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सुख-दुख

आदि शंकर, अरबिंदो घोष, विवेकानन्द और रजनीश जो भौकाल मचाकर गए उसमें उनका अपना कुछ न था, सब उधार!

Dr Sanjay Jothe-

चार लोगों पर विचार कीजिये… आदि शंकर, अरबिंदो घोष, विवेकानन्द और रजनीश… ये चारों जो भौकाल मचाकर गए उनमे उनका अपना कुछ नहीं रहा, सब उधार …. बौद्ध धर्म सहित ईसाइयत और पश्चिमी ज्ञान का कॉपी पेस्ट।

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शंकर के वेदांत से शुरू करते हैं। शंकर का वेदांत इसलिए भी ज्यादा मकबूल हुआ क्योंकि उसने बौद्ध दर्शन की मूल बात चुराकर उसी के खिलाफ मसाला तैयार किया। इस दार्शनिक व्यभिचार की सफलता ने उन्हें हीरो बना दिया। रामानुज ने इस बात के लिए शंकर को खूब गरियाया है। उन्हें प्रच्छन्न बौद्ध कहा है।

इसी तरह रामतीर्थ हुए हैं, रामतीर्थ और विवेकानन्द बुद्ध संस्कृति से कम और जीसस की संस्कृति से ज्यादा प्रभावित थे। रामतीर्थ तो अरबी फ़ारसी और अंग्रेजी वाले आदमी थे संस्कृत तक नहीं आती थी वे सूफियों और मिशनरियों से ज्यादा नजदीक थे। रामतीर्थ एक कवि थे, भयानक रूप से अंतर्मुखी और नाजुक से एकांतजीवि। इसी एकांत निष्ठा ने उनकी बलि ले ली। हिमालय में एक चट्टान से कूदकर उन्होंने आत्महत्या की। वे न रहस्यवाद की अलख जगा सके न समाज निर्माण में ही कुछ कर सके। अध्यात्म के नशे ने उन्हें कहीं का न छोड़ा।

लेकिन विवेकानन्द भाग्यशाली रहे।उन्हें ठीक समय पर अमेरिका यूरोप का सत्संग मिल गया और वे चूँकि अंतर्मुखी भावुक नहीं बल्कि तार्किक थे, उन्होंने इसका पूरा लाभ उठाया। वे शिकागो से ज्ञान हासिल करने के बाद पूरी तरह मिशनरी ही बन गए। ऊपर ऊपर वेदांत की बात जरूर की लेकिन उन्हें पता था कि असल काम मिशनरी ढंग से ही होना है। उन्होंने अपने मिशन का जो नाम रखा और जो काम किया उसमे जमीन आसमान का अंतर है।

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उन्होंने अपने मिशन को रामकृष्ण मिशन नाम दिया लेकिन काम जीसस की स्टाइल में किया। ये रामकृष्ण मिशन नहीं है, इसे विवेकानन्द मिशन कहना ज्यादा ठीक रहेगा।

इसका उनके गुरु रामकृष्ण से कोई संबन्ध नहीं। उनके गुरु ने लोककल्याण, गरीबी हटाओ, महिला पढ़ाओ इत्यादि कोई काम नहीं किया। उनके गुरु भारी रहस्यवादी और अंतर्मुखी आदमी थे। विवेकानन्द प्रचण्ड बौद्धिक और संगठनकर्ता थे। दोनों की दिशा अलग थी।

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अमेरिका से जब विवेकानन्द को वास्तविक ज्ञान मिला तब उन्हें समझ में आया कि गरीब, अश्वेत, दलित, हब्शी, नीग्रो और यहाँ तक कि महिलाएं भी इंसान हैं उन्हें सही दिशा और सुविधा दी जाए तो वे भी चमत्कार कर सकते हैं। याद कीजिये खेतड़ी महाराज के निमन्त्रण पर एक नर्तकी से उन्होंने कैसा दुर्व्यवहार किया था। उन्होंने उसे इंसान तक न समझा, उसकी तरफ देखना भी कबूल न किया।

