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आज भाजपा उम्मीदवारों की पांचवीं सूची लीड है, खबरों की बात क्या करूं? 

केजरीवाल की गिरफ्तारी के खिलाफ दिल्ली में विपक्ष की रैली और जेएनयू छात्र यूनियन के चुनाव परिणाम दिल्ली के अखबारों में भी पहले पन्ने पर नहीं हैं

संजय कुमार सिंह

आज के ज्यादातर अखबारों में भाजपा ने किसे कहां से टिकट दिया लीड है। पार्टी के 111 उम्मीदवारों की यह पांचवी सूची है फिर भी कई अखबारों में लीड है। आप समझ सकते हैं कि एक तरफ तो खबर असल में प्रचार है और दूसरी तरफ खबर को प्रचार की तरह छपवना भी संभव नहीं है। कल मैंने लिखा था कि अखबारों ने इलेक्टोरल बांड पर कांग्रेस का विज्ञापन छापने से मना कर दिया। कांग्रेस के खाते फ्रीज हैं और उसपर व्यवस्था द्वारा कुछ भी किये जाने या नहीं किये जाने (दरअसल उसका विरोध या फॉलो-अप) की कोई खबर नहीं है। कायदे से चुनाव के समय ऐसा होना ही नहीं चाहिये था और अगर हुआ है तो यह वसूली टाली जा सकती है। वैसे भी यह पुराना मामला है और जब मारपीट के आरोपी को उपराज्यपाल बनाया जा सकता है और संवैधानिक पद पर होने के कारण 20 साल पुराने मामले में राहत मिल सकती है तो इस मामले में कांग्रेस को भी मिलनी चाहिये। पर पिछले 10 साल में नरेन्द्र मोदी की भाजपा सरकार ने यही हालत और व्यवस्था बनाई है कि राहत सिर्फ सरकार समर्थकों को मिलती है। इलेक्टोरल बांड में पूरी सरकार को राहत मिली ही हुई है। भाजपा जीत जायेगी तो यह दूसरा पुलवामा हो सकता है। पर वह अलग मुद्दा है।

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टिकट की घोषणा में भी वरुण गांधी का नाम नहीं होने, उनकी जगह जितिन प्रसाद के होने और मेनका गांधी को सुल्तानपुर से टिकट दिये जाने की खबर खास है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने इसे भाजपा के टिकटों की मुख्य खबर के पास पर अलग से तीन कॉलम में छापा है। पूर्व वायु सेना प्रमुख राकेश सिंह भदौरिया भाजपा में शामिल हो गये हैं और दो बार के सांसद पूर्व सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह इस बार चुनाव नहीं लड़ेंगे। पार्टी ने उनकी जगह अतुल गर्ग को गाजियाबाद से उम्मीदवार बनाया है। भाजपा से संबंधित ये महत्वूपूर्ण सूचनाएं भी एक खबर में नहीं हैं बल्कि अलग-अलग अखबारों में मिल रही हैं। दिल्ली के अखबारों के लिए जेएनयू के छात्र यूनियन चुनाव के नतीजे हमेशा महत्वपूर्ण होते हैं। आज की खबरों में ये नतीजे और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को गिरफ्तार किये जाने के खिलाफ 31 मार्च को इंडिया समूह की रैली की घोषणा – दो बड़ी खबरें हैं। द हिन्दू ने दोनों को पहले पन्ने पर रखा है। रैली की घोषणा लीड है जबकि जेएनयू के नतीजे की खबर चार कॉलम में है। मेरे सात अखबारों में सिर्फ एक, द टेलीग्राफ दिल्ली का नहीं है। पर दिल्ली की (और राष्ट्रीय राजनीति की भी) ये दोनों बड़ी खबरें हिन्दू के अलावा किसी भी अखबार में पहले पन्ने पर नहीं है। जिसमें है उसमें एक ही। वैसे भी आज होली के दिन कितने लोग अखबार पढ़ेंगे पर इसके लिए खबरें छोड़ नहीं दी जा सकती हैं ना खबरों के नाम पर कूड़ा परोसना जायज है।

चुनाव के समय सीबीआई ने तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा के ठिकानों पर छापा मारा था लेकिन उसकी खबर को भी अखबारों ने महत्व नहीं दिया। संभव है कुछ मिला ही नहीं इसलिए महत्व नहीं दिया हो। जो भी हो, महुआ मोइत्रा ने मांग की है कि सीबीआई पर नियंत्रण जरूरी है ताकि लोकतंत्र का त्यौहार मजाक बन कर न रह जाये। देश में इस समय जो स्थितियां हैं उसमें यह भी बड़ी खबर है। द टेलीग्राफ ने इसे तीन कॉलम में पहले पन्ने पर छापा है। अखबार ने महुआ मोइत्रा के पत्र के संबंधित अंश को आज कोट बनाया है और प्रमुखता दी है। अमर उजाला में यह खबर तो पहले पन्ने पर नहीं है लेकिन भाजपा नेता ने जो कहा है वह पहले पन्ने पर है।

