Dinesh Juyal : आज की रात शायद नींद नहीं आएगी। आज अपने प्रदेश के मुख्यमंत्री के जिस रूप के दर्शन हुए उसने अन्दर तक हिला कर रख दिया। जो कुछ मैं सोशल मीडिया पर मौजूद तस्वीरों, वीडियो और टीवी न्यूज में देख पाया हूं उसके आधार पर मेरा सवाल है कि उत्तराखंड जैसे संवेदनशील क्षेत्र का मुखिया इस तरह हृदयहीन कैसे हो सकता है? वो भी एक ऐसी महिला के साथ जो पेशे से शिक्षिका है? उनके पति की मौत हो चुकी है। क्या ये वही त्रिवेंद्र सिंह रावत हैं जिन्हें मैं जानता रहा हूं? संघ में संस्कारित।
२५ साल से दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में तैनात एक शिक्षिका उनके जनता दरबार में विनयपुर्वक निवेदन कर रही है कि उनके पति की मौत हो चुकी है दो बच्चों को अनाथों की तरह देहरादून में छोड़कर वह दुर्गम क्षेत्र में नहीं रह सकती। उनका तबादला कर दिया जाय। मुख्यमंत्री पूछते है कि नौकरी करते समय क्या लिख कर दिया था। जवाब है कि यह तो नहीं कि जीवनभर वनवास भोगूं। फिर बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ का जिक्र करती है।
इतने में रावत आपा खोने लगते हैं । अनुशासन में रहने की बात करते है फिर सस्पेंड करने की धमकी देते हैं अगले ही पल महिला तैस में आती है और कहती है सस्पेंड क्या करोगे में खुद ही घर बैठी हूं। रावत सस्पेंड करने का मौखिक आदेश देते हैं फिर कहते हैं ले जाओ इसे हिरासत में ले लो। पुलिस उसे ले जाने लगी तो उसका गुस्सा शराब माफिया पर भी फूट पड़ता है जिसकी वजह से उसके पति की मौत हुई। गुस्से में कह देती है चोर उचक्के कहीं के। फिर उसे खींचा जाता है तो चिल्लाती है। एक वीडियो में आवाज आ रही है कि बाल पकड़ो इसके। मुख्यमंत्री के मंच से दिए गए आदेश का पालन हो रहा है।
वाह त्रिवेंद्र भाई, क्या यही न्याय है, इसीलिए जनता दरबार लगते हैं, ऐसे ही फरियाद सुनी जाती है?
उस महिला की पीड़ा नहीं देखनी आपको तो अनुशासन देखना है। आपके हमारे कॉमन मित्रों के कमेंट्स श्री चेतन गुरुंग और मनोज इस्टवाल जी की पोस्ट पर पढ़े। मैं उन मित्रों को भी धिक्कार भेज रहा हूं जिन्हें इस पूरी घटना में शिक्षिका की अनुशासन हीनता ही दिख रही है। जिन हालात में ये महिला जी रही है क्या उसकी पीड़ा इस तरह गुस्से के साथ बाहर आना स्वाभाविक नहीं।
त्रिवेंद्र जी वाकई आज ये सिर शर्म से झुका है और दिल में बहुत दर्द है।
आपने तो दुर्गम पहाड़ को जिया है तो क्या मुखिया बनकर ऐसा ही बनना पड़ता है? क्या उस महिला को समझाने का कोई और तरीका नहीं था एक मुख्यमंत्री के पास। जरा ये भी पता करिए की देहरादून में सुगम का सुख भोगने वाले कौन हैं? कोई आपके करीबी भी तो नहीं। आपके करीबी नेताओं अफसरों की सुहागिन सर्व सुविधासंपन्न पत्नियां भी होंगी। ये सुगम दुर्गम की क्या पहेली बना दी गई है? Pwd जैसे आपके विभाग में एक अफसर के लिए कीर्तिनगर दुर्गम दूसरे के लिए सुगम कैसे हो जाता है?
क्या वाकई इस बहन की पीड़ा आप समझ नहीं पाए? क्या सारे नियम ऐसे निरीह लोगों के लिए ही बने हैं?
लोग भूले तो नहीं होंगे कि आपके एक मंत्री के जनता दरबार में कुछ दिन पहले एक व्यक्ति जहर खाकर जान दे चुका है। पहाड़ के ये दीनहीन लोग कमजोर, कामचोर, अनुशासनहीन (आप जो भी इन्हें कहना चाहें) ही सही लेकिन क्या फरियादियों से ऐसा ही व्यवहार होना चाहिए?
ऐसा तो रामराज नहीं सोचा था किसी ने। आप ऐसा करेंगे तो आपके उन अफसरों से क्या उम्मीद करें जिन्हें यहां के और खासकर पहाड़ के लोगों से विशेष किस्म की एलर्जी है।
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हिंदुस्तान और अमर उजाला अखबारों के संपादक रह चुके देहरादून निवासी वरिष्ठ पत्रकार दिनेश जुयाल की एफबी वॉल से.
L.S.BHANDARI
June 29, 2018 at 11:26 am
Bhai yah to bahut khedjanak hai
L.S.Bhandari
Bareilly