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दिल्ली

सिद्धू ने कांग्रेस के लिए किया ही क्या है, आलाकमान उन पर मेहरबान क्यों?

रीवा सिंह-

कांग्रेस के पास मौका है लेकिन स्ट्रैटजी की कमी साफ़ दिखायी पड़ती है। दल में पारस्परिक मेलजोल नहीं है, अनुशासन नहीं है, ध्येय है लेकिन उसके लिए कोई मैपिंग नहीं है।

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लालकृष्ण आडवाणी ने जिस TINA (There is no alternative) फ़ैक्टर का ज़िक्र किया था वह सच्चाई है भारतीय राजनीति की। भाजपा व कांग्रेस के अतिरिक्त कोई दल इतना विस्तृत और प्रभावशाली नहीं है कि केंद्र की सत्ता पर क़ाबिज़ हो सके। सशक्त शीर्ष का न होना नहीं बल्कि मज़बूत स्ट्रैटजी का न होना कांग्रेस की इस परिणति की ज़िम्मेदार है।

2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स के बाद आने वाले कई वर्षों तक कॉमनवेल्थ घोटाला, कोलगेट स्कैम, 2 जी स्कैम जैसे विषय शीर्ष पर थे। पब्लिक को लगता था सरकार घोटालों में सराबोर है और परिवर्तन ही विकल्प है। दो कार्यकाल पूरा करने के बाद यूपीए को सत्ता से जाना ही है, भाजपा ने प्रचार-प्रसार में जी जान लगा दिया और नतीजा 2014 के चुनाव हैं। प्रचार और विचार की दिशा बदलने में वर्षों लगते हैं, कुछेक महीनों में कायापलट संभव नहीं। कांग्रेस को यह बात समझ आती तो यूपी चुनाव की तैयारी पिछले वर्ष शुरू हो गयी होती और पिछले महीने मीटिंग बुलाकर प्रियंका गाँधी को न कहना पड़ता कि सबलोग काम पर लग जाएँ। बारात द्वार पर पहुँच जाए तब प्रबंध नहीं किया जाता।

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मोदी सरकार की नाकामियों की फ़ेहरिस्त भी छोटी नहीं है लेकिन उसे लेकर जिस तरह का घेराव होना चाहिए था, नहीं हो पा रहा है। कांग्रेस आपसी कलह सुलझाने में ही उलझी है। भाजपा की नीति यह है कि उनका बड़े से बड़ा नेता पार्टी कार्यकर्ता है, जबकि कांग्रेस में मामूली कार्यकर्ता भी नेता ही बने घूमता है। कोई ठोस रणनीति नहीं है कि कैसे काम करना है और इस कारण ही देश की प्रमुख पार्टी प्रमुख विपक्ष न होकर महागठबंधन का हिस्सा हो गयी। यह उस बड़े दल का, जिसका गौरवशाली इतिहास रहा है, संकुचन ही था।

अगले वर्ष उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। यूपी में भाजपा और सपा का मुक़ाबला है, कांग्रेस तीसरे मोर्चे की तरह है। बसपा फ़िलहाल उतनी सशक्त नहीं लग रही। ओवैसी के यूपी चुनाव में शामिल होने से मुस्लिम वोट बैंक बँटेगा या नहीं यह देखना दिलचस्प होगा। जो पश्चिम बंगाल में AIMIM के परिणाम याद करके उसे नकार रहे हों उन्हें उस दल का बिहार चुनाव भी याद रखना चाहिए। उत्तराखण्ड में भी कांग्रेस की स्थिति बहुत मज़बूत नहीं है, भाजपा भी डाँवाडोल ही है क्योंकि कोई मुखर चेहरा नहीं है और अंतर्कलह अलग से। कुल मिलाकर कांग्रेस की स्थिति यदि किसी राज्य में अच्छी है तो वह है पंजाब और पंजाब में उसे किसानों का पूरा समर्थन मिल सकता है जो अब भी आंदोलन कर रहे हैं।

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वहाँ सबकुछ उनकी ओर होते हुए भी उलझने हैं, कांग्रेस को सबकुछ समेटकर मुट्ठी में बाँधना और भींचना नहीं आता। कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू की खींचतान किसी से छिपी नहीं है। कैप्टन ने कांग्रेस के लिए क्या किया यह सर्वविदित है। पिछले विधानसभा चुनाव में नीति उनकी थी, तैयारी उनकी थी और जीत भी।

2018 में पाकिस्तान के सेना प्रमुख कमर बाजवा और सिद्धू का गले मिलना ख़ूब सुर्खियाँ बटोर रहा था। कैप्टन ने तभी सिद्धू के इस कदम को ग़लत ठहराया था और 2019 के चुनाव के बाद उन्होंने कहा कि मैंने पहले ही कहा था पंजाब जवानों की धरती है, लोग कभी पसंद नहीं करेंगे कि पाक सेना से गले मिला जाए।

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सिद्धू ने कैप्टन की किसी बात से कभी इत्तेफ़ाक़ रखा हो ऐसा देखने को नहीं मिला। अभी उनपर प्रदेश अध्यक्ष बनने का ख़ुमार है। आलाकमान ने डिप्टी सीएम पद का आश्वासन दिया है लेकिन हुज़ूर को अध्यक्ष ही बनना है। दूसरी ओर कैप्टन की दलील यह कि अध्यक्ष हिंदू होना चाहिए ताकि हिंदू वर्ग उपेक्षित महसूस कर भाजपा की ओर न जाए।

दोनों नेताओं के दल में किये गये योगदान का आँकलन करें तो समझ नहीं आता कि कांग्रेस आलाकमान नवजोत सिंह सिद्धू पर इतनी मेहरबान क्यों है, अबतक उन्होंने पार्टी के लिए क्या ख़ास काम किया है। सिंद्धू को मुँहमाँगी मुराद मिलने की सुगबुगाहट में अंतर्विरोध और बढ़ गया है कि उन कर्त्तव्यनिष्ठ नेताओं का क्या जो दशकों से लगन व परिश्रम के साथ लगे हैं। उत्तराखण्ड में नेताओं के विरोध के बाद कांग्रेस के क्षेत्रीय नेताओं को भी सुर मिल गया है कि अगर मोदी और शाह के फैसले का विरोध हो सकता है तो कांग्रेस में क्यों नहीं।

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