दिनेश श्रीनेत-
जब हम बहुत सालों बाद अपने अतीत को देखते हैं दो हम दरअसल एक नहीं दो होते हैं. एक वो जो कहीं बीते समय की स्मृतियों में छूट गया है और एक मन वो जो उसे तटस्थ होकर देख रहा है. एक वो जो दिख रहा है, एक वो जो मन के भीतर चल रहा है.
भागते समय और बीती स्मृतियों का यह खेल हम कभी समझ नहीं पाते. जो छूट रहा है उसे समेटना चाहते हैं, जो बह रहा है उससे निर्लिप्त रहते हैं. हम चलते-चलते कहीं और पहुँच जाते हैं. न सिर्फ अपने उद्गम (फ़िल्म इस शब्द पर जोर देती है) से दूर, बल्कि अपने आप से भी बहुत दूर. इतनी दूर कि जब पलटकर खुद को जानने की कोशिश करते हैं तो असंभव सा लगता है. स्मृति भी धीरे-धीरे साथ छोड़ देती है.
डिमेंशिया सिर्फ एक न्यूरोलॉजिकल प्रॉब्लम नहीं, यह जैसे हमारे समय का भी संकट है. फिल्म की नायिका की तरह हम सब कहीं न कहीं डिमेंशिया के शिकार हैं. ‘थ्री ऑफ अस’ वर्तमान और अतीत के बीच झूलते कुछ लोगों की कहानी है. बच्चों को छोड़ दें तो पूरी फिल्म में सिर्फ चार प्रमुख पात्र हैं. फिल्म आरंभ होती है मुंबई के मध्यवर्गीय जीवन की एकरसता और फ्लैट की दीवारों के भीतर सिमटे जीवन से. शैलजा (शेफाली शाह) धीरे-धीरे स्मृतिलोप की समस्या से घिर रही है. वह लगातार इसके बीच खुद को संयत करके जीने के लिए प्रयासरत है.
इसी किसी जद्दोजेहद के बीच उसे ख्याल आता है कोंकण के एक कसबे में बिताए गए अपने कुछ दिनों का. वह अपने पति दीपांकर (स्वानंद किरकिरे) से अनुरोध करती है कि वह एक हफ्ते की छुट्टी लेकर उसे वहां ले चले. जब वे वहां पहुँचते हैं तो शैलजा को अपने बचपन के दोस्त प्रदीप कामत (जयदीप अहलावत) की तलाश है, और वो मिल भी जाता है. यहां से तीनों पात्रों की एक नई यात्रा शुरू होती है, जिसे जानने के लिए यह फिल्म देखी ही जानी चाहिए.
निर्देशक अविनाश अरुण ने पात्रों की इस यात्रा को बड़ी ही संवेदनशीलता से बयान किया है. बचपन को फिर से जीने और देखने की लालसा है. सबके अपने अतीत हैं, उस अतीत में खुशियां भी हैं और उसके स्याह पक्ष भी हैं. प्रदीप शौकिया कविताएं लिखता है. उसकी पत्नी एक कविता में उद्गम शब्द का अर्थ पूछती है. यह शब्द फिल्म में प्रमुखता से गूंजता है. मगर उस उद्गम तक जाने से पहले हमें कुछ काली परछाइयों का भी सामना करना पड़ता है.
धीरे-धीरे परतें खुलती हैं, न सिर्फ अतीत की, न सिर्फ किसी पोटली में लिपटी यादों की, बल्कि खुद के अंतर्मन की भी. जब स्मृति खुद एक माया, एक छलना बन जाए तो उसके धागे को पकड़कर अपनी जीवन यात्रा को समझना और भी नाजुक हो जाता है. यह फिल्म उतने ही नाजुक धागों से अपने पात्रों को एक-दूसरे से जोड़ती है. एक पर उंगली रखो तो दूसरा स्पंदित हो उठता है.
