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दैनिक भास्कर स्थापना दिवस समारोह की तस्वीरों में सुधीर अग्रवाल क्यों नहीं दिखे?

ऋषिकेश राजोरिया-

अखबार दैनिक भास्कर का स्थापना दिवस मालिकों ने धूमधाम से मनाया। असंख्य गणमान्य लोगों को समारोह में आमंत्रित किया। इस अवसर पर अस्सी पेज का अखबार छापा जो बहुत कम बंटा। हॉकरों ने रद्दी बेचकर अच्छी कमाई कर ली। भव्य समारोह हुआ। बड़े-बड़े लोग पधारे। अखबार के मालिकों ने उन बड़े-बड़े लोगों के साथ तस्वीरें खिंचवाई और अपने ही अखबार में छापी। अखबार के मालिक मेजबान थे। बड़े-बड़े लोग मेहमान थे। जबर्दस्त समां बंधा।

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अखबार के मालिकों ने साबित किया कि वे समाज के सम्माननीय लोग हैं। उन्होंने बहुत से श्रेष्ठिजनों को आमंत्रित कर उन सभी बदनामियों पर निर्लज्ज तरीके से पर्दा डालने की कोशिश की, जो उनके दफ्तरों के भीतर चलती रहती हैं। उन्होंने कई पत्रकारों के करियर का सत्यानाश कर दिया है और अपना धंधा बढ़ाने के लिए कई पत्रकारों का इस्तेमाल किया है। उन्हें अपने पेशे के साथ बेईमानी करने के लिए विवश किया है। उनके पैकेज को देखकर कई अच्छे-भले पत्रकारों का ईमान डोला है। इस अखबार के मालिक पत्रकारों के लाखों-करोड़ों रुपए हजम कर चुके हैं और अब तक डकार नहीं ली है। मीडिया में नौकरी की तलाश में भटकने वाले पत्रकारों को जाल में फंसाकर उनका शोषण करने में दैनिक भास्कर के मालिक कुशल है।

स्थापना दिवस समारोह की तमाम तस्वीरों में एक बात खटकी। ज्यादातर तस्वीरों में गिरीश अग्रवाल और पवन अग्रवाल प्रमुखता से दिख रहे थे। सुधीर अग्रवाल तस्वीरों में कहीं नजर नहीं आ रहे थे। यह अखबार द्वारका प्रसाद अग्रवाल ने शुरू किया था। उनके पुत्र रमेश अग्रवाल ने इसे आगे बढ़ाया। पारिवारिक विवादों से जूझते इस अखबार को रमेश अग्रवाल के पुत्र सुधीर अग्रवाल ने नया स्वरूप दिया और इस तरह दैनिक भास्कर ने हिंदी पत्रकारिता की तस्वीर बदल दी। अखबार को रद्दी की श्रेणी में लाकर पत्रकारिता का पूरा कचड़घान कर दिया।

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पहले अखबार निष्पक्ष रूप से समाज, सरकार और राजनीति को प्रभावित करने वाली घटनाओं के समाचार छापते थे। विभिन्न मुद्दों पर लोगों के विचार छापते थे। वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उचित मंच हुआ करते थे। कहा जाता था कि मीडिया सरकार पर नजर रखता है। रद्दी छापने वाले अखबार ने धारणा बदली। देश की और समाज की समस्याओं की बजाय टर्नओवर पर ध्यान दिया। अंधाधुंध प्रचार के जरिए अखबार को तमाशा बनाकर रख दिया।

इतने भव्य समारोह में सुधीर अग्रवाल की मौजूदगी नहीं होना एक आश्चर्यजनक घटना है। सुधीर अग्रवाल के बारे में जहां तक उनके संपर्क में रहने वाले लोग बताते हैं कि वह एकदम निर्व्यसन और धनी बनने के धुनी व्यक्ति हैं, जो ठान लेते हैं, करने की कोशिश करते हैं। उन्होंने अखबार को सिर्फ धन अर्जित करने का माध्यम बनाने की ठानी और सफल हुए। आज वह देश में सबसे ज्यादा रद्दी छापने वाला हिंदी अखबार बन गया है।

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ऐसे सुधीर अग्रवाल स्थापना दिवस समारोह में नहीं दिखे तो इसके क्या कारण हो सकते हैं? क्या उनकी तबीयत ठीक नहीं है? या उन्हें कार्यक्रमों में बड़े लोगों के साथ फोटो खिंचाने का शौक नहीं है? या फिर अखबार के स्वरूप को लेकर परिवार में कोई बड़ा विवाद पदा हो गया है? कुछ भी हो सकता है। दरअसल दैनिक भास्कर आज जिस स्वरूप में हैं, वह सुधीर अग्रवाल की मेहनत है और उनके भाई गिरीश अग्रवाल, पवन अग्रवाल का सहयोग है।

