Connect with us

Hi, what are you looking for?

टीवी

ये है आज का टीवी रिपोर्टर! देखें तस्वीर

बीती आधी सदी में पैदा हुई तकनीकी ने दुनिया को बिलकुल बदल दिया है. ये भी कह सकते हैं कि सिर के बल खड़ा कर दिया है. ताकत व संसाधन जो कभी सिर्फ बड़े व मुख्यधारा के पास हुआ करती थी, वो आज सर्वसुलभ है.

कभी बड़े बड़े न्यूज चैनलों के रिपोर्टर अपने कैमरामैन व माइक आईडी पकड़ने वाले एक दो चेलों के साथ फील्ड में हुआ करते थे. आज मोबाइल जर्नलिज्म ने कैमरामैन की छुट्टी कर दी है. रिपोर्टर खुद ही कैमरामैन बन चुका है. कुछ उसी तरह जैसे प्रिंट मीडिया में डेस्क पर बैठा सब एडिटर खुद ही पेजिनेटर भी बन चुका है, प्रिंट मीडिया का फील्ड में घूमता रिपोर्टर अपने मोबाइल से अपने मीडिया हाउस के डिजिटल विंग के लिए वीडियो भी शूट करता है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

आज एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार उमाशंकर सिंह ने एक तस्वीर फेसबुक पर शेयर की. इसमें वे ग्राउंड से लाइव रिपोर्टिंग करने के दौरान टीवी पर आए एक ब्रेक में चाय या पानी पीते दिख रहे हैं. उन्होंने लिखा भी है कि ब्रेकिंग न्यूज सिचुवेशन में एड ब्रेक के दौरान की ये पिक है. उमाशंकर लिखते हैं कि वे जो भी करते हैं स्टाइल से करते हैं.

तस्वीर के लास्ट में हैशटैग के साथ मोजो और मोबाइलजर्नलिज्म लिखा हुआ है.

उमाशंकर सिंह टीवी न्यूज माध्यम के सम्मानित और ईमानदार पत्रकारों में से एक हैं. वे सादगी और सहजता को पसंद करते हैं. उन्होंने अपनी तस्वीर में खुद को फील्ड से वैसे ही प्रजेंट किया जैसे वे हैं. ये तस्वीर कुछ इशारा कर रही है. इस तस्वीर का बयान है कि भारी भरकम तामझाम वाले दौर की समाप्ति हो चुकी है. तकनीकी ने सबको एक लेवल पर खेलने के लिए खड़ा कर दिया है. बड़े मीडिया हाउस के एक फील्ड रिपोर्टर और एक यूट्यूबर के बीच कोई फर्क नहीं. दोनों के पास शूट करने और जनता तक पहुंचाने की तकनीकी है. अभी एक का दायरा बड़ा है, एक का छोटा. वक्त के साथ ये हिसाब भी उलट जाएगा. बड़े दायरे वाले को छोटा होना है, छोटे दायरे वाले चहुंओर चमकेंगे.

Advertisement. Scroll to continue reading.

उमाशंकर की ये तस्वीर काफी कुछ कहानी बयान करती है. खुद ही माइक आईडी पकड़ो, खुद ही ट्रायपाड पर मोबाइल/कैमरा सेट करो, खुद ही अपने लिए फोल्डेबल कुर्सी व स्टूल निकालो. खुद के लिए चाय पानी रखो और खुद ही उड़ेलो-पिओ. मतलब अब जो फेसबुक / यूट्यूब चैनल वाला पत्रकार है, वही हाल सैटेलाइज न्यूज चैनल वाले पत्रकार का है. दोनों के बीच का भेद लगभग खत्म हो गया है. न्यूज चैनल के रिपोर्टर का पूंजीगत दिखावा/एलीटनेस खत्म हो गया है. डिजिटल रिपोर्टर की तकनीकी दरिद्रता खत्म हो चुकी है.

तकनीकी ने आज की मीडिया को सिर के बल खड़ा कर दिया है. फेसबुक-यूट्यूब पर आने वाले डिजिटल चैनलों की तरह ही हो गए हैं सैटेलाइट चैनल. कुछ फेसबुक-यूट्यूब चैनल तो इन सैटेलाइट चैनलों से भी अच्छे हैं. जैसे पत्रकार विवेक सत्य मित्रम का ‘इंटरनेट का प्राइम टाइम’ सैटेलाइट न्यूज चैनलों को गंभीर चुनौती देने का माद्दा रखता है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

डिजिटल स्टूडियो, घर से बैठे लाइव-आनलाइन होने की सुविधा, चैट / डिबेट को रिकार्ड करने की सुविधा देने वाले जूम जैसे मंच, लेआउट व प्रजेंटेशन को किसी ओरीजनल टीवी स्टूडियो सरीखा लुक-एंड फील देने वाले कई डिजिटल माध्यमों के आ जाने से अब टीवी चैनल शुरू करना बच्चों के खेल जैसा हो गया है. आप तकनीकी रूप से दक्ष हैं तो खुद का मीडिया हाउस खड़ा कर सकते हैं, वो भी अकेले ही.

पीटीआई, स्टार न्यूज़ और इंडिया न्यूज़ इत्यादि में कार्यरत रहे विवेक सत्य मित्रम को उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं. चुके विवेक सत्य मित्रम इन दिनों अपने मीडिया हाउस के मालिक हैं. उन्होंने अपने मंच से कल जो ‘इंटरनेट का प्राइम टाइम’ किया, उसका लिंक नीचे दिया जा रहा है, उसे देखें.

