जरूरत निष्पक्ष चुनाव की है और माहौल ऐसा बनाया जा रहा है जैसे सारी जिम्मेदारी मुख्य न्यायाधीश की हो; आज अखबारों में प्रधानमंत्री और पूर्व जजों की चिन्ता तो गंभीरता से है पर राहुल गांधी की चिन्ता को महत्व नहीं दिया गया है, फैसला जनता को करना है और जनता को सूचना पहुंचाने वाले साफ तौर पर एक का पक्ष ले रहे हैं। दूसरी संस्थाएं एक को मजबूत और दूसरे को कमजोर करने में लगी हैं। हालात ऐसे हैं कि कानून के जानकार मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी जैसे मुद्दे पर चर्चा नहीं कर रहे और ना खुलकर राय रख रहे हैं।
संजय कुमार सिंह
आज के अखबारों में इलेक्टोरल बांड पर प्रधानमंत्री ने जो कहा है वह प्रमुखता से छपा है। सुप्रीम कोर्ट ने जब उसे असंवैधानिक बता कर रद्द कर दिया तो उसका बचाव सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर टिप्पणी है और दिलचस्प यह कि आज ही के अखबारों में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को संबोधित पूर्व जजों की चिट्ठी से संबंधित खबर भी छपी है। इसमें कहा गया है कि न्यायपालिका को कमजोर करने के प्रयास किये जा रहे हैं और उसे बचाया जाये। यह कोई पहली चिट्ठी नहीं है और अमर उजाला की एक खबर के अनुसार, यह पत्र भ्रष्टाचार के मामले में कुछ विपक्षी नेताओं के खिलाफ कार्रवाई पर सत्तारूढ़ भाजपा व विपक्षी दलों में वाकयुद्ध के बीच लिखा है। हालांकि, सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने यह नहीं बताया है कि उन्होंने किन घटनाओं को लेकर पत्र लिखा है। इस बीच खबर यह भी है कि चुनावी बांड का मामला फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है।
चार सौर पार के नारे और उसमें दिख व पड़ रहे रार में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका इलेक्टोरल बांड की है और प्रधानमंत्री ने इससे बचने के लिए एएनआई के जरिये सुप्रीम कोर्ट पर हल्ला बोल दिया है। आज के अखबारों में यह खबर प्रमुखता से है और यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि सब पछतायेंगे। अगर वाकई ऐसी स्थिति होती तो भी यह प्रचार नहीं किया जाना चाहिये था पर किया गया है और अखबारों में उदारता से छपा है। पूर्व जजों ने मुख्य न्यायाधीश को चिट्ठी लिखी है लेकिन मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी पर चिन्ता या राय नहीं दी जा रही है। कुल मिलाकर मीडिया और समाज न सिर्फ विपक्ष को दबाने में लगा है, सत्तारूढ़ दल अनैतिक लाभ लेने में भी पीछे नहीं है। नैतिकता का पाठ अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को पढ़ाया जा रहा है। जब सुप्रीम कोर्ट से भी जमानत नहीं मिली तो शायद और ज्यादा पढ़ाया जाये।
कानून मेरा विषय नहीं है इसलिए मैं उसपर नहीं लिखता लेकिन जानना समझना तो चाहता ही हूं। मुझे आश्चर्य है कि कानून के जानकारों ने अभी तक यह मुद्दा नहीं उठाया और पूर्व जजों ने जो चिट्ठी लिखी उसमें भी यह मामला नहीं है। आप जानते हैं कि दिल्ली के मुख्यमंत्री जेल में हैं। उन्होंने ‘नैतिक आधार पर’ इस्तीफा नहीं दिया है और उन्हें पद से नहीं हटाया गया है। एक निर्वाचित सरकार जिसे जनता और बहुमत का पूरा समर्थन है जेल से चल रही है या नहीं चल रही है। असल में भाजपा के मनोनीत उपराज्यपाल के जरिये चल रही है जिन पर मारपीट का मुकदमा लंबित है और अदालत ने राहत दे रखी है। कानूनन मुख्यमंत्री को पद से हटाया नहीं जा सकता है और जमानत नहीं मिल रही है (क्योंकि केस पीएमएलए का बनाया गया है)। पद से हटाने की मांग करने वाली याचिकाएं सुनी भी नहीं गईं, खारिज हो गई हैं। तो रास्ता क्या है? कानून के जानकार इसपर चर्चा क्यों नहीं कर रहे हैं?