यही विवेकानन्द जब अमेरिका यूरोप में गए तो उन्होंने पश्चिमी सभ्यता और ईसाइयत का चमत्कार देखा। वे पहली बार देख पाये कि “पापयोनि स्त्रियां” भी बुद्धिमान हो सकती हैं और समाज को आगे बढ़ा सकती हैं।

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इन कुछ बातों ने उस विवेकानंद को जन्म दिया जिसकी आज हम तारीफ़ करते हैं। अगर वे समय पर शिकागो न जा पाते और ध्यान समाधि में ही उलझे रहते तो न वे समाज को कुछ दे पाते न ही मिशनरी धर्म की फोटोकापी स्वरूप इस नए हिन्दू धर्म का अविष्कार कर पाते।

इस बीच अरबिंदो घोष भी हैं जो हीगल की भाषा डार्विन और नीत्शे की थ्योरी को वेदांत में प्रक्षेपित करके सुप्रामेन्टल की थ्योरी बनाकर प्रचार करते रहे। वे भी पश्चिम में पले बढ़े यूरोपीय ढंग के आदमी थे। ग्रीक दर्शन और आधुनिक पश्चिमी दर्शन की सारी श्रेष्ठताओं को वेद वेदांत में ढूंढते रहे और अपनी काव्य प्रतिभा के बल पर भारतीय लेखन का ऐसा अनुवाद किया कि सबको लगने लगा कि पश्चिमी खोज के सारे बीज भारतीय शास्त्रों में मौजूद है। भारतियों को बड़ी तृप्ति मिली, उन्होंने अरबिंदो को सर पर उठा लिया। लेकिन उनकी अप्रोच बहुत बौद्धिक थी सो वे ज्यादा नहीं चल सके। शंकर या विवेकानन्द की तरह पूजनीय नहीं बन सके।

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अब इस भूमिका के प्रकाश में आदि शंकर और विवेकानन्द को देखिये। सातवी सदी में आदि शंकर ने बौद्ध धर्म की मूल देशना चुराकर उसका वैदिकीकरण किया और हीरो बन गए। पिछली सदी में विवेकानन्द ने मिशनरी ईसाई धर्म की सेवा और समाज निर्माण की बात को सीखकर लोककल्याणवादि धर्म का मॉडल खड़ा किया और हीरो बन गए। मजे की बात ये कि मूल भारतीय वैदिक धर्म में सेवा और समाज निर्माण का कन्सेप्ट कभी रहा ही नहीं, जो थोडा सा सेवाभाव नजर भी आता है वो आध्यात्मिक नजरिये से पूण्य लाभ करने की तरकीब भर है।

वर्ण और जाति को थोपते रहो और गरीबी और शोषण को बनाये रखो, फिर गरीब को दान दो और बदले में मोक्ष का रिजर्वेशन पाओ। इस तरह गरीब की सेवा असल में गरीब के हित के लिए नहीं बल्कि खुद के लिए जन्नत की टिकट बुक कराने का उपाय है। यही भारतीय धर्म की लोकहित और सर्वे भवन्तु सुखिनः की भावना का कुल जमा सार है।

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आधुनिक काल में लोकतन्त्र और आजादी सहित सेवा और समाज निर्माण की बातों ने जनमानस को प्रभावित किया था, इसमे पुराने धर्म संकट में पड गए। इस खतरे से निपटने के लिए इसी सेवाभाव को विवेकानन्द ने ईसाइयत से यूरोप अमेरिका से सीखा और एक नए भारतीय धर्म का अविष्कार कर डाला।

जैसे शंकर प्रच्छन्न बौद्ध हैं, वैसे विवेकानन्द प्रच्छन्न ईसाई हैं।

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गौर से देखिये ये बौद्ध धर्म और ईसाइयत से उन्हीं के हथियार चुराकर लड़ने वाली परम्परा है जो शंकर से विवेकानंद तक बह रही है। यही काम अभी हाल ही में भगवान रजनीश ने बड़ी होशियारी से किया।

