Priya Darshan-
अजेय कुमार के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘उद्भावना’ का कहानी विशेषांक आया है। इसके अतिथि संपादक हरियश राय हैं। कई पीढ़ियों के कथाकारों और कथा आलोचकों को समेटता यह अंक काफी भारी-भरकम बन पड़ा है- निश्चय ही पढ़ने के लिहाज से समृद्ध भी। अंक में क़रीब 30 कहानियां हैं, नौ आलोचकों के बड़े-बड़े आलेख, एक काफ़ी बड़ी परिचर्चा और मधु कांकरिया का उपन्यास अंश भी। साथ ही ज्ञानरंजन पर विशेष सामग्री- मंगलेश डबराल और योगेंद्र आहूजा की टिप्पणियां।
हालांकि लेखों को पढ़ते हुए बात समझ में आती है कि हिंदी का कथा-परिदृश्य इतना विराट-विपुल है कि उसको समेटते-समेटते भी काफ़ी कुछ छूट जाता है। जाहिर है, कुछ लेखों कर सवाल भी उठेंगे। लेकिन इसे एक स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा मानना चाहिए। संपादकों को इस अंक के लिए साधुवाद।
इस विशेषांक में मेरी भी एक कहानी है- इसके अलावा मंगलेश डबराल की स्मृति में एक टिप्पणी भी। फिलहाल यह टिप्पणी लगा रहा हूं।
मंगलेश डबराल की गूंजती हुई अनुपस्थिति
नौ दिसंबर 2020 की शाम वह अंदेशा सच हो गया जो हिंदी के साहित्यिक समाज के आगे करीब 12 दिन से किसी ‘तीरे नीमकश’ की तरह तना हुआ था और ख़लिश पैदा कर रहा था। यह सूचना आ गई कि मंगलेश डबराल नहीं रहे। इसके बाद सोशल मीडिया पर जैसे शोक का सैलाब चला आया। बाकी सारा कार्य-व्यापार स्थगित था, एक कवि की मृत्यु से उपजी पीड़ा की परछाईं हर तरफ़ डोल रही थी।
लेकिन इन सबके बावजूद मेरे लिए मंगलेश डबराल अभी गए नहीं हैं- सिर्फ़ इसलिए नहीं कि वे मेरे पड़ोसी थे और बीमारी के इन आख़िरी दिनों में उनकी खांसी की जो आवाज़ मैं सुनता था, वह अब भी उनके कहीं मौजूद होने का भ्रम पैदा करती है या फिर अपनी बालकनी से सामने से गुज़रते किसी व्यक्ति को देखकर एक लम्हे के लिए आभास होता है कि वे मंगलेश डबराल हैं, या बाहर किसी की अस्फुट आवाज कभी-कभी उनकी याद दिला जाती है। बल्कि इसलिए भी कि एक तथ्य के रूप में हम मंगलेश डबराल का जाना भले जान लें, लेकिन उसे अभी स्मृति का हिस्सा होने में समय लगेगा। शोक चाहे जितने झटके से आए, वह जाता बहुत धीरे-धीरे है। मन के भीतर की जो ख़ाली जगह बन जाती है, उसे भरने में समय लगता है।
मंगलेश डबराल के संदर्भ में मेरे लिए यह व्यक्तिगत शोक का मामला नहीं है। कम से कम दो या तीन वजहें हैं जो उनकी अनुपस्थिति का आभास नहीं होने दे रहीं। एक तो यह कि हाल के वर्षों की उनकी सक्रियता की वजह से उनका बहुत सारा लेखन हमारे बीच ऐसा है जो बिल्कुल सामयिक और प्रासंगिक है। बेशक, उनकी पुरानी रचनाएं भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं, लेकिन हाल के वर्षों में पूंजीवाद और बाज़ार के विरुद्ध उन्होंने जितनी कविताएं लिखीं, वे आने वाले कई वर्षों की लड़ाई के लिए वैचारिक रसद का काम करती रहेंगी। इसी तरह सांप्रदायिकता के प्रश्न पर जिस तरह वे खड्गहस्त थे, उससे भी बहुत सारी ऐसी चीज़ें सामने आईं, जिनका हिंदी समाज लगातार इस्तेमाल कर सकता है।