जो भी हो, प्रधानमंत्री ने कहा है और वह भी अखबारों में छपा है, “चुनावी बांड पर विपक्ष झूठ फैला रहा है …. देश को काले धन की ओर झोंका, सब पछतायेंगे”। विपक्ष ने अगर कहा है कि फलाने ने ईडी के छापे के बाद इतने करोड़ का बांड खरीदा, भाजपा को दिया और फिर उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई या राहत मिल गई तो इसमें झूठ क्या है? और है तो झूठ बोलने वाले के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है (हमें राहुल गांधी को दो साल की अधिकतम सजा याद है)। प्रधानमंत्री चुनाव के समय इतना गंभीर आरोप बिना नाम लिये, बिना उदाहरण क्यों लगा रहे हैं? अगर इलेक्टोरल बांड को असंवैधानिक करार देना देश को काले धन की ओर झोंकना है तो यह किसने किया? सूचना तो यही कि सुप्रीम कोर्ट ने किया है।
जाहिर है, यह चुनाव प्रचार ही हो तो भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिप्पणी है। उसपर पूर्व जजों की चिट्ठी – जिसमें घटना या कारण का उल्लेख नहीं है। हो तो मीडिया ने नहीं बताया है। मैं जनता को मिल रही सूचनाओं की बात कर रहा हूं। अखबार बता रहे हैं, “प्रधानमंत्री ने कहा है, बॉन्ड न होता तो कैसे पता चलता, पैसा कहां से आया, कहां गया”। कहने की जरूरत नहीं है कि यह दलील सुप्रीम कोर्ट में भी दी गई होगी और इसपर चर्चा हुई होगी। फिर भी प्रधानमंत्री कह रहे हैं और प्रचार कर रहे हैं तो यह उनकी समझ और प्राथमिकता है। हो सकता है उन्हें यह ठीक लगता हो पर ठीक है या नहीं है यह कौन तय करेगा? क्या बहुमत मिलने के कारण वही देश के नीति नियंता हैं? सबसे भाग्य वही तय करेंगे? संविधान पीठ के फैसले का कोई मतलब नहीं है? ऐसे समय में पूर्व जजों की चिट्ठी से क्या होना है और वह किसलिए हैं – इसे भी समझना मुश्किल है।
कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री पद का दुरुपयोग कर रहे हैं। चुनाव प्रचार के लिए पहले भी झूठ बोला है और फिर बोल रहे हैं। यह कोई नई बात नहीं है। जहां तक सुप्रीम कोर्ट और दबाव के साथ सरकार के रुख की बात है सुप्रीम कोर्ट के चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस और उसके बाद जो सब हुआ उसी को याद कर लीजिये। बेशक मैं गलत हो सकता हूं पर मुझे लगता है कि कारण प्रधानमंत्री ही हैं। जो हालात हैं उनमें वे चुनाव हार सकते हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ भी बोल रहे हैं और अखबार उसे प्रचारित कर रहे हैं। आज की खबरों से संदेश तो यही जा रहा है कि इलेक्टोरल बांड से देश का भला होना था, सब पछतायेंगे मतलब वही सही हैं और सुप्रीम कोर्ट ने गलत किया है और उसपर पूर्व जजों की चिट्ठी। यह सब तब जब सबको पता है कि तमाम संवैधानिक संस्थाएं सरकार के नियंत्रण में हैं। पूर्व जजों को ईनाम दिया जा चुका है। विरोधियों को डराने, धमकाने, जेल में रखने के सैकड़ों उदाहरण हैं।