रजनीश ने हर पुराने ग्रन्थ में जबरन पश्चिमी विज्ञान, मनोविज्ञान, लोकतन्त्र, आजादी और न जाने क्या क्या ठूंस दिया। जहां जगह न थी वहां भी ठूंस दिया। हर परम्परा के अंधविश्वासी समुदाय को उसके ग्रन्थ की मनमाफिक व्याख्या करके ये झूठा ख्याल पकड़ा दिया कि तुम्हारे ग्रन्थों में भी पश्चिमी मूल्य, विज्ञान, लोकतन्त्र, समता इत्यादि भरा हुआ है।

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लेकिन रजनीश की चाल उलटी पड़ गयी। लोग इस नई व्याख्या के साथ नहीं गए बल्कि उन्ही पुराने ग्रंथों और भगवानों अवतारों से और ज्यादा चिपक गए। रजनीश की चालबाजी बूमरैंग कर गयी।

फिर रजनीश को भी अमेरिका में असली बुद्धत्व मिला, जब उनका आश्रम और सम्पत्ति पर बुलडोजर चलाये गए। उस दौरान उनकी भक्तमण्डलि की आध्यात्मिक समझ और भाईचारा सब गायब हो गए और वे एक धन्नासेठ के बिगड़े बच्चों की तरह लड़ने लगे। वो लड़ाई आज भी जारी है।

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लेकिन रजनीश शंकराचार्य और विवेकानन्द से बहुत बुद्धिमान साबित हुए। शायद वे उन दोनों से ज्यादा जी सके इसलिए उनमे बुद्धि आ गयी। खैर जो भी हो, रजनीश ने अंत में गौतम बुद्ध को चुन लिया और पूरी तरह बौद्ध दर्शन का प्रचार किया। वे प्रच्छन्न बौद्ध नहीं बल्कि जाहिर बौद्ध बनकर खुल्लम खुल्ला बुद्ध के गीत गाने लगे और अपनी जीवन भर की असफलता को सफलता में बदल दिया।

इस बदलाव की रूपरेखा बनाने के लिए वे कुछ साल मौन रहे और आत्मचिंतन करके अपनी गलतियों को सुधरा। आत्मचिंतन का नतीजा था – बौद्ध धर्म का स्वीकार। उनकी अंतिम चालीस किताबें झेन बौद्ध धर्म पर हैं। कोई भी देख सकता है।

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तो इन बातों का मतलब क्या है?

जिसे आप प्रचलित भारतीय दर्शन या धर्म कहते हैं उसका यहां के वेद वेदांत से कोई संबन्ध नहीं। वो हमेशा से ही वेद विरोधियों की मेहनत से चुराया गया है। वो चोरी चाहे श्रमणों बौद्धों जैनों आजीवकों से की गयी हो या आधुनिक ईसाइयत से की गयी हो।

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मन और शून्य की बौद्ध टेक्नोलॉजी

होश या अवधान को, या निरंतर की जागरूकता को भी एक मानक समझते हुए जो ध्यान किये जाते हैं, वे बहुत जल्दी आपको उस कल्पनालोक मे ले जाते हैं जहां आपको अपनी शर्तों पर सब कुछ मिल जाता है।

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यह मन की वह तरकीब है जो आपको जिंदा रखने की या फिर कहें कि खुद को जिंदा रखने की विवशता से रची जाती है।

यह कोई दिव्य या करिश्माई बात नहीं है यह मन की स्वाभाविक तरकीब है जो उसने लाखों साल के क्रम विकास मे विकसित की है। आप जिस अनुपात मे दुखी होते हैं उसी अनुपात मे मन स्वयं के लिए सुख का इंतेजाम अपनी ही केमिकल फेक्टरी के जरिए कर देता है।

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अगर आपकी मानसिक या शारीरिक तकलीफ या दर्द एक सीमा के बाहर जाने लगे तो आपका मन ऐसे अनुभव खुद ही पैदा कर देता है जिससे आपको या आपके मन को खुद ही आनंद मिलने लगे।

अगर रोजमर्रा के घमासान मे आप बहुत व्यस्त हैं तो मन की यह केमिकल फेक्टरी या मन का यह रंगमंच आपके लिए आवश्यक केमिकल का या आपके मनपसंद नाटक का निर्माण नहीं कर पाता है।