बेशक, एक कवि का मोल इतना भर नहीं होता कि वह हमें किसी आंदोलन या किसी लड़ाई के लिए कुछ नारों जैसी पंक्तियां मुहैया करा दे या कुछ ऐसी सूक्तियां छोड़ जाए जिनका हम अपने-अपने मक़सद से इस्तेमाल करते रहें। बड़ी कविता वह होती है जो हमें चुपचाप बदलती भी चलती है। मंगलेश डबराल हिंदी के उन विरल कवियों में रहे जिनकी कविता यह काम करती है। मंगलेश जी के व्यक्तित्व में जो यदा-कदा उभर आने वाली कारुणिक हिचक होती थी, वह जैसे उनकी कविता का शील भी है। यह कविता मौन के गुंजल्क में खो नहीं जाती है, बल्कि अपना ऐसा मौन रचती है जिसमें एक रचनात्मक प्रतिरोध दिख पड़ता है। अनजाने में यह हमारे भीतर भी उतरता चलता है- कभी स्मृतियों के सहारे, कभी संगीत की मदद से और कभी संवेदनाओं के रसायन में चुपचाप घुल कर।
हालांकि हम ऐसे समय में हैं जो हर प्रतिरोध को सोख ले रहा है, जहां व्यवस्था का एक दानवी अट्टहास जैसे हर जगह हमारा पीछा कर रहा है। इस समय में कविता बहुत दूर तक हाशिए की कार्रवाई भर रह गई है। यह गुमान पालना एक अतिरिक्त भावुकता होगी कि मंगलेश डबराल की कविता इस हाशिए की कविता नहीं थी, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि मंगलेश डबराल की मौजूदगी से यह हाशिया अतिरिक्त चमकता रहा, उसमें अलग सी मानवीय गरिमा दिखती रही और इसीलिए प्रतिरोध में भरोसा बना रहा। कह सकते हैं कि यह गुण जिस दूसरे कवि में भी था, वे वीरेन डंगवाल थे जिनकी कविता बहुत प्रसन्न भाव से हमारे समय की विडंबनाओं को सामने भी ले आती थी और अंगूठा भी दिखाती थी। क्या इत्तिफ़ाक है कि वीरेन डंगवाल पहले ही हमारे बीच से जा चुके हैं।
दरअसल मंगलेश डबराल के देहावसान की त्रासदी यह याद करने से कुछ और बड़ी मालूम होती है कि पिछले कुछ वर्षों में हमने अपने मानवीय स्वर वाले कुछ बेहतरीन कवियों को हमेशा-हमेशा के लिए खो दिया। केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण, चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे, विष्णुचंद्र शर्मा, वीरेन डंगवाल, पंकज सिंह, नीलाभ इन्हीं बरसों में चले गए। ये वे लोग थे जो अपने ढंग से हिंदी कविता में प्रतिरोध की संस्कृति को बचा रहे थे। कुंवर नारायण अगर मानवीय औदात्य के कवि रहे तो केदारनाथ सिंह धूल-मिट्टी की ग्रामगंधी चेतना के, बाक़ी कवियों में एक तीखा राजनीतिक बोध रहा, लेकिन मंगलेश इस मायने में कुछ अलग रहे कि उनकी कविता में कुंवर नारायण का औदात्य भी मिलता रहा, केदारनाथ सिंह की ग्राम-गंध भी और कई दूसरे कवियों की ठेठ राजनीतिक चेतना भी। निश्चय ही हिंदी कविता के मौजूदा परिसर में बहुत सारे कवि ऐसे हैं जिनके कृतित्व पर मंगलेश डबराल की थोड़ी-बहुत छाया दिख सकती है, हालांकि मंगलेश जी के यहां भी ऐसे कई प्रभाव होंगे जो दूसरों में कहीं ज़्यादा गहनता के साथ मिलते होंगे। क्योंकि कोई भी प्रभाव एकरैखिक नहीं होता या एक कवि से दूसरे कवि तक नहीं जाता (और अगर जाता है तो अच्छी बात नहीं है) उसकी अपनी एक समग्रता होती है जिससे कोई भी कवि अपने ढंग से कुछ अर्जित करता है और उसमें कुछ जोड़ता है।
