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आज खबरों में न्यायपालिका की आजादी और निष्पक्षता के मुकाबले भाजपा का प्रचार हावी

तीसरी बार चुनाव जीतने के लिए प्रधान प्रचारक के लिए एंटी इनकम्बेंसी भी मुद्दा है

संजय कुमार सिंह

यह दिलचस्प है कि छह दिसंबर (देश और देश पर परिवार के शासन के लिए इस तारीख का अपना महत्व है) को द टेलीग्राफ की लीड का शीर्षक था, सर्वोच्च न्यायालय में चीजें अनकही छोड़ दी जायें तो सबसे अच्छा। इस खबर का फ्लैग शीर्षक था, सरकार के खिलाफ पीआईएल लिस्टिंग से हटा दी गईं, जज अंधेरे में। अभी तक आप मामला जानते होंगे। नहीं जानते हैं तो आगे जो बताउंगा उससे और चौंकेंगे। मेरा मकसद आपको चौंकाना नहीं, तथ्य बताना है। ऐसे तथ्य जो आप कई सारे अखबार नहीं पढ़ते हैं, सतर्क नहीं हैं तो नहीं जान पायेंगे और व्हाट्सऐप्प यूनिवर्सिटी के फॉर्वार्ड के रूप में जो आता है या प्रचार वाली जो पत्रकारिता चल रही है उसमें कुछ और जानेंगे या समझा दिया जायेगा। इसलिये आज इस खबर और उसके बाद की घटनाओं की चर्चा और उसका संदर्भ। अमूमन अगर मैं किसी दिन किसी कारण से पहले पन्ने की चर्चा नहीं करता हूं तो बाद में उसकी चर्चा रह जाती है लेकिन इस बार मामला थोड़ा अलग है और वह इसलिए भी कि आज टाइम्स ऑफ इंडिया में टॉप पर तीन कॉलम की खबर का शीर्षक है, भाजपा ने साबित कर दिया है कि इनकंबेंसी हार का कारण नहीं बनती है : मोदी।

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इस और आज की दूसरी खबरों पर आने से पहले बताऊं कि उपरोक्त खबर का हाइलाइट किया हुआ हिस्सा है, मैं यह स्पष्ट करता हूं कि मैंने इसे डिलीट नहीं किया था ना इसपर सुनवाई से अनिच्छा जाहिर की थी। मुझे यकीन है कि मुख्य न्यायाधीश को इसकी जानकारी है। खबर के अनुसार न्यायमूर्ति संजय किशन कौल केंद्र सरकार के खिलाफ कुछ जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करने वाली पीठ के प्रमुख हैं। ये याचिकाएं जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण में देरी पर सुनवाई के लिए थीं पर बगैर किसी स्पष्टीकरण के इन्हें डिलीट कर दिया गया। इसपर न्यायमूर्ति की टिप्पणी खबर और सुर्खियां बनीं। अगले दिन यानी 7 दिसंबर को द टेलीग्राफ ने पहले पन्ने पर एक और खबर छापी जिसका शीर्षक था, दुष्यंत दवे ने मुख्य न्यायाधीश से गुस्सा, वेदना जताई। दुष्यंत दवे सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं और ऐसे मामलों में लिखते-बोलते और काम करते रहते हैं। अपनी इस चिट्ठी में उन्होंने कहा है, सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री द्वारा मामलों की लिस्टिंग और पीठ के बदलने के घटनाक्रमों से दुखी हैं।

सोशल मीडिया पर उपलब्ध इस पत्र के अनुवाद के अनुसार अपने पत्र में उन्होंने लिखा है, एक बार मामला सूचीबद्ध हो गया है या नोटिस जारी किया गया है या खारिज कर दिया गया है या निपटाया गया है या प्रवेश सुनवाई के चरण में आंशिक रूप से सुना गया है, उसके बाद मामला केवल पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया जा सकता है। प्रथम कोरम का और अन्य किसी का नहीं। प्रेम प्रकाश की फेसबुक पोस्ट के अनुसार, पैरा 47 आपराधिक मामले से संबंधित है और निम्नानुसार प्रदान करता है- “आपराधिक मामले, रिट याचिका (आपराधिक) को छोड़कर, लेकिन बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं को छोड़कर, जहां सेवा पूरी हो गई है लेकिन विरोध में हलफनामा दायर नहीं किया गया है, मामले में कोरम रखने वाली नियमित बेंच के समक्ष सूचीबद्ध किया जाएगा और अपूर्ण श्रेणी के तहत नहीं।” यह सुनिश्चित करने के लिए कि इस उत्तम अभ्यास का पालन किया जाए; यदि किसी मामले को सूचीबद्ध करने के बारे में किसी वरिष्ठ द्वारा मौखिक रूप से कोई निर्देश दिया जाता है, तो संबंधित अधिकारी को लिखित पुष्टि लेनी होगी। 