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इसीलिए कहा जाता है कि थोड़ा एकांत का सेवन कीजिए ताकि आपकी मानसिक बीमारी का इलाज आपकी ही खोपड़ी की केमिकल फेक्टरी मे स्वाभाविक रूप से पैदा हो सके।

इसे ही ज्यादातर लोग ध्यान या समाधि कहने मे सुख लेते हैं। लेकिन यह उसी मन का खेल है जो मन दुख की स्मृतियों और अनुभवों को संचित करके बार बार आपका दरवाजा खटखटाता है। फिर यही मन इन्ही स्मृतियों के खिलाफ आपको अपना ही होम-मेड दर्दनिवारक भी देता है। इस तरह दायें और बाएं हाथ की नूराकुश्ती चलती रहती है।

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इसे ही ज्यादातर लोग अध्यात्म या धान समाधि कहते हैं।

लेकिन इसके बाहर कैसे हुआ जाए? और क्या इसके बाहर होने की कोई जरूरत भी है?

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सबसे पहली बात तो यह कि अगर आपको इसमे आनंद आता है और इस नूराकुश्ती का दुख और आनंद एक सुरक्षित सीमा मे रहता है तो इससे बाहर निकलने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। “कोई आवश्यकता नहीं है” कहना भी ठीक नहीं, असल मे वह व्यक्ति इससे खुद भी कभी बाहर नहीं निकलेगा, आप कितना भी जोर लगा लीजिए।

यही उसका स्वर्ग है और किसी को कोई अधिकार नहीं कि उससे उसका स्वर्ग छीन लिया जाए। यह अपराध है, हर व्यक्ति को अपने कल्पनालोक मे स्वर्ग के निर्माण और उसमे रमण करने का पूरा अधिकार है।

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लेकिन समस्या तब आती है जब कि दुख या आनंद की यह लहर आपकी वर्तमान क्षमता से बाहर जाने लगे।

आपकी क्षमता से बाहर अगर दुख या सुख के आँसू बहने लगें तब आपको कुछ करना होता है। लेकिन किया क्या जाए?

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इन मामलों मे कुछ “करना” असंभव है, या कहें कि इस “करने” कि भाषा मे सोचना भी गलत है। आप इतना ही “कर” सकते हैं कि चुपचाप बैठकर देखें कि यह खेल शुरू कैसे होता है और खत्म कैसे होता है। इस खेल के चक्र होते हैं, एक लहर के बाद दूसरी लहर होती हैं, ऐसी अनगिनत लहरें हैं।

एक स्तर पर शांत और स्थिर होकर देखने की क्षमता आ जाने के बाद पता चलता है कि यह सब मन के द्वारा पैदल चलने की कवायद जैसा है, पहले दायाँ पैर उठता है फिर बायाँ पैर, इस तरह एक निरन्तरता बनती है और जीवन भर यह चलता रहता है।

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मन पहले दुख का पैर उठाता है फिर सुख का पैर उठाता है और ऐसे जिसे जीवन कहा जाता है वह चलता रहता है।

दिक्कत तब होती है जब ये कदम सामान्य की तुलना मे अधिक भारी या धीमे या तेज हो जाएँ।

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ऐसी स्थिति मे आपको इस कदमताल के पूरे चक्र को बिना निर्णय लिए बिना नाम दिए देखना होता है। ज्यादातर लोग इसे श्वास पर ध्यान देते हुए करना पसंद करते हैं। आनापान से शुरू करते हुए या श्वासों के चक्र पर नजर रखते हुए धीरे धीरे अनुभूति के चक्र को देखना शुरू करते हैं। यह अच्छी शुरुआत होती है।

लेकिन समस्या तब आती है जब श्वासों के अवलंबन पर टिके रहने पर एक दृष्टा तो स्थिर हो जाता है और दृश्य बहने लगता है। तब ऐसा लगने लगता है कि अनुभव करने वाला कोई है जो स्थिर है और वह सब अनुभव ले रहा है।

