उर्मिलेश-
यह तकरीबन अड़तालीस साल(48 Years) पुरानी बात है! उस दौर में हिंदी की सबसे बड़ी और सर्वाधिक सम्मानित पत्रिका थी..दिनमान. टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप इसे छापता था और हिंदी के यशस्वी लेखक-कवि रघुवीर सहाय इसके संपादक थे. किसी परिचय या संपर्क के बगैर मैने इलाहाबाद से अपनी एक टिप्पणी पत्रिका के पते पर भेज दी. तब मैंने BA पूरा किया था. MA के पहले साल में संभवत: दाखिला हो चुका था.
उन दिनों पत्रिका में मशहूर लेखिका प्रभा दीक्षित का स्वामी विवेकानंद पर एक लंबा लेख छपा. संयोगवश, उस समय मैं जिन कुछ बडे विचारकों-लेखकों को पढ रहा था, उनमें विवेकानंद भी शामिल थे. इसलिए दिनमान में जैसे ही प्रभा जी का लंबा लेख देखा, फौरन पढ गया. संपादक ने उस लेख पर बहस चलाने की अपनी टिप्पणी भी छापी थी. यह सोचकर कि मेरे जैसे एक छात्र की टिप्पणी दिनमान जैसी बडी पत्रिका में तो छपेगी नहीं, पर अपना विचार लिखकर भेजने में क्या जाता है!
अपनी टिप्पणी भेजकर मैं उसे भूल भी गया. कुछ समय बाद (संभवत: दो सप्ताह बाद) एक दिन वह टिप्पणी दिनमान में छप गई..मैने तो सोचा भी नहीं था. टिप्पणी लिखते समय सोचा था, काश मेरी यह टिप्पणी ‘मत और सम्मत'(दिनमान में पाठकीय प्रतिक्रिया का कॉलम) में छप जाती! पर यह तो पत्रिका के बीच के किसी पेज पर बडे नामी लोगों के साथ बहस के कॉलम में छप गई!
विश्वविद्यालय परिसर में शिक्षक और छात्रों के बीच कुछ लोग मुझे जरूर जानते थे पर दिनमान की इस छोटी सी टिप्पणी के छपने के बाद परिसर में मुझे जानने वालों की संख्या में बहुत तेजी से इजाफा हुआ..कुछ दिन बाद पारिश्रमिक भी आया.
छात्र-जीवन में ही कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगा. यह सब ‘दिनमान’ के कारण हुआ. तब हिंदी में दिनमान और धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं की जैसी प्रतिष्ठा थी, वह आज के दौर में अकल्पनीय है!
(सन् 1976 में छपी मेरी इस टिप्पणी की कतरन कुछ ही साल पहले मशहूर लेखक और न्यायविद कनक तिवारी जी ने उपलब्ध कराई. उस वक्त भी इस पर कुछ लिखा था).
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.