कृपाशंकर-
धार्मिक बाज़ारवाद के नव _ खेल में हिंदी पत्रकारिता ने एक अलमस्त , अलहदा _ सा पत्रकार _ संपादक टिल्लन रिछारिया को कल खो दिया है । वे असुविधाओं में नहीं थे । दिल्ली जैसे जगह पर सब कुछ था । बस , वे अपने परिवार पर बोझ बनना नहीं चाहते थे । उनका रोज का खर्चा मात्र डेढ़ सौ रुपए था । सौ का सिगरेट , पचास के चाय _ चुक्कड़। वह भी गाजियाबाद के इंद्रापुरम के तिकोनिया पार्क में ही ।
सच जान लें कि इसी डेढ़ सौ रुपए के चक्कर में वे उज्जैन जा रहे थे । वहां के एक बाबा पर वे लिख रहे थे एक किताब , उसकी प्रोफ़ाइल। उस किताब से वह बाबा अमर हो जाना चाहता था , लेकिन लेखक रिछारिया जी का बीच रास्ते रतलाम में ही निधन हो गया ।
रिछारिया जी के परम मित्र संपादक माधवकांत मिश्र भी इन्हीं सब चक्करों में गए । वे तो महामंडलेश्वर भी हो गए थे । प्रवचन कम देते , रुद्राक्ष के खेल में ज्यादा रहते । देहरादून के बागीचों से रुद्राक्ष के पौधे सौ रुपए में लाते और गोरों को दो _ तीन हज़ार में बेच देते । भगवान जी ने कहा आओ!
इन दोनों का एक परम शिष्य हुआ करता था _ पुनीत मासूम! आईआईएमसी के प्रथम बैच का होनहार छात्र । बहुत दिलफरेब , मिस्टर इंडिया टाइप का … दुनिया की सारी हसीन हसीनाएं उसकी हो , वह उनका हो । दिन भर बाल पर हाथ ही फेरता ! नतीज़ा यह हुआ कि वह टकला हो गया , बिग लगाने लग गया , हसीनाएं उससे दूर होने लग गईं , उसकी पत्नी ने भी उससे किनारा कर लिया … वह हताश , परेशान !
उसने एक मुस्लिम तांत्रिक को पकड़ा । उसने मंत्र दिए । मासूम जल्दीबाजी में था , उल्टा _ पुल्टा पढ़ता गया । भगवान जी ने कहा _ तुम भी आओ! यह डिटेल है । इस खेल में , इस ग्रुप में नाम और भी हैं । मुकेश मधुर _ अपराध संवाददाता हुआ करते थे , अब कहीं के बड़े बाबा हैं । निर्मल वैद्य, पी आर का काम देखते थे , वे भी बाबा हो गए। कृष्ण कल्कि भी यहीं से थे , वे भी बाबा हैं ।
कादम्बिनी के संपादक राजीव कटारा भी यहीं से थे । भगवान जी ने कहा _ तुम भी आओ ! गाजियाबाद के संकोची जी भी माधवकांत जी के साथ लगे भिड़े रहे , पर मौका देख भाग लिए । विष्णु गुप्त भी यहीं के । अब आचार्य हो गए हैं…. संघम शरणं गच्छामि!
हैरत में पड़िए कि ये तमाम नाम दिल्ली , राष्ट्रीय सहारा से जुड़े हुए नाम हैं । सब परिचित हैं । मेरे fb दोस्त भी हैं सब , जो बच गए हैं !
यह भी पक्का है कि अगर वे मुझे गाली देंगे तो हम नहीं लेंगे …. सावन चल रिया !
नरेश त्यागी जी का आपने उल्लेख नहीं किया। वे भी ज्योतिषाचार्य हो गए थे-अभी होंगे ही! मेरठ के हैं। बहुत दिन हुए उनसे कोई संवाद नहीं हुआ। वे भी बाबा हैं और मेरठ में विराजमान हैं। -Radhe Shyam Tiwari
हां। अभी लिखते समय उनका भी नाम दिमाग में चल रहा था। छोड़ दिया । शायद वे सहारा से नहीं थे । अमर उजाला से थे । फिर कुबेर टाइम्स में गारद मचाया । -kripa shankar
शेष नाराय़ण सिंह पिछले साल चले गए, वरना उनके पास बाबा ग्रुप की सूचनाएं काफी थीं। और आपने महिला पात्रों का तो जिक्र ही नहीं किया, शेष जी इसके स्पेशलिस्ट थे। -sagheer kirmani
अशोक कुमार शर्मा
July 29, 2023 at 5:50 pm
जो गया, वह अपने प्रारब्ध उठा और कर्मों से गया। कहानी खत्म। अगर उनकी हम अपने चश्मे से आलोचना उनके जाने के बाद करेंगे, तो अन्याय और एकतरफा बहादुरी है। वीरता, दुस्साहस, प्रखरता तथा नैतिक साहस तब है जब आधुनिक किसी भी महारथी के कपड़े फाड़ कर गाया जाए, “गुरु के, लाखों रंग, कौन सा रंग देखोगे? है बहुत नंगा ये कौन सा नंग देखोगे?”
आनंद तब आए जब खानदानी फटेहाल परिवारों से आनेवाले और अब लैंड रोवर, मर्सिडीज और जीप गाड़ियां रखने वाले बीमारू राज्य के तीनों पत्रकारों की कलई उनके जीते जी खोली जाए। टूटी साइकिल और फटी गद्दी पर चढ़ कर दफ्तर दफ्तर पर घूमने वाले पत्रकार के करोड़ों की रीयल स्टेट का मालिक बनने की कहानी छापें। बड़े धनाढ्य सेठों और ताकतवर नेताओं को फंसा कर मीडिया हाउस बनानेवालों की कहानी लिखिए।
मैं तो ना उनके बारे में लिखूंगा। ना इनके बारे में टिप्पणी करूंगा।