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असल मे यह मन का सबसे गहरा खेल है। मन हमेशा स्वयं को और अपने होने को परिभाषित करने के क्रम मे अनुभवों की फिल्म बनाकर स्वयं बैठकर देखने लगता है और अपने होने का अनुष्ठान करता है। इसमे बहुत मज़ा आता है, ध्यान मे उतरने वाला हर इंसान इस बिन्दु पर आकर बहुत आनंद का अनुभव करता है।

इसमे अपने अंदर एक ऐसे “शाश्ववत होने” का आभास होता है जो हर अनुभव को देखने वाला होता है। इस “शाश्वत” या “अनश्वर” या “केंद्र” या “साक्षी” की प्रशंसा मे बहुत सारी किताबें रंगी गई हैं।

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इस बिन्दु तक पहुँचने की और इससे चिपक जाने की कोशिश बरसों तक चलती है। इसके आनंद से अधिकांश लोग बाहर निकलना नहीं चाहते। वैसे यह ठीक भी है, जहां आनंद मिले उसी मे ठहर जाना हर व्यक्ति का अधिकार है।

कम से कम शराब और गांजे के नशे से तो यह लाख गुना बेहतर है।

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लेकिन कुछ लोगों के लिए यह बर्दाश्त की सीमा से बाहर होता है। स्मृतियों और भावों का आक्रमण जब होता है तब वह भी अतिशय होता है। इसके खिलाफ मन जो “एनेस्थीसिया” देता है वह भी अतिशय हो जाता है, इन दोनों अतियों पर बार बार तेजी से फुदकते हुए इंसान टूटने लगता है और तब उसे बाहरी सहायता की जरूरत होती है।

यहाँ सबसे बड़ी सहायता की सलाह यही दी जा सकती है कि अब आपने जिसे अनुभोक्ता या केंद्र मान लिया है उससे चिपकना छोड़कर उसी को देखना शुरू कीजिए।

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जिस तरह स्मृति और भावो की लहर आती है उसी तरह अपने “होने” की या अनुभोक्ता की भी लहर आती है। स्मृति या भाव की लहर जितनी बड़ी होगी आपके होने की लहर भी उतनी ही बड़ी होगी।

इसीलिए जो धर्म “धारणा” और “कल्पना” के आधार पर अनुभोक्ता के अनुभव का अनुष्ठान करते हैं वे अनिवार्य रूप से “आत्मा” मे फंस जाते हैं। इस “आत्मा” के साथ निश्चित ही बहुत आनंद है।

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लेकिन इस आत्मा और इसके आनंद को बार बार मैनेज करने और लेजिटीमेसी देने के लिए किसी परमात्मा की धारणा चाहिए, फिर परमात्मा को लेजिटीमेसी देने के लिए कोई और व्याख्या चाहिए। इस तरह चूहे को डराने के लिए बिल्ली और बिल्ली को डराने के लिए कुत्ते की जरूरत बढ़ते बढ़ते अनंत तक फैल जाती है।

यह खतरनाक खेल है। इस खेल से राज्य और सत्ता और राजनीति चलाने मे बहुत मदद मिलती है लेकिन व्यक्ति का अंतर्मन बहुत अस्वस्थ हो जाता है।

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इस खेल को शुरू होने से पहले ही स्मृतियों और भावों के अतिरेक के बिन्दु पर ही अनुभव को छोड़कर अनुभोक्ता पर नजरें टिकानी होती हैं। या सीधे सीधे कहें तो स्मृति या भाव या शरीर कि संवेदना को देखते हुए स्वयं देखने वाली सत्ता को भी एकसाथ अनुभव करना होता है।

फिर एक बिन्दु आता है जब यह साफ होने लगता है कि जो दिख रहा है वह तो लहर है ही जो देख रहा है वह भी लहर ही है। न सामने कोई केंद्र है न भीतर कोई केंद्र है।

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इसी को तथागत बुद्ध ने शून्य कहा है। यहाँ न दुख है न सुख है, न अनुभव है न अनुभोक्ता है।

इस शून्य की थोड़ी भी प्रतीति बन जाए तब आपको अपने अचेतन मे बार बार घुसकर अपनी खोपड़ी की केमिकल फेक्टरी को नशे या एनेस्थीसिया के प्रोडक्शन का ऑर्डर देने कि जरूरत नहीं पड़ती।