खबर का शीर्षक है, जेल से गिरोह चलते हैं सरकार नहीं – भाजपा। कहने की जरूरत नहीं है कि भाजपा नेता ने कहा और यह पहले पन्ने पर छप गया जबकि तृणमूल नेता ने जो कहा वह ज्यादा महत्वपूर्ण और तर्कसंगत होने के साथ समयानुकूल है। चुनाव के इस समय में निष्पक्ष चुनाव के लिए जरूरी है। उसे नहीं छापकर भाजपा का यह फूहड़ बयान छापना उसे गैर जरूरी महत्व देना तो है ही  बेतुकी बात को जायज के रूप में पेश करना भी है। यह भाजपा सांसद मनोज तिवारी का बयान है। वे पहले भी ऐसा बोलकर अखबारों में छप चुके हैं और मैं इस पर लिख भी चुका हूं। जेल से गिरोह चलते नहीं हैं, चलाने की कोशिश की जाती है और अगर किसी गिरोह के सफलतापूर्वक काम करने की सूचना है तो वह भाजपा राज में भी है। और तो और जेल में बंद ठग सुकेश चंद्रशेखर ने जेल से ही 200 करोड़ रुपये की वसूली कर ली थी। कायदे से सरकार, व्यवस्था और पुलिस का काम है कि ऐसी घटनाएं नहीं हों और उसे रोका जाये। पर वसूली हो गई इसका मतलब नाकामी तो है ही भागीदारी भी हो सकती है। और तो और शाहरुख खान के बेटे की गिरफ्तारी भी वसूली के लिए ही हुई बताई गई थी। जांच भी शुरू हुई पर क्या हुआ पता नहीं। उसके पीछे जेल में बैठा गिरोह था या गिरोह की तरह काम करने वाले सरकार के लोग यह अभी तक पता नहीं चला है।    

जो बच्चे जानते-समझते हैं

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भले ही यह अलग मुद्दा है पर सत्तारूढ़ पार्टी का यह कहना कोई मतलब नहीं रखता है और अगर रखता है तो उसकी अक्षमता, अयोग्यता और कायदे-कानूनों का पालन नहीं किये जाने का ही उदाहरण है। जहां तक अखबारों की बात है, उन्हें यह सब समझ क्यों नहीं आता है वह भी चिन्ता का कारण है। पिछले दिनों सोशल मीडिया में एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें इसमें नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी का एक छात्र एक आयोजन में मौजूद अधिकारियों को बता रहा है, यहां पांच विश्वविद्यालयों के छात्र बैठे है। गांजा या नशे की सामग्री मिलना टॉफी-लॉलीपॉप मिलने की तरह आसान है। वह आगे पूछता है कि विश्वविद्यालय में नये आने वाले पहले वर्ष के छात्र को पता चल जाता है कि नशा कहां मिलता है, किससे संपर्क करना है। यही नहीं, वह बताता है, सामने पुलिस चौकी है और उसके सामने गांजा मिलता है। क्या आपको नहीं लगता कि यह पुलिस की नाकामी है? तालियों की गड़गड़ाहट के बीच लड़के से कहा जाता है, बैठ जाओ और वह कहता है लेट में कम्पलीट। गोदी वालों ने भले खबर नहीं छापी हो, पहली बार के वोटर ऐसे हैं, खबर लेंगे।

जेल से सरकार

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केजरीवाल का मामला सामान्य तो नहीं ही है भले इन्हीं में से कोई एक हो या नहीं। अगर केजरीवाल जेल से सरकार चला रहे हैं या चलाने का दावा कर रहे हैं तो यह और कुछ हो या नहीं भाजपा सरकार की मजबूरी और कमजोरी भी है। वह रोक क्यों नहीं रही है? जाहिर है कि संवैधानिक संकट खड़ा होने के बाद वह मुश्किल में है और कुछ कर पाने की बजाय चाहती है कि केजरीवाल इस्तीफा दें पर वह सीधे ऐसा नहीं कह रही है और भले अपनी योग्यता दिखाने की कोशिश करे पर उसी की अक्षमता है (क्योंकि सरकार में वही है) कि वह कुछ कर नहीं पा रही है और जो गलत है उसे रोक नहीं पा रही है। अखबार यह सब बताने की बजाय खबर छापकर उसका सहयोग कर रहे हैं।

