सुभाष सिंह सुमन-
दुनिया के ज्यादातर फसाद श्रेष्ठताबोध से हुए. यूरोप को लगा वह श्रेष्ठ है. चल दिया बाकी दुनिया को भी जबरदस्ती सभ्य बनाने. इस चक्कर में स्लेवरी जैसी निकृष्ट चीजें आईं. मनुष्यों की तो कई प्रजातियों का ही नाश हो गया. हिटलर भाई को लगा उसकी नस्ल सबसे श्रेष्ठ है. परिणाम यातना शिविर, दूसरा विश्व युद्ध. श्रेष्ठ होने का बोध छोटे लोगों को ज्यादा होता है… कम समझ वाले लोगों को, छोटी बुद्धि वाले लोगों को.
यूरोप के ही उदाहरण से फर्क समझिए. यूरोप की छोटी प्रजाति दुनिया को जबरन सभ्य बनाने चली. उसी यूरोप में कुछ उदात्त दृष्टि वालों ने बाहर की दुनिया को देखा तो उन्हें ‘कल्चर’ का परिचय प्राप्त हुआ. जिस चीज को कुछ लोगों ने असभ्य, अनसिविलाइज्ड कहा, उसे कुछ दूसरे लोगों ने कल्चर बताया. यह फर्क आता है दृष्टि से. जिसका दायरा व्यापक होगा, उसे खुद अपने छोटेपन का भान हो जाएगा और तब उसे श्रेष्ठताबोध वाली बीमारी नहीं लग पाएगी. बड़ा बनने, दायरा बढ़ाने के लिए सबसे आसान तरीका है घूमना. आप जितना घूमेंगे, जितनी दुनिया देखेंगे, कल्चर के उतने आयाम दिखेंगे. कल्चर को टुकड़ों में देखिए- खान-पान, पहनावा, बोली, रीति-रिवाज, पूजा-पद्धति वगैरह. आप जब देखेंगे तो पता चलेगा कि आपके लिए जो चीजें पाप हैं, वो कहीं और पुण्य हो जाती हैं. उदाहरण- उत्तर में सगोत्रीय विवाह वर्जित है, दक्षिण में ननिहाल में संबंध बन जाता है. देश के एक हिस्से में गाय पवित्र है, तो कई हिस्सों में वह खाद्य है. बोलचाल में ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं कि आपके यहां आम इस्तेमाल का शब्द कहीं और जाकर गाली बन जाता है.
ये अंतर किसी को छोटा या बड़ा नहीं बनाते हैं. हर कोई अपनी हद में उत्तम प्रकृति का है. ये समझ पाने के लिए आपको दायरा बढ़ाना होगा. उसके लिए आपको घूमना पड़ेगा. घूम नहीं सकते तो किताबें पढ़िए. हम औसत मनुष्यों के लिए ही पुस्तकों का सृजन हुआ है. हर इंसान को तब तक घूमते या पढ़ते रहना चाहिए, जब तक उसे इस बात की समझ नहीं आ जाती कि उससे अलग कपड़े पहनने वाले, उससे अलग भोजन करने वाले, उससे अलग भगवानों को पूजने वाले, उससे अलग दिखने वाले… अलग हो सकते हैं, लेकिन छोटे या बड़े कतई नहीं. अगर आपको इस तरह का कोई फर्क दिखता है तो खूब मेहनत करिए घूमने-पढ़ने पर, क्योंकि आप इवॉल्यूशन में पिछड़ गए जीन हैं.
हिन्दी में इतनी सारी बात एक शब्द में कह सकते हैं- कूपमंडूक. जिस मेंढक ने कुएं के बाहर नहीं देखा, उसके लिए कुआं ही पूरा ब्रह्मांड है और वह खुद उसका रचयिता.
संलग्न तस्वीर में ज्ञात ब्रह्मांड है. ज्यादा बड़ा नहीं है. बस ऐसे मान लीजिए कि आप अभी किसी भी तरफ प्रकाश की गति से निकल लें तो 45.7 अरब साल में ज्ञात ब्रह्मांड की उधर वाली हद तक पहुंच जाएंगे. अभी मनुष्यता की सामूहिक चेतना ने इतना ही विकास किया है. ये उसकी हद है. मनुष्यता को सामूहिकता का पहला बोध घर मने पृथ्वी से बाहर निकलने के बाद हुआ. ज्ञात ब्रह्मांड में पृथ्वी की हैसियत धूल के एक कण से भी गई-गुजरी है. खूब संभव है कि इस हद के बहुत पार तक कोई हद ही न हो और असल ब्रह्मांड में ज्ञात ब्रह्मांड की हैसियत धूल बराबर हो. 2024 में मनुष्यता की हद बढ़े. यह आपके लिए दायरा-दृष्टि बढ़ाने वाला साल बने. यही शुभकामनाएं.
(नोट- यहां लिखी गई बातें फ्लैट-अर्थर्स, वीगन-नाजियों जैसे इवॉल्यूशन में पिछड़े जीन के लिए वर्जनाएं हैं. तस्वीर phys.org से उठाए हैं.)