मंगलेश डबराल इसलिए भी उपस्थित हैं कि वह पर्यावरण बना हुआ है जिसने मंगलेश डबराल को बनाया और जिसे मंगलेश डबराल ने बनाया। वे इसलिए भी उपस्थित हैं कि वे शब्दों को उनके खोए हुए अर्थ लौटा रहे थे, मृत अर्थों में नई जान डाल रहे थे। उनके छह कविता संग्रहों ‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘हम जो देखते हैं’, ‘घर का रास्ता’, ‘आवाज़ भी एक जगह है’, ‘नए युग में शत्रु’ और ‘स्मृति एक दूसरा समय है’ में बार-बार अर्थों के खोने की आकुलता और उनको खोजने का आग्रह तरह-तरह से व्यक्त हुए हैं। ‘स्मृति एक दूसरा समय है’ की एक कविता है- ‘शब्दार्थ’। कविता की शुरुआत कुछ इस तरह होती है- ‘जब भी कोई शब्द लिखता हूं / लगता है उसमें वह अर्थ नहीं है / जिसके लिए उसे लिखा गया था।‘
एक लिहाज से देखें तो हिंदी के दो बड़े कवि शब्दों को उनके अर्थ लौटाने की जुगत में सबसे ज़्यादा दिखते हैं। खुद को ‘पुरबिहा’ बताने वाले और गंगा के मैदानों की हिंदी-भोजपुरी काव्य तत्व के बीच अपनी अस्मिता खोजने वाले केदारनाथ सिंह हो या पहाड़ से मैदान में उतरे मंगलेश डबराल- दोनों शायद यह जानते थे कि कविता शब्दों के खेल की ही नहीं, उनके खोल में घुस कर उनके अर्थों की शिनाख़्त करने की भी कार्रवाई है।
लेकिन मंगलेश डबराल केदारनाथ सिंह के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ठोस राजनीतिक कवि हैं- शायद अपने बाक़ी समकालीनों के मुक़ाबले भी- उनमें बिल्कुल राजनीतिक प्रक्रियाओं पर कविताएं मिल जाती हैं। बीजेपी के भीतर मार्गदर्शक मंडल बनाकर आडवाणी, जोशी आदि को ठिकाने लगाने की प्रक्रिया को भी वे कविता में दिलचस्प ढंग से पकड़ते हैं और उस तानाशाही प्रवृत्ति को भी, जो डराते हुए भी कहती है कि वह किसी को डरा नहीं रही है। बेशक, यह कविता ऐसे ही राजनीतिक वक्तव्य पर ख़त्म हो जाती तो मंगलेश इतने बड़े कवि नहीं होते, वे बहुत सूक्ष्मता से इन प्रक्रियाओं के भीतर छुपे रहने वाले सभ्यतागत संकटों को भी पहचान लेते और लिख देते हैं। अनायास वे धुर राजनीतिक से धुर मानवीय कवि हो जाते हैं।
मंगलेश डबराल की अथाह लोकप्रियता का कुछ अंदाज़ा उनकी मृत्यु के बाद लगा। उनके लिए आर्थिक मदद की अपील से पहले ही हिंदी का संसार उनके लिए खड़ा हो चुका था। फिर उनके देहावसान के बाद सोशल मीडिया पर उनकी श्रद्धांजलियों और कविताओं का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसकी वजह से लोगों को याद करना पड़ा कि पहले किस कवि को इस कदर प्यार से बार-बार दुहराया गया। जाते-जाते मंगलेश डबराल यह साबित कर गए कि बड़ी कविता किसी आलोचना की मोहताज नहीं होती। उसके अपने पाठक होते हैं जो अपने कवि को बेहद प्यार करते हैं। ऐसे ही पाठकों की उपस्थिति में मौजूद हैं मंगलेश डबराल।