ऐसे में अगर यह दिख रहा है कि सुप्रीम कोर्ट या मुख्य न्यायाधीश सरकार के खिलाफ कार्रवाई या फैसले कर रहे हैं तो उन्हें पूर्व जजों की चिट्ठी और उसका आधार सार्वजनिक नहीं होना भी सामने है। मुझे तो यह भी दबाव लगता है लेकिन फैसला मुख्य न्यायाधीश को करना है और वे सक्षम हैं। चुनाव के समय विपक्षी नेताओं का जेल में होना निश्चित रूप से पहली बार है, पहले चुनाव चाहे जैसे पैसों से लड़े जाते हों इस बार सत्तारूढ़ दल के पास अरबों का सफेद धन है, सबसे बड़े विपक्षी दल का खाता फ्रीज है और अदालतों से राहत नहीं है। लेकिन उम्मीद सिर्फ मुख्य न्यायाधीश से ही। क्यों? अगर चुनाव तक छापे न पड़ें, जो जेल में हैं उन्हें रिहा कर दिया जाये, अगर विपक्षी नेताओं पर पीएमएलए के ही मामले चल रहे हैं तो भाजपा नेताओं पर वसूली के जो आरोप हैं उनमें से किसी की भी जांच करने का दिखावा ही हो। ऐसा कुछ नहीं है।
एक केंद्रीय मंत्री के बेटे के करोड़ों के लेन-देन और विदेश में गांजे की खेती की योजना आदि से संबंधित वीडियो और आरोप पिछले साल नवंबर में सार्वजनिक हुए थे। पीएमएलए का केस तो यहां बनना था पर केस बना दिल्ली की सरकार के खिलाफ जो आरोप ही चुनाव में पैसे खर्च कर देने के है। नरेन्द्र मोदी जिस व्यवस्था को सही बता रहे हैं उसमें सैकड़ों करोड़ की कोई जांच नहीं है और 100 करोड़ के मामले में मुख्यमंत्री (विपक्षी दलों के) गिरफ्तार हैं जो पैसा आरोप के अनुसार खर्च भी हो चुका है। लेकिन एक मंत्री की नशे की खेती की योजना की जांच करने की जरूरत भी नहीं समझी गई। भ्रष्टाचार रोक देने के दावों और इलेक्टोरल बांड जैसी व्यवस्था के बावजूद खबर है कि चुनाव आयोग ने इस बार अभी ही 4650 करोड़ रुपये जब्त किये हैं।
द हिन्दू में छपी खबर के अनुसार 2019 के चुनाव में कुल 3475 करोड़ रुपये जब्त हुए थे। अगर यह काला धन है तो पिछली व्यवस्था में ही कमाया गया है या फिर चुनाव लड़ने वालों को परेशान किया जा रहा है। भाजपा के पास पर्याप्त सफेद धन या दान है इसलिए वह लाभ की स्थिति में है। क्या चुनाव निष्पक्ष नहीं होना चाहिये और इस स्थिति में हो सकता है? मुख्य न्यायाीश को चिट्ठी लिखने की जरूरत है या जेल में बंद नेताओं को चुनाव तक छोड़ने, चुनाव लड़ने वाले दलों को पैसे देने और ऐसे ूदसरे काम की जरूरत है। अखबारों को भी निष्पक्ष होकर खबरें देना चाहिये। पर राहुल गांधी, कांग्रेस या इंडिया गठबंधन की खबरें पहले पन्ने पर नहीं के बराबर होती हैं।
द टेलीग्राफ का आज का कोट राहुल गांधी का है। उन्होंने कहा है, आप अच्छी तरह समझते हैं कि भाजपा हमारे देश के सभी (संवैधानिक) संस्थाओं पर एक एक करके कब्जा करने के प्रयास कर रही है …. ये संस्थाएं प्रधानमंत्री की निजी संपत्ति नहीं हैं। ये भारत के हर एक नागरिक की संपत्ति हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि आम नागरिक भले ही इसे न समझें पर संपादकों को तो समझना चाहिये लेकिन यह खबर आज सिर्फ नवोदय टाइम्स में पहले पन्ने पर प्रधानमंत्री के भाषण के साथ है। राहुल गांधी ने यह भी कहा है कि उनकी लड़ाई संविधान की रक्षा करने और उसे मिटाने की चाह रखने वालों से है। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि प्रधानमंत्री क्या कर रहे हैं और राहुल गांधी क्या चाहते हैं। लेकिन ज्यादातर अखबार नहीं बतायेंगे।