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  • डॉ संजय जोठे

वेदांत की मौलिक मान्यताएं असल में श्रमण बौद्ध धर्म से सीधी चुराई गयी हैं। लेकिन चोरी करने वाले कभी न कभी फंस ही जाते हैं। बुद्ध ने कहा था कि न आत्मा होती है न परमात्मा होता है। स्व का झूठा बोध ही दुःख है। स्व और आत्मा की निस्सारता समझ में आते ही दुःख की निर्जरा हो जाती है।

वेदान्तियों ने इस चमत्कारिक समझ को चुरा तो लिया लेकिन अपने षड्यंत्र में खुद ही उलझ गए।

वेदांती लोग आत्मा की अमरता और मोक्ष दोनों को एकसाथ सिखाते हैं जो संभव ही नहीं। मोक्ष का अर्थ होता है आत्मा या स्व का मिट जाना, तब आत्मा अजर अमर न रही। अगर अजर अमर है तो सदैव जैसी है वैसी बनी रहेगी, तब मोक्ष की संभावना निरस्त हो जाती है।

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वेदांती दोनों हाथ में लड्डू चाहते हैं। आत्मा के सिद्धांत के आधार पर व्यक्तिगत स्व के बोध और उससे जन्मी असुरक्षा का शोषण भी करेंगे और मोक्ष का लॉलीपॉप भी घुमाते रहेंगे। यही दुनिया में धर्म के जगत का सबसे बड़ा पाखण्ड है। और आदि शंकर से लेकर भगवान रजनीश तक सभी वेदांती इसके सबसे बड़े चैम्पियन हैं।


आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्मवादी वेदांत की मूर्खता को बार बार समझना होगा।

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यह भी समझना होगा कि बौद्ध धर्म की मूल देशना को चुराकर उन्होंने थोड़ी देर के लिए वाहवाही लूट ली लेकिन पाखण्ड का ऐसा दलदल निर्मित कर दिया जिसमे से आज तक हम नहीं निकल पाये हैं।

बुद्ध ने कहा था कि कोई आत्मा नहीं कोई परमात्मा नहीं और कोई पुनर्जन्म नहीं है। शरीर सहित स्व या आत्म भी अन्य उपादानों या घटकों के मिलन से बनती है और उन्ही घटकों में बिखर जाती है। फिर इन बिखरे हुए शरीर और मनों के टुकड़े (विचार) हजारों अन्य टुकड़ों में मिल जाते हैं।

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इन टुकड़ों के विराट समुच्चय में से मुट्ठी भर टुकड़े फिर संगठित होकर एक अगले गर्भ में एक नया शरीर और मन या स्व बनाते हैं। यही अगला जन्म है। लेकिन यह उस पुराने व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं है। ये बहुत गहरी बात है इसे ध्यान से समझना होगा। यही बौद्ध धर्म का केंद्र है।

स्व या व्यक्तित्व को ही आत्मा कहा गया है, उसी को बुद्ध ने नकारा है। न कोई स्वतन्त्र और आत्यंतिक व्यक्तित्व होता है न ही उसकी निरन्तरता होती है।

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जैसे एक पेड़ मरता है तो उसके शरीर की खाद पर दुसरे पेड़ पैदा हो जाते हैं या उस पेड़ को खाकर दूसरे जीव जन्म लेते हैं। लेकिन ये उस पेड़ का पुनर्जन्म नहीं है। एक जीवन से दूसरा जीवन आ रहा है लेकिन यह पहले व्यक्तित्व की निरन्तरता नहीं है। दूसरा व्यक्ति और उसका आभासी व्यक्तित्व एकदम नया है। यह पुनर्जन्म नहीं सिर्फ नया जन्म है।

संघातों से उत्तपन्न इस शरीर और मन या स्व की वास्तविकता को गहराई से देख लें तो जीवन, शरीर, मन, घटनाओं और समय से तादात्म्य टूटने लगता है और दुःख का निराकरण होने लगता है।

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अब चूँकि कोई स्व या व्यक्तित्व मूल रूप से कही है ही नहीं इसलिए उससे मुक्ति संभव है। आभास से ही मुक्ति संभव है। वास्तविक से कोई मुक्ति संभव ही नहीं। अगर आत्मा अजर अमर और सनातन है तो मुक्ति, मोक्ष या निर्वाण संभव ही नहीं है। अजर अमर को कैसे नष्ट किया जा सकता है?