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मामले की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगता है कि एक्टिविस्ट और अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने भी इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार ज्यूडिशियल को पत्र लिखा है और द टेलीग्राफ ने आज इसे फिर लीड बनाया है। कहने की जरूरत नहीं है कि मामला जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण में देरी, उससे संबंधित जनहित याचिकाओं पर सुनवाई और फिर उसे डिलीट कर दिये जाने का है तो कितना गंभीर है और इस मामले को स्पष्ट नहीं किये जाने या बिना कहे छोड़ दिये जाने के क्या मतलब हैं। न्यायमूर्तिगण तो रिपोर्ट नहीं कर सकते, प्रेस कांफ्रेंस करना उनका काम नहीं है। हालांकि, नामुमकिन मुमकिन है, सो वह भी हो चुका है। जो भी हो, आज यह खबर किसी और अखबार में वैसी प्रमुखता से नहीं है जैसी द टेलीग्राफ दे रहा है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट से संबंधित दूसरी खबरें हैं और जो खबर है उसे प्रमुखता या प्राथमिकता मिलने का कारण समझना मुश्किल नहीं है। पर अभी वह मेरा मामला नहीं है। मेरी चिन्ता यह है कि पहले (जब सरकार भ्रष्ट थी) तो सुप्रीम कोर्ट स्वमेव मामले लेती थी। उसकी खबरें छपती थीं, अब जनहित याचिका करने वालों पर जुर्माना लगाया गया है वह विशेष खबर नहीं बनी और डिलीट होने की खबर को महत्व नहीं मिल रहा है।  

सुप्रीम कोर्ट की जो खबर आज टाइम्स ऑफ इंडिया (पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर) और द हिन्दुस्ताटन टाइम्स में लीड है वह अवैध पलायन से संबंधित है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ ने कहा है, अवैध पलायन एक गंभीर समस्या है। सरकार क्या कर रही है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने सुप्रीम कोर्ट के इसी सवाल को लीड का शीर्षक बनाया है। हिन्दुस्तान टाइम्स में भी लीड छपी इस खबर का शीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट असम में आये लोगों के मामले की संभावनाओं का विस्तार किया। आप समझ सकते हैं कि केंद्र सरकार जब लोकसभा चुनाव से पहले सीएए के मामले को फिर चर्चा में ला चुकी है तो इस खबर और शीर्षक का क्या महत्व है। वह भी तब जब जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण से संबंधित जनहित याचिकाओं का मामला है। मेरे हिन्दी अखबारों से तो ये खबरें पहले पन्ने से वैसे गायब है जैसे गधे सिर से सींग। और बात इतनी ही नहीं है। प्रधानमंत्री भाजपा के प्रधानप्रचारक के रूप में काम करते रहे हैं और चुनाव के समय भी उनका प्रचार खबरों के रूप में छप रहा है जबकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता से संबंधित खबर को साफ तौर पर नजरअंदाज कर दिया गया है। राहुल गांधी की आलोचना की तो कोई बात ही नहीं है। वह तो कांग्रेस के नेता भी करते हैं लेकिन प्रचार यह किया गया कि यहां वंशवाद हैं और भाजपा में लोकतंत्र क्योंकि नरेन्द्र मोदी में आलोचना करने लायक कुछ है ही नहीं।

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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनाव प्रचार के मोड में हैं इसका पता इंडियन एक्सप्रेस के शीर्षक से लगता है और इससे भी टाइम्स ऑफ इंडिया के शीर्षक के चुनावी लाभ को समझा जा सकता है। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, विधानसभा चुनाव जीतने के बाद नरेन्द्र मोदी ने भाजपा सांसदों से कहा, लोकसभा की जांच का सामना करने के लिए टीमवर्क बनाये रखें। कहने की जरूरत नहीं है कि भाजपा ने 10 साल के शासन या अपने दो कार्य में निष्पक्ष चुनाव भी सुनिश्चित नहीं किया है। चुनाव आयोग पर नियंत्रण की कोशिशों और संबंधित प्रयासों तथा उनकी कामयाबी के बाद विधानसभा चुनाव नतीजे चौकाने वाले हैं तो सुप्रीम कोर्ट की निष्पक्षता तथा जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण से संबंधित खबर अगर इस मामले में जनता का ध्यान आकर्षित करने वाली है तो अखबारों की रिपोर्टिंग उनका समर्थन करती दिखाई दे रही है। सरकार अपनी ओर से मंदिर के उद्घाटन से लेकर सीएए के मामले को पुनर्जीवित करने के प्रयासों में लगी दिख रही है।

