा जनता नहीं, नेताओं के इशारे पर और अक्सर उनके ही लिये कदमताल करता है। चौराहों पर कानून को ठेंगा दिखाकर दौड़ने वाले वाहनों और सड़क पर अतिक्रमण करने वालों से दस-बीस रूपये की वसूली से शुरू होने वाला पुलिसिया भ्रष्टाचार आगे पुलिस चौकी-थानों, सी0ओ0 से होता हुआ जो ज्यों आगे बढ़ता है, उसकी विकरालता भी बढ़ती जाती है। जहां लाखों रूपये खर्च करके थानेदार को मनपंसद थाना, वरिष्ठ अधिकारियों को जिले में पोस्टिंग मिलती हो, वहां अपराध कैसे नियंत्रण होंगे। यह यक्ष प्रश्न है। ऐसा नहीं है कि मुख्यमंत्री या उनके मातहत काम करने वाले लोंगो को हकीकत पता नहीं है,लेकिन जब कोई दुस्साहिक घटना होती है तभी सरकार की नींद खुलती है। जैसा की बुलंदशहर में हाईवे पर मॉ-बेटी के साथ सामूहिक दरिंदगी की घटना के बाद देखने में आ रहा है। सीएम ट्वीट से लेकर अधिकारियों की क्लास तक ले रहे हैं।
लोकसभा और राज्यसभा में भी बड़ी-बड़ी तकरीरें हो रही है, लेकिन तमाम दलों के नेताओं को हमेशा की तरह पीड़ित मॉ-बेटी के दर्द से अधिक चिंता अपनी सियासत चमकाने की है। आला अधिकारी सफाई देने में लगे हैं। हर तरफ हड़कम्प मचा हुआ है। एसएसपी समेत सात पुलिस वालों को निलंबित कर दिया गया है, लेकिन सब सामायिक है। कुछ दिनों बाद न मीडिया को याद रहेगा न सरकार और हुक्मरानों को। निलंबित पुलिस वाले कब बहाल हो जायेंगे किसी को पता भी नहीं चलेगा। रह जायेेगी तो बस परिवार की बेबसी, जिसने तीन माह के भीतर न्याय नहीं मिलने पर सामूहिक आत्महत्या की चेतावनी दी है, लेकिन पुलिस ढीला-ढाला रवैया अख्तियार किये हुए है,जिससे लगता है कि जांच सही दिशा की ओर नहीं बढ़ रही है। पुलिस के हाकिम ने जिन तीन लोंगो की पहचान आरोपियों के तौर पर की थी, उसमें से दो आरोपियों को उनके मातहत काम करने वाली पुलिस ने आरोपी ही नहीं माना,जब मीडिया ने इस पर सवाल खड़ा किया तो पूरे अमले ने चुप्पी साध ली गई।
लापरवाही की बात में दम है, क्योंकि सीएम की ट्वीट से पहले यही सब तो हो रहा था। पीड़ित पक्ष को पुलिस गंदे-गंदे, उलटे-सीधे सवालों से टार्चर कर रही थी। यह दुखद है कि उत्तर प्रदेश में अपराध का ग्राफ काफी ऊंचा है, लेकिन इससे भी ज्यादा दुख की बात यह है कि महिलाओं की इज्जत यहां काफी सस्ती हो गई है। शायद ही कोई ऐसा दिन जाता होगा,जब नाबालिग लड़की से लेकर 60 साल की वृद्ध तक के साथ बलात्कार की खबर अखबारों में सुर्खिंया न बनती हों। उस पर सीएम अखिलेश यादव को मलाल इस बात का है कि यूपी की कोई भी घटना पूरे देश में हेडलाइन बन जाती है। अखिलेश नहीं सोचते हैं कि प्रदेश में बलात्कार, हत्या, लूट, सांप्रदायिक दंगे और दलितों के साथ होती अपराधिक वारदातों की बढ़ती घटनाओं के चलतें, उत्तर प्रदेश का एक दहशत से भर देना वाला चेहरा देश-दुनिया के सामने जा रहा है।
सबसे दुखद यह है कि नागरिकों के खिलाफ हो रहे अपराधों में पुलिस, नेता, मंत्री और खुद सरकार भी शामिल हो रही है। हाई-वे पर गैंग रेप की शिकार महिलाओं के परिवार ने किसी तरह की सरकारी आर्थिक सहायता लेने से इंकार कर दिया है। वह सिर्फ इंसाफ चाहते हैं। सरकार को समझना होगा कि बलात्कार सिर्फ कानून में दर्ज एक अपराध भर नहीं है, बल्कि इसका संबध मानसिकता, से भी है, जिसे चंद नोटों से नहीं खरीदा-बेचा जा सकता है। हाईवे की घटना बताती है कि अपराधियों में न तो पुलिस का खौफ का डर हैै, न कानून का। आखिर ऐसा कैसे संभव है कि बदमाशों कव एक गिरोह राष्ट्रीय राजमार्ग से एक परिवार को बंदूक की नोक पर बंधक बना ले और अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देता रहे और पुलिस को कई घंटे तक खबर न लगे? प्रदेश के एक पूर्व प्रमुख सचिव ने सही ही कहा है कि पुलिस जब तक सिर्फ कागजों पर मुस्तैद या गश्त करती रहेगी, तो ऐसी वारादातों से इन्कार नहीं किया जा सकता है। दरअसल,अब समय आ गया है कि जब ऐसी घटनाओं की जांच हो तो उसके साथ-साथ पुलिस अधिकारियों के रवैये को लेकर भी जांच होनी चाहिए। ऐसा करके ही गैर-जिम्मेदार एवं लापरवाह अधिकारियों को सख्त संदेश दिया जा सकता है।