लेकिन वेदांत ने निर्वाण को प्रचलित मोक्ष या परमात्मा से मिलन के अर्थ में चुरा लिया और अनत्ता के दर्शन को मोह माया के निषेध के दर्शन की तरह रंग दिया। बुद्ध ने अनत्ता या शून्य को परम् मूल्य दिया था। अर्थात स्व या व्यक्तित्व नहीं है – ऐसा जान लेना निर्वाण है। इसी बात को वेदान्तियों ने चुराया और “मैं और मेरे से मुक्ति” को मोक्ष बताया।

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अब वेदांत की मूर्खता देखिये। कहते हैं मैं और मेरे से यानि व्यक्तित्व और आत्म भाव से मुक्ति ही मोक्ष है। फिर ये भी कहते हैं कि एक स्वतन्त्र अजर अमर आत्मा भी होती है। अब इन दोनों बातों को ध्यान से देखिये। एक तरफ आत्मभाव से मुक्ति की सलाह दे रहे हैं और दुसरी तरफ इसी आत्म को अजर अमर भी बता रहे हैं इस तरह आत्मभाव को – मैं और मेरे को मजबूत भी कर रहे हैं। अगर आत्म अजर अमर है तो उससे मुक्ति की जरूरत क्यों है? और अजर अमर से छुटकारा क्यों चाहिए? फिर आगे ये भी कहते हैं कि परमात्मा में आत्मा विलीन हो जाती है तो मोक्ष हो जाता है।

अब जो चीज किसी दूसरी चीज में विलीन हो सकती है वो अजर अमर कैसे हुई?

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वेदांती स्पाइडरमेन अपने ही जाल में उलझ मरा है। इसीलिये इस मुल्क में एक सांस में एक तर्क देते हैं दूसरी सांस में विरोधी तर्क देते हैं। ये अनुलोम विलोम हजारों साल से चल रहा है।

बेहतर हो कि बुद्ध को सीधे सीधे समझ लिया जाए। वेदांत की कन्फ्यूज्ड शिक्षाओं और आत्मा परमात्मा की जगह अब बुद्ध के शून्य और अनत्ता को आ जाना चाहिए। समय परिपक्व हो गया है।

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  • डॉ संजय जोठे
2 Comments

2 Comments

  1. Raj Shekhar

    June 2, 2023 at 12:58 pm

    नाम के आगे doctor लगा है‌ लेकिन मुझे नहीं लगता MBBS है। इस तरह की बात वैज्ञानिक सोच वाला व्यक्ति कभी नहीं कर सकता। दुनिया में जो कुछ बेहतर हो रहा है वह modification है। इसमें किसी की रचना से कुछ ले लेना मोडिफिकेशन का ही हिस्सा है।

  2. रवीन्द्र नाथ कौशिक

    June 4, 2023 at 10:18 pm

    संजय जोठे नहीं,संजय झूठे।
    1-हां,आदि शंकराचार्य ने वेदांत को रणनीतिक रूप से अपनाया और राज सत्ताओं दम पर फैले – टिके बौद्ध मत को शास्त्रार्थ से अकेले दम उखाड़ फैंका।
    2- स्वामी विवेकानंद को पश्चिम से कोई विचार नहीं मिला। फ्री मिशनरीज से धोखा जरूर मिला जिसने उनकी जान ले ली।
    3- रजनीश हर पुरातन विचारक में कुछ जीवनोपयोगी ढूंढ पाये,ये उनकी विलक्षण बौद्धिकता है जो कोई और नहीं कर पाया। भूल गए, ईसाईयत की उस आदमी ने जड़ें खोद दी थी जिससे चिढ़ कर अमेरिका ने उनकी हत्या करवा दी। जो बाकी रही,उसकी कब्र डॉक्टर झूठे निकालने की फ़िराक में है।

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