अविनाश अरुण एक बेहतरीन सिनेमेटोग्राफर भी हैं. ‘थ्री ऑफ अस’ में वे विजुअल्स के जरिए एक कविता रचते हैं. कोंकण के दृश्य इतने अनछुए हैं कि स्क्रीन पर हरियाली से ढकी सड़कों, दीवालों को जकड़ चुकी पेड़ की जड़ों, काई और बेल लगे ध्वस्त घरों को देखना आपको एक अलग दुनिया में ले जाता है. कुछ दृश्यों के फ्रेम बहुत ही खूबसूरत हैं. कई बार तीनों पात्र एक साथ फ्रेम में आते हैं. उनका उस फ्रेम में होना और जिस कोण से निर्देशक उन्हें देख रहा है, बहुत कुछ कह जाता है.
फिल्म की बुनावट बहुस्तरीय है और इसमें बारीकियां भी बहुत हैं. एक जगह प्रदीप अपने बचपन में पिता से जुड़े दुःख को शैलजा के साथ साझा कर रहा होता है, जब वह बात शुरू करता है तो बैकग्राउंड में बहुत ही धीमी (इतनी धीमी कि आप गौर न करें तो नज़रअंदाज़ कर बैठते हैं) गर्जना के साथ पानी बरसने की आवाज आती है. बात खत्म होते-होते बारिश भी खत्म हो जाती है, सिर्फ पानी के बहने की कल-कल शेष रहती है. निर्देशक हमें बता देता है कि पात्र के भीतर जमा दुःख बह चुका है.
शेफाली शाह ने इस फिल्म में अपनी आँखों के जरिए जितना कुछ अभिव्यक्त किया है, उस पर फुरसत के इतना ही लंबा आलेख लिखा जा सकता है. आरंभिक दृश्यों में स्मृतिलोप से ही नहीं उसके भय से जूझती स्त्री को उन्होंने बखूबी साकार किया है, धीरे-धीरे भीतर उठ रहे उल्लास को भी इतनी ही सुंदरता से अभिव्यक्त कर पाई हैं.
स्वानंद किरकिरे में खामोश रहकर अपनी बात कहने की कला है. दीपांकर का किरदार बहुत ही यथार्थवादी ढंग से सामने आता है. कई दृश्यों में स्वानंद ने बिना किसी प्रयास के जिस तरह जटिल मनोभावों को व्यक्त किया है, उससे वे एक गीतकार और गायक के अपने चिरपरिचित रूप से अलग मंझे हुए अभिनेता बन सामने आते हैं.
जयदीप अहलावत इस फिल्म में जिस किरदार को जीते हैं, वह अपेक्षाकृत ज्यादा जटिल है. अपनी सहजता में शेफाली के किरदार से भी ज्यादा जटिल. एक पुरुष जिसके कठोर और खुरदरे चेहरे के पीछे स्त्रियोचित मानी जाने वाली कोमलता है, जो दो बेटियों का पिता है, नोकझोंक करने वाली एक दोस्त जैसी खुशमिजाज पत्नी (कादंबरी कदम) है. वह आखिर अपने उस अतीत का सामना किस तरह करता है जो एक दिन धुंधलके से निकलकर उसके सामने खड़ा हो जाता है.
कुछ फिल्में सिर्फ एक कहानी कहती हैं और स्क्रीन पर एंड क्रेडिट्स आने के साथ ही वह कहानी खत्म हो जाती है. मगर कुछ कहानियां एंड क्रेडिट्स खत्म होने के बाद भी आपके साथ बनी रहती है.
इस फिल्म का अंतिम दृश्य आपको बेचैन करता है. सिनेमाहाल के बाहर की चकाचौंध में भी आप पात्रों की नियति के बारे में ही सोच रहे होते हैं. उस नियति के बारे में जिसका पता आपको कभी नहीं चलेगा और इसीलिए शायद उनकी नियति हमेशा के लिए आपके भीतर का हिस्सा बन जाती है.
‘थ्री ऑफ अस’ एक शोरगुल से भरे समय में आपको अपने भीतर की खामोशी तक ले जाती है. बशर्ते आप अपनी खामोशी की आवाज़ को सुनना चाहें…