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी ‘क्राइम इन इंडिया’ के आकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में अपराध मामलों में पिछले छह सालों में बेहद तेजी आई है, लेकिन साल 2013 में तो अपराधों के पंख ही लग गये।एक तरह से देश के सबसे बड़े राज्य के लिए यूपी के लिए साल 2013 काला साल ही रहा, क्योंकि इस साल 2.26 लाख आपराधिक मामले दर्ज किए गए, जिसमें हत्या, बलात्कार, किडनैप जैसे संगीन अपराध शामिल हैं।
यदि प्रदेश में अपराध की स्थिति पर एक नजर डालें तो, प्रदेश में सबसे ज्यादा महिलाएं सुरक्षित नहीं है। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक यूपी में रेप के मामलों में 55 फीसदी बढ़ोत्तरी हुई है। यही नहीं महिलाओं के खिलाफ सामाजिक अपराधों में भी खासी बढ़ोतरी दर्ज की गई है, इसमें दहेज, शारारिक शोषण जैसे मामले तेजी से बढ़े हैं। अखिलेश सरकार प्रदेश में सामाजिक तानेबाने और सांप्रदायिक सौहार्द को भी बनाए रखने में पूरी तरह से नाकाम रही है। मुरादाबाद और सहारनपुर कांड की सांप्रदायिक वारदातों का असर आज भी प्रदेश में दिखाई देता है। एनसीआरबी के आकड़ों के मुताबिक अखिलेश राज में सांप्रदायिक दंगों में बढ़ोत्तरी आई है। एनसीआरबी के आकड़ों के मुताबिक साल 2012 में 5,676 दंगों के मामले दर्ज किए गए, तो वहीं साल 2013 में यह आंकड़ा बढ़कर 6089 हो गया जबकि प्रदेश में भ्रष्टाचार भी कम नहीं है।
हाईवे पर कार से खींचकर मां-बेटी के साथ सामूहिक दुष्कर्म की दुस्साहसिक वारदात रोंगटे खडे़ कर देने वाली है। बदमाश इतने बेखौफ थे कि उन्होंने वारदात करने के बाद मौके पर ही आराम से शराब पी। प्रातःसाढ़े तीन बजे तक अन्य परिवारजनों को बंधक बनाये रखा। बदमाशों के जाने के बाद पीड़ितों ने किसी तरह वारादत की जानकारी पुंलिस को दीं। पहले तो पुलिस आदतन मामले के दबाने की कोशिश में जुटी रही और फिर मेडिकल कराने के बाद पीड़िता परिवार को जबरन शाहंजहांपुर रवाना कर दिया गया। थाने में दी गई तहरीर में क्या लिखा है, पुलिस यह भी बताने को तैयार नहीं है। इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है कि प्रदेश में अपराध बेतहाशा बढ़ रहे है। अपराधियों के हौसले बुलंद है। लूटपाट तो आम हो गई है। बदमाशों के हौसले इतने बढ़े हुए है कि पुलिस वालों को भी वह निशाना बना रहे हैं, भी मारे जा रहे है। व्यापारी भी असुरक्षित है। उनको तंग किया और उनका पैसा लूटा जा रहा है। जहां कहीं भी उत्तर प्रदेश की चर्चा होती है। कानून व्यवस्था की बदहाली और अपराध नियंत्रण पर पुलिस की नाकामी का मुद्दा प्रमुख होता है। अखिलेश सरकार ने चार वर्ष से अधिक का समय पूरा कर लिया है। अगले वर्ष के शुरुआती महीनों में चुनाव होने हैं। चुनावी मौसम में इस तरह की वारदातें खास महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं प्रदेश की आधी आबादी को सपा से विमुख कर सकती हैं।
लेखक अजय कुमार उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं.