वीरेन डंगवाल के बगैर आठ बरस : क्या बेडे, सई चल्लई पाल्टी!

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अशोक पांडे-

मौके पर गच्चा देकर निकल जाने में वीरेनदा ने महारत हासिल कर ली थी. वह टामा पिलाने का उस्ताद था. अक्सर यूँ होता था कि दो महीने पहले से तय कर लिए गए दोस्तों के मिलने-मिलाने के किसी प्रोग्राम की ऐन सुबह से उसका फोन आउट ऑफ़ रीच आना शुरू हो जाता. बाकी सारे लोग जुट जाते. सब वीरेनदा को पूछते. हमें लगता वह सफर में होगा. जंगल में सिग्नल नहीं आ रहे होंगे. तब भी हर कोई उसे फोन लगाता रहता. आखिरकार घंटी चली जाती. वह कहता, “बस निकल रहा हूँ यार. सुबह से बड़ा काम था.”

फोन फिर आउट ऑफ रीच हो जाता. हार कर उनके बेटे तुर्की या प्रफुल्ल को फोन लगाते तो उत्तर मिलता, “पापा तो सो रहे हैं.” उनके बगैर महफ़िल जमना शुरू होती लेकिन कमी खलती रहती. फोन लगाने और उसके न उठने का सिलसिला चलता रहता. शाम के सात बजे के आसपास इस दफा उनका फोन आता. जैसे कुछ हुआ ही न हो, “क्या बेडे, सई चल्लई पाल्टी!”

हमारे किसी तरह की नाराजगी ज़ाहिर करने से पहले ही वे कह देते, “सुनील गाड़ी ले आया था. हम दोनों आ रहे हैं. बहेड़ी तक पहुँच गए हैं. डेढ़ घंटे में हल्द्वानी. और ज़रा धियान से रइयो बेडे. सारा माल अकेले अकेले मती उड़ा जइयो.”

महफिल में रंग खिंच आता. “वीरेनदा आ रहा है!” “वीरेनदा आ रहा है!”

डेढ़ घंटे बढ़ते-बढ़ते ढाई और फिर चार घंटे हो जाते. वह नहीं आता. फोन फिर बंद. उनींदा तुर्की कहता, “पापा सो रहे हैं.”

फिर आधी रात के बाद किसी पल मेरा फोन बजता, “सुनील आ गया था. अभी हम मनिहारों वाली गली में कबाब-रोटी उड़ा रहे हैं.” उसकी गमकती हुई आवाज़ आती.

एक बार नैनीताल में बल्ली सिंह चीमा की नई किताब का विमोचन था. वीरेन डंगवाल को चीफ गेस्ट बनाना तय हुआ. प्रोग्राम वाले दिन वह सुबह-सुबह हल्द्वानी पहुँच गया. हम दोनों साथ नैनीताल पहुंचे. पहुँचने के साथ ही गिर्दा को उसके घर से उठाया गया और लम्बे समय से मुल्तवी होती आ रही माल रोड की तफरीह का हमारा कार्यक्रम शुरू हो गया. विमोचन में अभी दो-एक घंटे थे. गिर्दा ने कार्यक्रम की अध्यक्षता भी करनी थी.

झील में तैरती नाव देखकर वीरेनदा भावुक हो गया. हमने नौकायन का कार्यक्रम बना लिया. ठेके से अद्धा उठाया गया और गिर्दा के एक परिचित नाव वाले की सेवाएं ली गईं. नाव वाला भी अद्धा-कार्यक्रम में शरीक हुआ. आधे घंटे के भीतर मात्रा कम पड़ गयी. नाव वाले ने नाव को पाषाण देवी मंदिर के पास एक पेड़ से बांधा और हमसे पैसे लेकर नया अद्धा लेने बाजार चला गया.

मौज और बातों का सिलसिला ऐसा बहा कि हम बल्ली भाई और उनकी किताब को भूल ही गए. जब याद आया तो काफी देर हो गई थी. बड़ी घबराहट हुई. उसी घबराहट में महकते-लुढ़कते हम वेन्यू पर पहुंचे. कार्यक्रम निबटने को था. विमोचन हो चुका था. किसी दूसरे आदमी को अध्यक्ष बनाया जा चुका था. वही उस वक़्त भाषण दे रहा था.

बल्ली सिंह चीमा की किताब का आधिकारिक विमोचन उसी रात ग्यारह बजे नैनीताल फ्लैट्स में झील किनारे लगी पत्थर की रेलिंग पर वीरेन डंगवाल के हाथों हुआ. अध्यक्ष की भूमिका पूर्वनियत अध्यक्ष ने निबाही.

एक कविता में वीरेनदा ने लिखा है –

अकेलापन शाम का तारा था
इकलौता
जिसे मैंने गटका
नींद की गोली की तरह
मगर मैं सोया नहीं

इसकी भी एक कहानी है. उन्हें नींद बहुत प्रिय थी. यह और बात है कि वह उन्हें कम आती थी और उसे हासिल करने के लिए उन्हें बड़े जतन करने होते थे. दोपहर के भोजन के बाद ट्राइका की आधी गोली उनकी दिनचर्या में शुमार थी. दवा वाला बगैर पर्चे के ट्राइका नहीं देता था. यहाँ भी सुनील की मदद ली जाती – सुनील यानी बरेली में अमर उजाला के न्यूज़ एडीटर सुनील शाह. सुनील शाह का बरेली में जलवा चलता था. वही हर हफ्ते-दस दिन में दवा का पत्ता पहुंचा जाया करते.

लेकिन जब वीरेनदा सोता था तो गज़ब सोता. उसके खतरनाक खर्राटों का मन्द्र गहरा स्वर आसपास की हर चीज को ढंक लेता था. एक दफा कौसानी में उसने नुसरत सुनने की ख्वाहिश जताई. सुन्दर ठाकुर भी उसी कमरे में था. मैंने एक कव्वाली लगा दी. नुसरत फ़तेह अली खान द्रुत में पहुँच कर गा रहे थे. उस दिव्य संगीत के जादू की वजह से मैं और सुन्दर आवेश में थे. अचानक नुसरत की आवाज़ के ऊपर वीरेन डंगवाल के खर्राटे गूँजने लगे.

वे मनुष्य की नाक को हस्ती की पिपहरी कहते थे और कविता में दुआ करते थे –

हस्ती की इस पिपहरी को
यों ही बजाते रहियो मौला!
आवाज़
बनी रहे आख़िर तक साफ-सुथरी-निष्कंप.

दुनिया को टामा पिलाने की कला तो मैंने एक सीमा तक वीरेनदा से सीख ली है. आवाज़ को आखिर तक साफ़-सुथरा और निष्कंप बना पाऊँगा या नहीं इसमें शक है.

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