महेश मिश्रा-
जॉन स्टाइनबेक का क्लासिक The Grapes of Wrath पढ़ा। 1938-39 में यह उपन्यास आया था और 1929 की महामन्दी की पृष्ठभूमि पर लिखा गया था।
उपन्यास विशेष और सामान्य (particular and general) को एक साथ लेकर चलता है। जोड परिवार की दुरवस्था और ओकलाहामा के ग़रीबों की परिस्थितियों की कहानी और शोषकों के करतब….. गरीबों की टोली बेहतर अवसरों की तलाश में कैलिफोर्निया जाते हैं… लाखों परिवार पलायन करते हैं और वहाँ वे वैसे दुःस्वप्न से गुज़रते हैं जिनका अनुभव केवल ग़रीब ही कर सकते हैं। दुनिया भर के सारे ग़रीब वैसे ही अनुभवों से गुज़रते हैं जैसा जोड परिवार अनुभव करता है।
स्टाइनबेक पाठक को सहलाने वाले लेखक नहीं हैं वे पाठक की आत्मा को चीर कर रखने में कोई संकोच न करने वाले लेखक हैं। उन्हें बीसवीं शताब्दी का सबसे महान अमेरिकन लेखक यूँ ही नहीं माना जाता है।
वे अपने को प्रतिभाशाली लेखक कहलाने के बज़ाय ईमानदार लेखक कहलाना पसन्द करते हैं। उन्हें इस उपन्यास के लिए पुलित्जर पुरस्कार मिला था 1940 में, उनके समस्त लेखकीय अवदान के लिए 1962 का नोबेल भी मिला था।
यह उपन्यास रुलाने वाला है।
यह जटिल लेखन है कलोकिअल लहज़ा प्रयोग करने की वजह से भी… और साथ ही भावनाएँ जटिल और उलझी हुई सी होती हैं और उनका भाषायी निरूपण कहीं अधिक कठिन होता है। कम ही लेखक उसे इतनी कुशलता से साध पाते हैं। स्टाइनबेक सफल होते हैं।
पूँजीवाद के पैंतरे वे अच्छा पकड़ते हैं और मज़दूर आन्दोलन के उपजने को नज़दीक से और तार्किक रूप से देख पाते हैं। उनकी विवशता समझते हैं लेकिन उनकी मानवीयता को भी उतनी स्वाभाविकता से देख पाते हैं (“If you’re in trouble or hurt or need—go to poor people. They’re the only ones that’ll help—the only ones.”).
स्टाइनबेक अपने लेखन में क्रिश्चियन प्रतीकों का प्रयोग करते हैं और उसके पैरेलल लौकिक जीवन लेकर चलते हैं, शायद बेहतर समझाने के लिए… लेकिन मेरी समझ में उन प्रतीकों का खोखलापन वे दिखाते हैं अपने सच्चे लौकिक लेखन से…जैसे द ग्रेप्स ऑफ रैथ में केसी अपने धार्मिक प्रवचन के व्यवसाय को छोड़कर सामान्य जीवन जीने की कोशिश करता है और उसके द्वारा बोले गये बहुत सामान्य से शब्दों से यह स्पष्ट कर ले जाते हैं कि उसका धार्मिक जीवन खोखला और झूठा था, सच्चा जीवन लोगों के बीच में हो सकता है, दूसरों के सुख दुःख में शामिल होकर ही महसूस किया जा सकता है, जिया जा सकता है।
इस पुस्तक को पढ़ने के लिए आग्रह करते हुए इसका एक छोटा और पुस्तक को समझने में मदद करने वाला हिस्सा साझा करना चाहेंगे।
Some of the owner men were kind because they hated what they had to do, and some of them were angry because they hated to be cruel, and some of them were cold because they had long ago found that one could not be an owner unless one were cold. And all of them were caught in something larger than themselves. Some of them hated the mathematics that drove them, and some were afraid, and some worshiped the mathematics because it provided a refuge from thought and from feeling. If a bank or a finance company owned the land, the owner man said, The Bank – or the Company – needs – wants – insists – must have – as though the Bank or the Company were a monster, with thought and feeling, which had ensnared them. These last would take no responsibility for the banks or the companies because they were men and slaves, while the banks were machines and masters all at the same time. Some of the owner men were a little proud to be slaves to such cold and powerful masters. The owner men sat in the cars and explained. You know the land is poor. You’ve scrabbled at it long enough, God knows.