जेएनयू छात्र यूनियन चुनाव परिणाम

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जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र यूनियन के चुनाव का परिणाम इसलिए महत्वपूर्ण है कि चार पदों के लिये चुनाव हुए थे मित्र जितेन्द्र कुमार के ट्वीट के अनुसार अध्यक्ष पद के उम्मीदवार धनंजय को 2598 वोट मिले और वो 922 वोट से जीते हैं जबकि उपाध्यक्ष पद के उम्मीदवार अविजीत घोष को 2409 वोट मिले और जीत का अंतर 927 वोट है। तीसरा पद महासचिव का है। उम्मीदवार प्रियांशी को 2887 वोट मिले जो सबसे ज्यादा है और जीत का अंतर 926 वोट का ही है। इन तीन के मुकाबले संयुक्त सचिव, मोहम्मद साजिद को 2574 वोट मिले और यहां जीत का अंतर सिर्फ 508 है। कारण समझना मुश्किल नहीं है और  जाहिर है वोट देने का आधार क्या रहा होगा। बेशक यह सामान्य नहीं है आप कह सकते हैं जो खराब किया गया था वह अभी सामान्य नहीं हुआ है। इसलिए खबर सिर्फ चुनाव परिणाम नहीं है उसे महत्व नहीं दिया जाना भी है। बेशक कारण समझना मुश्किल नहीं है।   

इंडियन एक्सप्रेस की खबरें

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कहने की जरूरत नहीं है कि आज के शीर्षक का सरलीकरण नहीं किया जाना चाहिये और यह सब पर समान रूप से लागू नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए इंडियन एक्सप्रेस में लीड भाजपा की सूची ही है और जेएनयू चुनाव की खबर नहीं है। लेकिन इलेक्टोरल बांड पर आज भी एक खबर है और लगभग रोज एक से ज्यादा खबरें रही हैं। आज की खबर भी चार कॉलम में है और शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होगा। (सरकारी) एजेंसियों की कार्रवाई का सामना कर रही 26 फर्मों ने बांड खरीदे, इनमें 16 ने दरवाजे पर दस्तक दिये जान के बाद (खरीदे)। उपशीर्षक है, इन 26 फर्मों ने 5179 करोड़ रुपये के बांड खरीदे; भाजपा को इनमें से 37 प्रतिशत मिला, टीएमसी को 18 प्रतिशत और कांग्रेस को 12 प्रतिशत।  ये खबरें अखबारों में उस प्रमुखता से नहीं छप रही हैं जितनी प्रमुखता से छपनी चाहिये और ऐसा तब है जब सरकार नहीं चाहती थी कि ये जानकारी सार्वजनिक की जाए और सुप्रीम कोर्ट के दबाव में यह संभव हो पाया है। वरना भारतीय स्टेट बैंक ने भी कह दिया था कि चुनाव से पहले वह यह डाटा तैयार नहीं कर सकता है।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के दबाव पर जानकारी सार्वजनिक होने की बात तो सब जानते हैं तथ्य यह भी है कि सरकार ने मौका मिलते ही फैक्ट चेयक यूनिट के संबंध में अध्यादेश पास कर दिया था और उसे भी सुप्रीम कोर्ट ने नहीं रोका होता तो ये जानकारी शायद सोशल मीडिया और दूसरे ऑनलाइन पोर्टल के जरिये भी आम मतदाताओं और वोटर तक नहीं पहुंचती। मैं नहीं जानता कि तीसरी बार जीत कर सत्ता पाने की कोशिश कर रही सरकार के काम से संबंधित यह जानकारी आम वोटर तक पहुंचे इसे चुनाव से पहले सुनिश्चित किया जाना जरूरी है कि नहीं है और निष्पक्ष चुनाव के लिए जरूरी हो तो यह किसकी जिम्मेदारी है। अखबार अपना काम ठीक से कर रहे होते तो यह सवाल ही नहीं उठता और अगर नहीं कर रहे हैं तो क्या किया जा सकता है यह मुझे नहीं पता है।

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इंडियन एक्सप्रेस में आज एक और खास खबर है। इसके अनुसार एएसआई संरक्षित साइट की अपनी सूची से 18 इमारतों को हटा देगा जिनका पता नहीं चल रहा है। मुझे लगता है कि यह बहुत दिलचस्प मामला है और संरक्षित साइट का गायब हो जाना साधारण बात नहीं है। अगर उन्हें गायब होने देना समान्य है तभी मिल नहीं रहे हैं औऱ अब उन्हें सूची से ही हटा दिया जायेगा न कि उन्हें ढूंढ़ने या उनकी जगह वैसे ही कुछ बनाने जैसी बात हो रही है। कहने की जरूरत नहीं है कि बाबरी मस्जिद ऐसी ही इमारत रही होगी और जब उसे विधिवत गिराया गया, गिराने के आरोपियों (और उसमें दावा करने वाले लोग भी हैं, उनका वीडियो भी है) को कोई सजा नहीं हुई उसकी जगह मंदिर बन गई 1991 के पूजा स्थल विधेयक के बावजूद ज्ञानव्यापी मस्जिद का मामला अदालत में है, कार्रवाई चल रही है तो यह देश में चल रही व्यवस्था है और खबर भी नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस ने प्रकाशित नहीं किया होता तो बहुत सारे लोगों को पता भी नहीं चलता।  

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