विनय मौर्या-
यह बिल स्लीप फेसबुक पर तैर रहा है। अगर इसमें से “शबरी” शब्द हटा दिया जाय तो इसमें कहने को कुछ खास नही रह जायेगा। अगर शबरी की जगह ‘स्वीट’ या ‘स्वाद’ रसोई होता तो आप सवाल करते नहीं न। दरअसल लोग धर्म से धंधा चला रहे लोगों से दयालुता नैतिकता धार्मिकता की अपेक्षा करते हैं। जबकि वह धर्म से अपना व्यापार चला रहा होता है।
कुछ महीने पहले हमारे एक फेसबुक मित्र बनारस आयें बाबा विश्वनाथ दर्शन की इच्छा हुई। मंदिर के पास माला फूल बेचने वाले ने एक छोटे डिब्बे में दस पुराने पेड़े कुछ बेलपत्र एक माला और एक बड़े पुरवा में जल मिश्रित दूध का पांच सौ रुपये बताया जबकि कुल उड़ के उसकी कीमत 50 से 100 रुपये तक बहुत था। मैंने दुकानदार से सवाल करना चाहा कि इतना महंगा क्यों तो मित्र ने दर्शन पूजन धर्म का हवाला देकर चुप करा दिया। जबकि सवाल धर्म से नही धर्म से धंधा करने वाले से मैं कर रहा था। मेरा एक रिश्तेदार है वैतनिक एक मंदिर की साफ सफाई करता है। लोग उसे भी आस्थावान समझते हैं। ऐसे ही एक परिचित है एक मंदिर का पुजारी उसे मंदिर से खासा लाभ होता है। वहां उसकी इज्जत है लोग उसे धार्मिक मानते हैं। मगर व्यसन बताऊंगा तो लोग यकीन नही करेंगे।
देखिये धर्म और धंधा अलग-अलग है। जरूरी नही की जो धार्मिक दिखे या धार्मिक स्थल से कमाए वह शुद्ध धार्मिक ही हो। धर्म और धंधे में फर्क समझना जरूरी है। मगर पता नहीं क्यों लोग धर्म से धंधा करने वाले से सवाल नही करते बल्कि धर्म के नाम पर आंख मूंद लेते हैं।
धर्म आस्था का विषय है। मगर कोई धर्म से कमाई करता है तो वह आस्तिक नही व्यापारी होता है उसे उसी नजरिए से देखिए।
विनय मौर्या
बनारस।