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सुख-दुख

हिंदी पत्रकारिता दिवस पर एक नौजवान पत्रकार की भड़ास

बेचैनियों की कालिख पर कभी कोई इस कदर बदमान हो सकता क्या… अवाम की आवाज बनने वाला यह मीडिया अपनों की ही सिसकियां नहीं समझ सकता क्या? आज यानी 30 मई को हर जगह हिंदी पत्रकारिता दिवस की शुभकामनाएं नजर आ रही है। कोई पत्रकारिता के इतिहास को खंगाल रहा, तो कोई इसकी साख बचाने का सुर अलाप रहा, कोई इसके बदलते शैली की दुहाई दे रहा, तो कोई इसे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के तौर पर होने के बावजूद सत्ता की कठपुतली का नाम दे रहा है।

लेकिन कोई ये हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है कि 21 वीं सदी के इस पत्रकारिता के उस विकराल रूप को लिखे जहां आज के युवाओं के लिए यह क्षेत्र एक बेचैनी का सबब बन गया है। जो कल के भविष्य होंगे उनकी इस पत्रकारिता के महकमे को ख्याल तक नहीं है। बुद्धिजीवी, समाज के लोगों की आवाज़ बनकर चीखने-चिल्लाने वाला यह मीडिया आज अपने की सहयोगी का गला घोट रहा है। आज मीडिया में नौकरी नहीं है। कितने मीडियाकर्मियों को दिहाड़ी पर रखते हैं और सीनियर का काम जहां अपने जूनियर की पीठ थपथपाने का होता था वहां आज उसकी जगह टांग खींचने की हो गई है। जहां बार-बार यह एहसास कराया जाता है कि मीडिया खुद में एक कालिख है तुम इसका हिस्सा मत बनो।

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इन सबसे हटके जो एक बेहद अजीब बात है वो यह कि मीडिया जो खास करके लड़कियों के साथ समाज में हो रहे बर्बरता पर मुखर रहता है, लेकिन अपने ही संस्थान की लड़कियों के साथ अन्याय पर चुप रहता है।

मीडिया में लड़कियां अगर अपने आप को समर्पित कर दें तो नौकरियों की किल्लत कभी नहीं होगी। अगर बगावत कर दें तो ताउम्र बेरोजगार रहेंगी। ये आज के मीडिया की भयानक तस्वीर है। मीडिया में इंटरव्यू से पहले भी एक इंटरव्यू देना पड़ता है जिसमें उस लड़की के दिमाग को भांपा जाता गहै कि ये सब कुछ करने को राजी होगी या नहीं। इसके दो पक्ष हैं। अगर आज मीडिया की स्थिति है तो जाहिर है कि यह रातों रात नहीं बनी होगी। यह पता नहीं मीडिया में लड़कियों ने अपनी मेहनत का क्या परिचय दिया। पुरुषों ने उस मेहनत को क्या समझा। लेकिन आजकल की लड़कियों को ऐसे हालात से गुजरना पड़ता है।

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बड़े मीडिया चैनल की कहानी और भी निराली है। उन्होंने खुद के दुकान खोल लिए हैं तो वहां वैकेंसी की गुंजाईश ना के बराबर होती हैं। अगर कोई न्यू कमर रिज्यूमे भेजता है तो उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है।

कहा जाता है मीडिया में भाई सबकुछ जुगाड़ से होता है। लानत है देश की इस चौथे स्तम्भ की सोच के इस विकृत मानसिकता पर और उन क्रांतिकारी पत्रकारों पर जो अपने ही घर के पाप को ढंकते हैं और देश के घर के लिए आवाज बनने का नाटक करते हैं।

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जरूरत है एक बार फिर से पत्रकारिता के संवेदनशील दौर को वापस लाने की जहां चैन से सुकून से लोग काम कर सकें। तभी शोभा होगी हिंदी पत्रकारिता दिवस की, वरना इसके तह में कितने नए बच्चों के दर्द दफनाए होंगे। यकीन मानों यह दर्द जिस दिन संगठित होकर आवाज का रूप ले लिया उस दिन लोग नजरें छुपाते फिरेंगे।

रितु राज
RITU RAJ
[email protected]

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1 Comment

1 Comment

  1. जावेद अहमद हयात

    May 30, 2019 at 7:41 pm

    बहुत शानदार
    कॉपी कर रहा हूँ साथी

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