यशवंत सिंह-
तब मेरी औक़ात साल भर में पाँच सौ रुपये बचत करने की थी!
एक पीपीएफ अकाउंट खुलवाया था बिटिया के नाम, बहुत पहले, मेरठ में, Shrikant Asthana सर की सलाह पर। तब दैनिक जागरण में हुआ करता था। ये कई साल पहले मेच्योर हो गया लेकिन आलस्य वश निकलवा नहीं पाया। अब विथड्रॉल शुरू कराया है।
डिटेल देख रहा था तो पाँच सौ रुपये कैश डिपाजिट पर नज़र गई। याद आया कि उस वर्ष मेरे पास सालाना जमा की खानापूरी करने के लिए मात्र पाँच सौ रुपये थे। पीपीएफ अकाउंट जारी रखने के लिए साल में एक बार कम से कम पाँच सौ रुपये जमा करना होता है। वर्ष 2015 में मेरी औक़ात सालाना बचत करने की वाक़ई पाँच सौ रुपये थी।
मेरे पर ब्लैकमेलिंग / एक्सटॉरशन समेत न जाने कितने मुक़दमे चल रहे हैं, सीना ठोंक पत्रकारिता करने के कारण, भड़ास निकालने के कारण। सोचिए, कमाई के नाम पर पीपीएफ अकाउंट में कुल नौ दस लाख रुपये हैं। बिटिया आज मज़ाक़ में बोली- “पापा दहेज के लिये बस तुम यही नौ दस लाख रखे हो”
सच में, अब सोचता हूँ तो लगता है कि मैंने ज़िंदगी पैसों के लिए जी ही नहीं। सरोकार, आदर्श और अहंकार को जीता रहा। वो तो भला हुआ भड़ास चल निकला और बहुत सारे समर्थक साथ खड़े हो गये अन्यथा मुझे दिल्ली एनसीआर से सपरिवार गाँव की तरफ़ कूच करना पड़ गया होता।
मेरे फ़ोन कई बार बड़े लोगों ने लिसनिंग पर लगवाये। उन्होंने एक दारूबाज़ को भजन गाते सुना- नईहरवा हमका न भावे, उन्होंने मेरी गालियाँ सुनी जो प्रलोभन देने वालों और धमकाने वालों को मैंने पलट कर दी।
बड़े लोगों ने न जाने किन किन एजेंसियों के ज़रिए मेरे अकाउंट खँगलवाये। उन्हें सिक्स डिजिट में बैलेंस न दिखा। वे सोचते होंगे- कैसा पागल आदमी है!
ख़ुद भी ताज्जुब करता हूँ, कैसे सर्वाइव कर गया मैं। दुनिया का सबसे बुरा आदमी घोषित किया गया। छेड़छाड़ के दो एफ़आईआर, उगाही-ब्लैकमेलिंग के पाँच पाँच मुक़दमे, विभिन्न टाइप के अपराधों आरोपों को मिला कर साठ सत्तर केस।
कभी लोड नहीं लिया। तत्काल में जीने का अभ्यास करता गया। मुझे लगता रहा शुरू से, मैं नहीं करता, मुझसे कोई कराता है। जाने किन अदृश्य ताक़तों का पल पल साथ है। सिस्टम के जिन महाबदमाश दैत्यों के ख़िलाफ़ लोग सोच भी नहीं पाते, उनके ख़िलाफ़ बेख़ौफ़ लिखा और बुरी तरह झेला।
मुश्किल वक्त में अक्सर एक आदमी भी साथ खड़े होने वाला नहीं होता। अकेले दौड़ लगाता। अकेले सीना ताने हर जगह घुस जाता। जो होना होगा, वो होगा, डरना क्या।
सच तो यही है कि किसी मनुष्य के देह की कोई क़ीमत नहीं। कोई विशिष्ट नहीं है। देह के आने जाने का क्रम लगा हुआ है। हम ज़िंदा इसलिए हैं क्योंकि बहुत सारे लोग मर रहे हैं। इसी तरह हमें भी बहुतों की ज़िंदगी के लिए एक दिन मरना होगा। ये क्रम है। ये गोल गोल चक्कर है। यही जीवन राग है।
मैं पहले कम्युनिस्ट था। अब यक़ीन से कह सकता हूँ कि मैं कुछ नहीं हूँ। मैं सबमें हूँ। अब अपने और पराये में भेद मिटने लगा है। बुराई और अच्छाई का भेद मिटने लगा है। सब कुछ एक न ख़त्म होने वाले खेल की तरह लगता है।
डुबोया मुझको होने ने, न मैं होता तो क्या होता….जै जै
नीचे पढ़ें पोस्ट पर आए कुछ सवाल-जवाब…
हिमांशु ठाकुर : भाईसाहब
क्या यह मान लिया जाए
की निष्पक्ष पत्रकारिता में कुछ नही धरा है! {आर्थिक दृष्टिकोण से}?
यशवंत सिंह : Himanshu Thakur जितना जल्दी मान लें, उतना अच्छा। ये एक भ्रम है, मृग मरीचिका है। मिडिल क्लास के आदर्शवादी बच्चे इस ट्रैप में फँसेंगे और झेलेंगे। दरअसल मीडिया नाम की कोई चीज होती ही नहीं। जैसे लोकतंत्र एक नाटक है वैसे ही उसका मीडिया वाला पोरशन मात्र एक प्रहसन है। एक तानाशाह पीएम ने पूरी मीडिया को मैनेज कर लिया, एक प्रेस कांफ्रेंस नहीं करता, एक सवाल नहीं लेता, क्या कर लिया निष्पक्ष मीडिया ने? तो जितना जल्दी निष्पक्षता का भ्रम टूटे उतना अच्छा!
सत्ता से सवाल : बिलासपुर कलेक्टर का बयान
मीडिया को निडर होना चाहिए निष्पक्ष नही,
इस संक्षिप्त बयान का क्या मतलब निकाला जाए?
यशवंत सिंह : सत्ता से सवाल यही कि खुलेआम सिर उठा कर तेल लगाये मीडिया, डरे नहीं तेल लगाने में!
सौजन्य : फेसबुक