संजय कुमार सिंह-
खबरों का यह चयन याद करेगा हिन्दुस्तान
हिन्दी अखबार जब हिन्दुत्व के रंग में रंगे हैं (पीछे तो अंग्रेजी वाले भी नहीं हैं) तब इंडियन ए्क्सप्रेस ने आज पहले पन्ने पर तीन कॉलम में एक खबर छापी है जिसका शीर्षक है, भाजपा-आरएसएस ने 22 जनवरी को एक चुनावी आयोजन बना दिया है …. हमारे लिए जाना मुश्किल है : राहुल। हिन्दू में यह खबर पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में छोटी सी है। द टेलीग्राफ में यह दो कॉलम में प्रमुखता से है। शीर्षक है, राहुल ने अयोध्या पर कहा मोदी का राजनीतिक आयोजन है। अंदर खबर में लगभग वही बात है जो इंडियन एक्सप्रेस में शीर्षक है।
राहुल गांधी की न्याय यात्रा भाजपा सरकार के खिलाफ दूसरा बड़ा राजनीतिक अभियान है और दिल्ली के अखबारों में उसकी खबर वैसी नहीं है जैसी होनी चाहिये थी। अमर उजाला और नवोदय टाइम्स में राहुल गांधी की न्याया यात्रा की खबर नहीं है। मुझे लगता है कि 2024 की चुनावी तैयारियों के सिलसिले में भाजपा अगर अयोध्या में प्राणप्रतिष्ठा और उद्घाटन का आयोजन कर रही है और राहुल गांधी यह आरोप लगा चुके तो उनकी न्याय यात्रा, वे मानें या न मानें भी राजीनितिक है और दोनों को अखबारों में समान महत्व मिलना चाहिये। लेकिन अखबारों की हालत आप जानते हैं। प्रधानमंत्री प्रेस कांफ्रेंस नहीं करते तो वे उनसे सवाल भी नहीं पूछते हैं और वे मौका नहीं देते तो खबरों के जरिये भी नहीं पूछते हैं।
दूसरी ओर, आलोचनात्मक खबरों के लिए बीबीसी तक को नहीं छोड़ा गया है। खबर देने वाले अधिकारियों (और संपादकों) की तो बात ही नहीं है। आरटीआई और तमाम व्यवस्था, कायदे कानूनों, आदेशों के बावजूद प्रधानमंत्री की डिग्री से संबंधित विवाद दस साल में नहीं निपटे और अब अयोध्या में बन रहे मंदिर के स्थान को लेकर सोशल मीडिया में चल रहे विवाद पर नहीं के बराबर स्पष्टीकरण है लेकिन प्रधानमंत्री से संबंधित कोई मामला वायरल हो जाये तो पहले पन्ने पर छप जायेगा। ऐसे में आज अमर उजाला में पहले पन्ने पर यह खबर देखकर अजीब लगा। आखिर सरकार चाहती क्या है और किस गलतफहमी में है। नियम और कानून बनाने की हद पार कर जाना।
तथ्य यह है कि
– कोई दस साल पहले शिक्षा मंत्री के पास डिग्री नहीं थी
– सार्वजनिक बयानों से लगा कि उन्हें डिग्री और सर्टिफिकेट का अंतर नहीं पता है
– खबर तो यह भी है कि बाद में उन्होंने कम शिक्षित होना स्वीकार किया
– प्रधानमंत्री की डिग्री भी विवादों से परे नहीं है,
– सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं है, जो है शक के घेरे में है
– सवाल है कि डिग्री परीक्षा पास करने के लिए दी जाती है या कपड़े पहनने के लिए
– पढ़ने के लिए जब कर्ज लेना पड़ता हो, डिग्री से नौकरी पक्की नहीं हो
– तो यह आदेश शिक्षा (डिग्री) को मुश्किल और महंगा नहीं करेगा?