इंडियन एक्सप्रेस

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यह अलग बात है कि इंडियन एक्सप्रेस में भाजपा या सरकार विरोधी खबरें भी हैं और महाराष्ट्र बैकवर्ड क्लास कमीशन के दो सदस्यों के इस्तीफे की खबर को प्रमुखता मिली है। इस खबर के अनुसार सदस्यों का कहना है कि सरकार चाहती है कि वे मराठा कोटा (आरक्षण) का समर्थन जुटाने के लिए काम करें। कथित खालिस्तानी अलगाववादी की हत्या की कोशिश के मामले में विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा है और इंडियन एक्सप्रेस ने लीड के साथ छापा है, कोई तुलनीय व्यवहार नहीं, अमेरिका ने इनपुट दिये, कनाडा ने नहीं। टाइम्स ऑफ इंडिया में इस खबर का शीर्षक है, अमेरिका के पन्नून इनपुट का हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा पर असर पड़ता है। इस खबर का इंट्रो है, राज्यसभा में उन्होंने कहा, कनाडा ने कोई खास सूचना नहीं दी। द हिन्दू में इस खबर का शीर्षक है, पन्नून की हत्या की साजिश अगले महीने एफबीआई प्रमुख के भारत दौरे के एजंडा में सबसे ऊपर रहने की संभावना है। इंडियन एक्सप्रेस की एक और खबर का शीर्षक है, न्यूजक्लिक मामले की जांच – पुलिस ने दिल्ली अदालत से कहा पांच संभावित गवाहों की पहचान की रक्षा की जाये । आप जानते हैं कि न्यूजक्लिक का मामला मीडिया का है।

इस मामले में इमरजेंसी में जेल में रहे पत्रकार प्रबीर पुरकायस्थ और उनके सहयोगी जेल में है तथा उनका अपराध भी स्पष्ट नहीं हैं। जो अपराध कहा जा रहा है वह अपराध कैसे है वह भी समझ में नहीं आ रहा है लेकिन उनपर यूएपीए लगा दिया गया है और उनका कहना है कि पुराने मामलों में ही गिरफ्तार रखने के लिए उनपर यूएपीए लगाया गया है और यूएपीए के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई नहीं हो रही है तथा पुलिस मांग कर रही है कि इस मामले के संभावित गवाहों की पहचान की रक्षा की जाये। यहां यह उल्लेखनीय कि भाजपा सरकार ने अपने कई विरोधियों के खिलाफ मामले सिर्फ आरोप पर चलाये हैं और आरोप लगाने वाला पुलिस के वायदा माफ गवाह जैसा रहा है तथा हाल में ऐसा आरोप महादेव ऐप्प के मामले में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री को रिश्वत देने का था। इस और तमाम मामलों में आरोप लगाने वाले की पहचान छिपाने की जरूरत नहीं रही पर इस मामले में (जो स्पष्ट तौर पर अलग है) पहचान छिपाने की जरूरत है। आम तौर पर खबरें ऐसी ही खबरों से निकलती हैं या इनके फॉलो अप को ही पहले अच्छी रिपोर्टिंग कहा जाता था। पर अब वह सब नहीं के बराबर होता है। मुख्य धारा की मीडिया में तो नहीं ही हो रहा है।    

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बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के बावजूद

ऐसी और इन खबरों के बीच आज के कुछ प्रचार वाले शीर्षक है, आंकड़ों के आधार पर महामारी के दौरान जन्म कम हुए और मौतें ज्यादा रहीं। हिन्दुस्तान टाइम्स ने इस शीर्षक से जो खबर छापी है उसका शीर्षक टाइम्स ऑफ इंडिया में, दिल्ली में जन्म लेने वाले बच्चों का अनुपात 2022 में कम होकर 2021 के 932 के मुकाबले 929 रहा। खबर के अनुसार 2018 में दिल्ली में 1000 लड़कों के मुकाबले 924 लड़कियों का जन्म हुआ था। 2019 में यह 920 रह गया था जो 2020-2021 में बढ़ गया है। सत्तारूढ़ दल का नारा अगर बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ है तो इस आंकड़े का अपना महत्व है। लेकिन महामारी के समय जन्म कम हुए और मौतें ज्यादा हुईं यह भी खबर है और किस तथ्य को प्राथमिकता व महत्व देना है यही संपादकीय विवेक का मामला है जो आजकल संदिग्ध लग रहा है।

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इसी तरह, आज द हिन्दू और हिन्दुस्तान टाइम्स की एक खबर का शीर्षक है, वित्त मंत्री ने भारतीय अर्थव्यवस्था का बचाव किया और कहा, विकसित अर्थव्यवस्थाओं से बेहतर प्रदर्शन रहा, योजनाएं ज्यादा लोगों तक पहुंच रही हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे प्रधानमंत्री के दावे वाली खबर के साथ रखा है और छोटी सी इस खबर का शीर्षक है, निर्मला सीतारमन ने इंडिया को लेकर पी चिदंबरम पर कटाक्ष किया। टाइम्स ऑफ इंडिया की प्रचार वाली खबर की चर्चा पहले कर चुका हूं। खबरों की इस असमानता या समानता को आप जैसे देखिये, तथ्य यह भी है कि आज के कई अखबारों में एयर इंडिया का विज्ञापन एक ही और एक ही तरह से छपा है।      

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