पहले तीनों भाईयों ने अखबार की 3 प्रमुख शाखाएं संभाल रखी थीं। संपादकीय विभाग सुधीर अग्रवाल की निगरानी में था। विज्ञापन विभाग गिरीश अग्रवाल संभालते थे और प्रोडक्शन विभाग पवन अग्रवाल के सुपुर्द था। तीनों भाइयों ने कमाल का बिजनेस किया। जहां दूसरे अखबार खबरें छापने के लिए निकलते थे, वहीं दैनिक भास्कर विज्ञापन छापने के लिए निकलने लगा। ऐसी खबरें प्लांट होने लगीं, जिनसे व्यापारियों को फायदा हो। इस अखबार में किसी भी वार को पुष्य नक्षत्र के साथ जोड़कर खरीदारी के लिए शुभ मुहूर्त घोषित करने वाली खबरें अक्सर छपती रहती हैं।

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इस अखबार के स्थापना दिवस समारोह की तस्वीरों में सुधीर अग्रवाल गैरहाजिर क्यों है, यह एक ज्वलंत प्रश्न है। अखबार में भी उनके बारे में कोई समाचार नहीं है। जो भी लोग समारोह में हाजिर हुए, उन्होंने गिरीश और पवन को मालिकों के रूप में देखा। बहुत से लोग नहीं जानते हैं कि इनसे बड़े सुधीर हैं। सुधीर अग्रवाल को इस समारोह में होना चाहिए था। क्यों नहीं थे, यह जांच-पड़ताल का विषय है, क्योंकि वह मामूली व्यक्ति नहीं हैं। वह इस देश के सभी बड़े हिंदी अखबारों के मालिकों के वंशजों के प्रेरणास्रोत हैं।

सुधीर अग्रवाल से मैं एक बार मिला था। उनके अखबार में नौकरी शुरू करने के बाद मेरे साथ बहुत बड़ी बेईमानी हुई थी, जिसकी शिकायत करने के लिए उनसे मिलना पड़ा। उनके केबिन में मेज के पीछे स्वामी विवेकानंद की बड़ी तस्वीर और सामने मेज पर बड़े कटोरे में पानी पर तैरती लाल गुलाब की पंखुडि़यां। स्वभाव में हेकड़ी। उन्होंने मेरी शिकायत को सीधे एनके सिंह को ट्रांसफर कर दिया था, जो उस समय स्थानीय संपादक थे। एनके सिंह ने ही मुझे नौकरी पर रखा था और फिर वेतन में लोचा हो गया था। एनके सिंह ने कहा था कि यह मेरी गलती नहीं है।

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इस अखबार के कारण ही राजस्थान में बसना पड़ा और बीस साल में यहां जो पत्रकारिता का माहौल देखा, उसके बाद यही कहा जा सकता है कि सुधीर अग्रवाल ने जयपुर को केंद्र बनाकर हिंदी पत्रकारिता का जिस कदर व्यापारीकरण किया है, वह अद्भुत है। आजकल माल कमाने के चक्कर में सही-गलत कोई नहीं देखता। समाज की विचारधारा भी इसी दिशा में जा रही है और सुधीर अग्रवाल ने इसी का फायदा उठाने के लिए अखबार को समाज के लिए मूल्यवान साहित्य बनाने की बजाय रद्दी का ढेर बनाकर रख दिया।

अब तो बहुत कमा लिया है। अब तो दैनिक भास्कर के मालिकों को सुधर जाना चाहिए। जब वे नहीं रहेंगे, तो उन्हें क्यों याद किया जाएगा? यह उन्हें सोचना चाहिए। क्या रामनाथ गोयनका, कर्पूरचंद कुलिश, नरेन्द्र तिवारी, लाभचंद छजलानी, मायाराम सुरजन, दुर्गाप्रसाद चौधरी, हजारीलाल शर्मा जैसे अखबार मालिकों की श्रेणी में उनका नाम रखा जा सकता है? जहां तक पैसा कमाने की बात है, वह तो अखबार छापे बगैर भी कमाया जा सकता है और लोग कमा ही रहे हैं। पत्रकारिता का सत्यानाश करने की क्या जरूरत है?

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