– विडंबना यह है नियम तब बना जब प्रधानमंत्री की डिग्री का पता नहीं है
– विश्वविद्यालयों में शिक्षा से संबंधित स्थिति लगातार खराब हुई है
– मुझे बिना डिग्री नौकरी मिल गई थी और मैं डिग्री लेने गया ही नहीं
इसलिए मुझे लगता है कि अब यह मान लिया गया है कि डिग्री सजा कर रखने और दावा करने के लिए ही होगी। डिग्री होने से नौकरी का कोई संबंध नहीं है। आज ही एक खबर है, प्रधानमंत्री की शैक्षिक योग्यता के बारे में टिप्पणी के लिए आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल तथा सांसद संजय सिंह के खिलाफ गुजरात में अवमानना का मामला चल रहा है। इससे राहत की अपील हाईकोर्ट में है और सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि इस पर फैसला करें। दरअसल खबर का शीर्षक है, केजरीवाल, संजय सिंह के खिलाफ गुजरात के अवमानना मामले में चार हफ्ते का स्टे। चार हफ्ते का स्टे जरा अटपटा लगा। ऐसे शीर्षक आम तौर पर नहीं दिखते हैं।
खबर के अनुसार, संजय सिंह ने अपील की है कि मामले को गुजरात के बाहर स्थानांतरित कर दिया जाये क्योंकि हाईकोर्ट में अपील लंबित होने के बावजूद ट्रायल कोर्ट में कार्रवाई चल रही है। इसमें बताया गया है कि गये साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट ने केजरीवाल की अपील पर विचार करने से इनकार कर दिया था जब उन्होंने हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने गुजरात विश्वविद्यालय द्वारा उनके खिलाफ दायर आपराधिक अवमानना की कार्रवाई को स्टे करने से मना कर दिया था। खबर के अनुसार मामला यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार पीयूष पटेल ने अरविन्द केजरीवाल और संजय सिंह के खिलाफ उनकी उन कथित टिप्पणियों के लिए दायर किया है जो मुख्य सूचना आयुक्त के आदेश को हाईकोर्ट द्वारा खारिज करने के बाद की थी। और मुख्य सूचना आयुक्त का आदेश प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की शिक्षा से संबंधित डिग्री के बारे में जानकारी मुहैया कराने के लिए था।
उम्मीद है पाठकों को यह मामला याद होगा और इतने से वे पूरी बात समझ जायेंगे और सरकारी खर्च पर किसी अन्य मुकदमे के जोखिम से बचने के लिए मैं उसके विस्तार में नहीं जा रहा हूं। ना ही अपनी तरफ से कोई टिप्पणी करने की जरूरत महसूस करता हूं। मोटा मोटी मामला यह है कि मुख्य सूचना आयुक्त ने डिग्री से संबंधित सूचना देने का आदेश दिया था लेकिन हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया था कि गुजरात विश्वविद्यालय को पीएम मोदी की शैक्षणिक डिग्री से संबंधित विवरण प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। न्यायाधीश ने इस संबंध में मुख्य सूचना आयुक्त (सीआईसी) के आदेश को पलट दिया था और आरटीआई अधिनियम का दुरुपयोग करने के लिए आम आदमी पार्टी के नेता पर ₹25,000 का जुर्माना भी लगाया था।
इस फैसले को चुनौती देने वाली अपील में, केजरीवाल ने तर्क दिया है कि न्यायमूर्ति ने उन पर जुर्माना लगाकर गलती की है क्योंकि उन्होंने विवरण मांगने के लिए कोई आवेदन दायर नहीं किया था, बल्कि मुख्य सूचना आयुक्त (सीआईसी) को एक पत्र लिखा था, जिसने बदले में स्वत: संज्ञान लिया था और विश्वविद्यालय को पीएम मोदी की डिग्री का विवरण सार्वजनिक करने का आदेश दिया। अदालत में यही सब मामला चल रहा है और आप जानते हैं कि देश की राजनीति में डिग्री का हाल यह है कि आईआईटी वाला के बारे में कहा जाता है कि वही चाय वाले को उसी की भाषा में टक्कर देता है। मामला जो हो केंद्र में डिग्री है और तभी तक टिका हुआ है जब तक कोई अखबार उसका सच बता नहीं देता है। पर अखबार वाले अपना काम नहीं कर रहे हैं। डिग्री का महत्व बना रहे उसके लिए सरकार जो करना चाहिये वह कितना हो रहा है और कैसे हो रहा है वह तो पता नहीं है लेकिन बेरोजगारी, गरीबी और उसमें शिक्षा का महंगा होना समझना मुश्किल नहीं है।
ऐसे में डिग्री लेने के लिए एक ड्रेस, इंटरव्यू देने के लिए दूसरा और शायद नौकरी करने के लिए तीसरा ड्रेस कितना महंगा है वह वही जानेगा जिसे भोगना है। फिलहाल अखबारों के लिए यह खबर है। दूसरी ओर, यह समझना मुश्किल नहीं है कि प्रधानमंत्री की डिग्री का मामला क्यों लटका हुआ है।
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