विनोद भारद्वाज-
पत्रकारों से सरकारी छल…योगी बाबा ने तो पत्रकारों को ही टोपी पहना दी । आखिर मान्यता प्राप्त पत्रकार होते ही कितने हैं ! मान्यता के खुद ही ऐसे अस्वाभाविक और बचकाने नियम बना रखे हैं सरकार ने । बड़े से बड़े स्थापित अखबार में भी शायद मात्र 6+1 को ही मान्यता देने का हिटलर शाही फार्मूला है सरकार का !
सच्चाई यह है कि किसी भी प्रिंटिंग यूनिट में ये संख्या 25 से 35 तक रहती है । कोरोना काल में ये घटकर 20 से 25 तो अब भी है । इनमें से सम्पादक के 7 कृपापात्रों को ही सरकारी मान्यता मिल पाती है । ऐसे में क्या बाकी 15 – 20 पत्रकार क्या असली पत्रकार नहीं होते !
आखिर प्रदेश सरकार ईमानदारी से पत्रकारों के कल्याण की योजनाएं क्यों लागू नहीं करना चाहती ? जिन पत्रकारों का प्रोविडेंट फंड हर माह कटता है और जिन पर पे स्लिप भी होती है , उन्हें पत्रकार मानने से सरकार सरकार इन्कार कैसे करती रहती है ? जो पत्रकार प्रशासन को रोज फील्ड में दिखते हैं और जो रोज मंत्रियों की कवरेज कर रहे हैं , जिला सूचना अधिकारी को क्या वे दिखाई नहीं देते ! जो पत्रकार अपना पूरा जीवन किसी संस्थान के स्टॉफर के रूप में होम करने के बाद रिटायर होकर प्रोविडेंट फंड से प्रतीकात्मक पेंशन” ले रहे हैं और अभी भी सक्रिय हैं, उन्हें पत्रकार के लाभ देने से बचने के चोर रास्ते क्यों बनाती रहती है प्रदेश सरकार ?
पत्रकार संगठनों को मान्यता के नियमों में यथार्थ आधारित बदलाव करने और कार्यरत पत्रकारों को सरकारी मान्यता सुनिश्चित कराने की मांग मनवाने के लिए कमर कसनी होगी , तभी पत्रकारों का यथार्थ में भला हो सकता है । कई अन्य राज्यों की भांति यू पी में भी पत्रकारों के लिए कम से कम 10 हजार रुपए पेंशन सुनिश्चित कराने की बहु प्रतीक्षित लड़ाई भी पत्रकारों को लड़नी अभी बाकी है ।
सन 1976 से अब तक के अपने 44 साल के पत्रकारिता काल में स्थापित बड़े अखबारों में क्राइम रिपोर्टर , चीफ रिपोर्टर , डेस्क इंचार्ज , संपादकीय प्रभारी , स्थानीय संपादक और प्रवन्ध संपादक रहते हुए मैंने तो कभी खुद ही सरकारी मान्यता नहीं ली । सच ये है कि 75 से 80 % असली पत्रकारों को कभी सरकारी मान्यता मिल ही नहीं पाती , क्यों कि जिम्मेदारियों से बचने के लिए सरकार ने सबको मान्यता देने से बचने का सरकारी लेवी फार्मूला लागू कर रखा है ।
लेखक विनोद भारद्वाज आगरा के वरिष्ठ पत्रकार हैं।