Advertisement. Scroll to continue reading.

वीडियो देखने से पहले पहले उनकी दिल की बात सुन लें. उनकी बात पढ़ने से ये समझ में आ जाएगा कि कथित मुख्यधारा के चैनलों में बहुत ही कम कायदे के पत्रकार बचे हुए हैं. ज्यादातर क्लर्क हैं जो समय से सेलरी पाने के लिए नौकरी को दांत से पकड़े हुए हैं. ज्यादातर एजेंडा पत्रकारिता के मोहरे हैं जो सेलरी पाने के लिए दिन भर रोबोट की माफिक ये वो दिखाते बताते रहते हैं.

पढ़िए देखिए विवेक सत्य मित्रम को और इनके चैनल को सब्सक्राइब भी कर लें ताकि आप कुछ नया कंटेंट देख-सुन सकें.

Advertisement. Scroll to continue reading.

‘आंधियों में वो पेड़ गिर जाते हैं जो तन कर रहते हैं, जिनमें लचक होती है वही बचे रहते हैं!’ मैं हमेशा सोचता रहा कि आख़िर बचे हुए पेड़ उन पेड़ों के बारे में क्या सोचते हैं जो सिर्फ़ इसलिए उखड़ जाते हैं क्योंकि उनमें लोच नहीं होता, वो झुक नहीं पाते?’ जो भी सोचते हों पर ये तो नहीं ही सोचते होंगे कि वो कमज़ोर थे इसलिए उखड़ गए! ये बात तो पक्की है।

तकरीबन दस साल पहले जब मैंने अन्याय और भेदभाव के ख़िलाफ़ बिना किसी योजना के अचानक एक न्यूज़ चैनल के बड़े पद से इस्तीफ़ा दे दिया तो बाबूजी ने मुझे इन पेड़ों की याद दिलाई थी। मैंने सोचा भी कुछ वक्त के लिए कि प्रैक्टिकल होकर अपने फैसले पर कम से कम एक बार पुनर्विचार करूं पर फ़िर समझ आया कि अपने उसूलों से समझौता करके, अपने ज़मीर को गिरवी रखकर अपनी नौकरी तो ज़रूर बचाई जा सकती है लेकिन वो अपनी मौत पर दस्तख़त करने जैसा था। सच तो ये है कि उस दिन के बाद जो व्यक्ति नौकरी कर रहा होता वो मैं नहीं होता। वो ‘मैं’ जिसने हमेशा सिर्फ़ अपने पिता सरीखा होना चाहा। उनके जैसे ही इंप्रैक्टिकल उसूलों, आउटडेटेड आदर्शों को हर कीमत पर जीना चाहा जिनसे कुछ भी हासिल नहीं होता। वो मैं जो सत्य और न्याय के लिए ज़रूरत पड़ने पर पूरी दुनिया के ख़िलाफ़ खड़े होने, लड़ने, जूझने और टकराने का माद्दा रखता था। मैंने उस ‘मैं’ को बचाकर रखना ज़रूरी समझा जिसमें मुझे मेरे पिता नज़र आते हैं और मैं उन्हें महसूस करता हूं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

न जाने कितनी नौकरियां छोड़ी, न जाने कितने मौक़े छोड़े जिनसे तमाम दुनियावी उपलब्धियां हासिल हो सकती थीं। पर मुझे किसी भी बात का कोई मलाल नहीं है और ना कभी होगा क्योंकि मैंने समझा है कि ग़लत चीज़ों से समझौता करनेवाले लोग उसी वक्त मर जाते हैं जब वो ऐसा करते हैं। और फ़िर अपनी लाशें ढो रहे लोग सड़क पर नंगे पैर चलते हैं या मर्सिडीज में, उनके अकाउंट में फूटी कौड़ी भी नहीं है या अरबों रूपये हैं, वो फुटपाथ पर सोते हैं या आलीशान बंगले में, वो प्रसिद्धि के ऊंचे मुकाम पर हैं या गुमनाम। मुझे नहीं लगता कि इनमें से कुछ भी मायने रखता है। कुछ मायने रखता है तो बस ये कि क्या आप ख़ुद को बचाकर रख पाते हैं जैसे आप होना चाहते हैं? अगर हां, तो बस वही सबसे बड़ी उपलब्धि है। क्योंकि सफलता की परिभाषा कभी भी सबके लिए एक सी नहीं होगी। और इससे बड़ी कामयाबी कुछ भी नहीं हो सकती कि आप अपनी शर्तों पर अपनी ज़िंदगी जी रहे हैं। कंप्रोमाइज़ एक सायनाइड है, आज नहीं कल आप समझ जाएंगे। जब सब कुछ पाकर भी आपको कुछ भी महसूस नहीं होगा। और आख़िरी बात — उसूल ही हमें जानवरों से अलग करते हैं, वरना बुनियादी तौर पर उनमें और हममें कोई फ़र्क नहीं होता। आज का ज्ञान बस यहीं तक।


विवेक का इंटरनेट का प्राइम टाइम भले ही अभी शुरुआती अवस्था में कम देखा सुना जा रहा हो लेकिन अगर वो इसे जारी रखते हैं तो इस काम को एक रोज जमाना सलाम करेगा… देखें उनका एक एपिसोड-

Advertisement. Scroll to continue reading.

भड़ास एडिटर यशवंत सिंह का विश्लेषण.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement